जीवनी/आत्मकथा >> पाब्लो नेरूदा एक कैदी की खुली दुनिया पाब्लो नेरूदा एक कैदी की खुली दुनियाअरुण माहेश्वरी
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इसमें प्रेम के कम्युनिस्ट कवि के सम्मोहक जीवन की बिना किसी अतिरंजना के एक प्रामाणिक तस्वीर पेश की गई है.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पाब्लो नेरुदा जब 1971 में नोबेल पुरस्कार लेने के लिए पेरिस स्टाक होम
पहुँचे थे, उसी समय हवाई अड्डे पर ढेर सारे पत्रकारों में से किसी ने उनसे
पूछा : सबसे सुन्दर शब्द क्या है ?’ इस पर नेरुदा ने कहा
‘‘मैं इसका जवाब रेडियो के गाने की तरह काफी फूहड़
ढंग से एक
ऐसे शब्द के जरिये देने जा रहा हूँ जो बहुत घिसा-पिटा शब्द है : वह शब्द
है प्रेम। आप इसका जितना ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, यह उतना ही ज्यादा
मजबूत होता जाता है। और इस शब्द का दुरुपयोग करने में भी कोई नुकसान नहीं
होता है।’’
नेरुदा की ही एक पंक्ति है : ‘‘कितना संक्षिप्त है प्यार और भूलने का अरसा कितना लम्बा।’’
सिर्फ 23 वर्ष की उम्र में ही अपने संकलन ‘प्रेम की बीस कविताएँ और निशाद का एक गीत’ से विश्व प्रसिद्ध हो चुके प्रेम के कवि नेरुदा एक निष्ठावान कम्युनिस्ट थे। अपने जीवन में सकारात्मक बहुत कुछ को वे चिले की कम्युनिस्ट पार्टी की देन मानते थे। वे एक कवि और कम्युनिस्ट के अलावा एक राजदूत दुनिया भर में शरण के लिए भटकते राजनीतिक शरणार्थी चिले के पार्लियामेण्ट में सिनेटर और राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार भी थे। वे आम लोगों और सारी दुनिया के साहित्य प्रेमियों के प्रिय रहे, तो समान रूप से हमेशा विवादों में भी घिरे रहे। उनकी कविता की तरह ही उनका समूचा जीवन कम आकर्षक नहीं रहा है।
यह पुस्तक प्रेम की कम्युनिस्ट कवि के सम्मोहक जीवन के बिना किसी अतिरंजना के एक प्रामाणिक तस्वीर पेश करती है। इसे पाब्लो नेरुदा पर हिन्दी में अपने ढंग की एक अकेली किताब कहा जा सकता है।
श्री चन्द्रबली सिंह
को जिनकी
‘‘आत्मा के नियम इसकी अनुमति नहीं देते
कि सिक्कों पर या गणनागृहों में बिका जाए।’’
नेरुदा की ही एक पंक्ति है : ‘‘कितना संक्षिप्त है प्यार और भूलने का अरसा कितना लम्बा।’’
सिर्फ 23 वर्ष की उम्र में ही अपने संकलन ‘प्रेम की बीस कविताएँ और निशाद का एक गीत’ से विश्व प्रसिद्ध हो चुके प्रेम के कवि नेरुदा एक निष्ठावान कम्युनिस्ट थे। अपने जीवन में सकारात्मक बहुत कुछ को वे चिले की कम्युनिस्ट पार्टी की देन मानते थे। वे एक कवि और कम्युनिस्ट के अलावा एक राजदूत दुनिया भर में शरण के लिए भटकते राजनीतिक शरणार्थी चिले के पार्लियामेण्ट में सिनेटर और राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार भी थे। वे आम लोगों और सारी दुनिया के साहित्य प्रेमियों के प्रिय रहे, तो समान रूप से हमेशा विवादों में भी घिरे रहे। उनकी कविता की तरह ही उनका समूचा जीवन कम आकर्षक नहीं रहा है।
यह पुस्तक प्रेम की कम्युनिस्ट कवि के सम्मोहक जीवन के बिना किसी अतिरंजना के एक प्रामाणिक तस्वीर पेश करती है। इसे पाब्लो नेरुदा पर हिन्दी में अपने ढंग की एक अकेली किताब कहा जा सकता है।
श्री चन्द्रबली सिंह
को जिनकी
‘‘आत्मा के नियम इसकी अनुमति नहीं देते
कि सिक्कों पर या गणनागृहों में बिका जाए।’’
नेरुदा
प्राक्कथन
यह वर्ष जुलाई 1904 में जन्मे पाब्लो नेरुदा का जन्म शताब्दी वर्ष है। इस
मौके पर सारी दुनिया में नाना प्रकार के क्रर्यक्रम आयोजित किए जा रहे
हैं। चीले के ‘फाउंडेशन पाब्लो नेरुदा’, स्टैनफोर्ड
सेंटर फार
लैटिन अमेकिन स्टडीज’, चीले विश्वविद्यालय का मानविकी विभाग,
पाब्लो
नेरुदा जन्मशती पर गठित चीले के राष्ट्रपति के आयोग, सल्वादोर आइंदे की
भतीजी और प्रसिद्ध उपन्यासकार इसाबेल आइंदे, चीले और उत्तरी अमेरिका के भी
कई कलाकार और कवि मिलकर पाब्लो नेरुदा की जिन्दगी और उनके कार्यों पर एक
डाक्यूमेंट्री बना रहे हैं और अंग्रेजी में उनकी सभी अनुदित रचनाओं का एक
नया संकलन प्रकाशित करने में लगे हुए हैं। लाल पोस्ता की नदी, पृथ्वी लाल
शराब, घोड़ों की साँसों, तंबे की खदानों को मजदूरों के खुरदरे हाथों वर्षा
और माच्यु पिच्चु की रजत चट्टनों के रंग से रंगी उनकी कविता के बहुरंगी
संसार की तरह ही नेरुदा का अपना एक ऐसा गतिशील और आकर्षण व्यक्तित्व भी
रहा है, जो नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि से कम विशाल नहीं है। वे कवि के
साथ ही एक कूटनीतिज्ञ थे, फ्रांस के राजदूत, कम्युनिस्ट सिनेटर, चीले के
राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार, और लम्बे अर्से तक निर्वासित एक राजनीतिज्ञ,
शरणार्थी, और सचमुच एक विश्व-नागरिक भी थे। उन पर जितनी पाबन्दियाँ लगीं,
उतना ही उनका निजी संसार विस्तृत होता चला गया। उन्हें जितना कैदखानों में
रखने की कोशिश की गई, वे उतने ही ज्यादा आज़ाद रहे। उनकी दृढ़ वैचारिक
प्रतिबद्धता ही उनके खुले और अदम्य मानवीय व्यवहार का आधार बनी। उनके
मित्रों में पाब्लो पिकासो, आर्थर मिलर, लोर्का, नाजिम हिकमत से लेकर
सड़कों के आम आदमी और सभी लघु और तिरस्कृत मानी जाने वाली चीज़ें शामिल
थीं।
वे जनता के कवि थे। ‘‘मैंने कविता में हमेशा आम आदमी के हाथों को दिखाना चाहा। मैंने हमेशा ऐसी कविता की आस की जिसमें उँगलियों की छाप दिखाई दे। मिट्टी के गारे की कविता, जिसमें पानी गुनगुना सकता हो रोटी की कविता जहाँ हर कोई खा सकता हो।’’ उनसे पूछा गया ‘‘आप क्यों लिखना चाहते हैं ?’’ उनका उत्तर था ‘‘मैं एक वाणी बनाना चाहता हूँ ?’’ दुनिया में नेरुदा की पहचान ‘जनवाणी के कवि’ के रूप में रही है। उनके लेखन के विषय में राजनीति से लेकर समुद्र और एक साधारण चीलेवीसी से लेकर रिचर्ड निक्सन तक, सब समान सहजता और विस्मय के साथ आते हैं। नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत, कम्युनिस्ट, प्रेम का गायन और जनवाणी का कवि पाब्लो नेरुदा की रचनाएँ सुरीली घंटियों और चेतावनी के घंटों, दोनों ही ध्वनियाँ सुनाती हैं। गैब्रियल गार्सिया मारक्वेज ने पाब्लो नेरुदा को ‘‘बीसवीं शदी के किसी भी भाषा का सबसे महान कवि’’ कहा था। सच कहा जाए तो पूरा लातिन अमेरिकी साहित्य आज अपने जिस जादुई यथार्थवाद के सम्मोहन से सारी दुनिया को मतवाला किए हुए है, यथार्थ जीवन के सूक्ष्मतम पर्यवेक्षण से उत्पन्न उस जादू के सभी तंतुओं और नेरुदा की कविताओं में काफी विकसित रूप से पाया जा सकता है। यह संश्लिष्ट यथार्थ की ठोस जमीन से कल्पना की अनोखी उड़ान की सर्जना का कमाल है। इसलिए इसके अन्दर एक व्यक्त हुआ आक्रोश और प्रतिवाद भी प्रेम की उत्तेजना जितना ही मर्मभेदी और मादक है।
नेरुदा की रचनाशील को उनके व्यक्तिव के साथ ही निरंतर विकासमान रूप में समझा जा सकता है। उनकी कविताओं को उनके व्यक्तित्व से जुदा करके देखना कोरी नादानी के सिवाय कुछ नहीं होगा। इसलिए आमतौर पर यह माना जाता है कि नेरुदा की कविताओं में सही रूप से प्रवेश के लिए जरूरी है कि पहले उनके ‘ममायर्स’ (नेरुदा के आत्म-जीवनीमूलक संस्मरणओं) को गम्भीरता से पढ़ना होगा। वर्ना, ऐसे अनेक प्रसंग आपकी पहुँच के बाहर ही रहेंगे जो वास्तव में उनकी कविता के मर्म तक जाने की किसी कुँजी से कम महत्त्व नहीं रखते। इसके अतिरिक्त स्वयं ये ‘मामायर्स’ भी किसी कविता से कम ईमानदार और मर्मस्पर्शी नहीं है।
इस सिलसिले में यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हिन्दी में अब तक नेरुदा की कविताओं का तो कइयों ने अनुवाद किया है, जिनमें खासतौर पर चन्द्रबली सिंह का किया हुआ अनुवाद चयन और गुणवत्ता, दोनों ही लिहाज से श्रेष्ठ कहा जा सकता है, लेकिन आज तक किसी ने भी उनके ‘ममायर्स’ के अनुवाद की कोई गम्भीर कोशिश नहीं की है। कुछ लोगों ने इसके चुनिन्दा अंशों का जो अनुवाद किया भी है, वह इतना मनमाना और गलतियों से भरा हुआ है कि उसका उपयोग करने के पहले कई बार विचार करने की जरूरत है।
बहरहाल, नेरुदा की जीवनी को लिखने के क्रम में स्वाभाविक तौर पर ही उनके ‘ममायर्स’ का यहाँ भरपूर इस्तेमाल किया गाया है। जिनमें नेरुदा के ‘ममायर्स’ की सत्यता को जाँचने की कोशिश की गईं हैं। इनमें खासतौर पर साल भर पहले ही प्रकाशित एडम फीन्सतीन की पुस्तक ‘पाब्लो नेरुदाः अ पैशन फार लाइफ’ कि मैं यहाँ चर्चा करना जरूरी समझता हूँ। फीन्सतीन के दृष्टिकोण से अपनी पूर्ण असहमति के बावजूद, उन्होंने इस जीवनी को लिखने में जो शोध कार्य किया है, उसकी असहमति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इससे ऐसी अनेक रिक्तताओं को भरने में आसानी हुई है, जो किसी भी वजह से क्यों न हो, नेरुदा ने अपने ‘ममायर्स’ में छोड़ दी थी। इसलिए उनकी जीवनी को ज्यादा प्रमाणित बनाने में फीन्सतीन द्वारा जुटा गईं सामग्री निश्चित तौर पर उपयोगी रही है।
हिन्दी में नेरुदा के बारे में चेतना पैदा करने में जिन चन्द लोगों की विशेष भूमिका रही है, उन्होंने नेरुदा कि कविताओं पर लिखना शुरू कर दिया था। चन्द्रबली सिंह और प्रभाती नौटियाल द्वारा अनुचित, साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित नेरुदा की कविताओं के संकलनों की भूमिका भी उन्होंने ही लिखी। मेरी इस पुस्तक की भूमिका भी लिखकर नामवरजी ने पुस्तक के मूल्य को बढ़ाया है, जिसके लिए मैं उनके प्रति आभारी हूँ।
इस पुस्तक के सभी अध्याय भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुए हैं। ‘स्वाधीनता के कामरोडों में जिस उत्साह के साथ इसके प्रकाशन में सहयोग किया उसके लिए लेखक सदा उनका आभारी रहेगा। यहाँ उन विशेष लेखक महोदय के प्रति भी आभार प्रकट करना जरूरी है, जिनके नेरुदा के बारे में एक उलजलूल लेख की वजह से ही ‘स्वाधीनता’ में नेरुदा पर धारावाहिक रूप में लिखने की प्रेरणा मिली थी। दुर्भाग्य से यह कम्युनिस्ट विरोधी, सीआईए द्वारा प्रचारित झूठों पर आधारित निकृष्ट लेख, संपादकीय असावधानी की वजह से, ‘स्वाधीनता’ के ही 2004 के ‘शारदीय विशेषांक’ में प्रकाशित हो गया था।
अन्त में, इस पुस्तक के जरिये नेरुदा को समझने और अपनाने में हिन्दी के पाठकों को थोड़ी-सी सहायता भी मिली, तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूँगा।
अगस्त 2005
वे जनता के कवि थे। ‘‘मैंने कविता में हमेशा आम आदमी के हाथों को दिखाना चाहा। मैंने हमेशा ऐसी कविता की आस की जिसमें उँगलियों की छाप दिखाई दे। मिट्टी के गारे की कविता, जिसमें पानी गुनगुना सकता हो रोटी की कविता जहाँ हर कोई खा सकता हो।’’ उनसे पूछा गया ‘‘आप क्यों लिखना चाहते हैं ?’’ उनका उत्तर था ‘‘मैं एक वाणी बनाना चाहता हूँ ?’’ दुनिया में नेरुदा की पहचान ‘जनवाणी के कवि’ के रूप में रही है। उनके लेखन के विषय में राजनीति से लेकर समुद्र और एक साधारण चीलेवीसी से लेकर रिचर्ड निक्सन तक, सब समान सहजता और विस्मय के साथ आते हैं। नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत, कम्युनिस्ट, प्रेम का गायन और जनवाणी का कवि पाब्लो नेरुदा की रचनाएँ सुरीली घंटियों और चेतावनी के घंटों, दोनों ही ध्वनियाँ सुनाती हैं। गैब्रियल गार्सिया मारक्वेज ने पाब्लो नेरुदा को ‘‘बीसवीं शदी के किसी भी भाषा का सबसे महान कवि’’ कहा था। सच कहा जाए तो पूरा लातिन अमेरिकी साहित्य आज अपने जिस जादुई यथार्थवाद के सम्मोहन से सारी दुनिया को मतवाला किए हुए है, यथार्थ जीवन के सूक्ष्मतम पर्यवेक्षण से उत्पन्न उस जादू के सभी तंतुओं और नेरुदा की कविताओं में काफी विकसित रूप से पाया जा सकता है। यह संश्लिष्ट यथार्थ की ठोस जमीन से कल्पना की अनोखी उड़ान की सर्जना का कमाल है। इसलिए इसके अन्दर एक व्यक्त हुआ आक्रोश और प्रतिवाद भी प्रेम की उत्तेजना जितना ही मर्मभेदी और मादक है।
नेरुदा की रचनाशील को उनके व्यक्तिव के साथ ही निरंतर विकासमान रूप में समझा जा सकता है। उनकी कविताओं को उनके व्यक्तित्व से जुदा करके देखना कोरी नादानी के सिवाय कुछ नहीं होगा। इसलिए आमतौर पर यह माना जाता है कि नेरुदा की कविताओं में सही रूप से प्रवेश के लिए जरूरी है कि पहले उनके ‘ममायर्स’ (नेरुदा के आत्म-जीवनीमूलक संस्मरणओं) को गम्भीरता से पढ़ना होगा। वर्ना, ऐसे अनेक प्रसंग आपकी पहुँच के बाहर ही रहेंगे जो वास्तव में उनकी कविता के मर्म तक जाने की किसी कुँजी से कम महत्त्व नहीं रखते। इसके अतिरिक्त स्वयं ये ‘मामायर्स’ भी किसी कविता से कम ईमानदार और मर्मस्पर्शी नहीं है।
इस सिलसिले में यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हिन्दी में अब तक नेरुदा की कविताओं का तो कइयों ने अनुवाद किया है, जिनमें खासतौर पर चन्द्रबली सिंह का किया हुआ अनुवाद चयन और गुणवत्ता, दोनों ही लिहाज से श्रेष्ठ कहा जा सकता है, लेकिन आज तक किसी ने भी उनके ‘ममायर्स’ के अनुवाद की कोई गम्भीर कोशिश नहीं की है। कुछ लोगों ने इसके चुनिन्दा अंशों का जो अनुवाद किया भी है, वह इतना मनमाना और गलतियों से भरा हुआ है कि उसका उपयोग करने के पहले कई बार विचार करने की जरूरत है।
बहरहाल, नेरुदा की जीवनी को लिखने के क्रम में स्वाभाविक तौर पर ही उनके ‘ममायर्स’ का यहाँ भरपूर इस्तेमाल किया गाया है। जिनमें नेरुदा के ‘ममायर्स’ की सत्यता को जाँचने की कोशिश की गईं हैं। इनमें खासतौर पर साल भर पहले ही प्रकाशित एडम फीन्सतीन की पुस्तक ‘पाब्लो नेरुदाः अ पैशन फार लाइफ’ कि मैं यहाँ चर्चा करना जरूरी समझता हूँ। फीन्सतीन के दृष्टिकोण से अपनी पूर्ण असहमति के बावजूद, उन्होंने इस जीवनी को लिखने में जो शोध कार्य किया है, उसकी असहमति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इससे ऐसी अनेक रिक्तताओं को भरने में आसानी हुई है, जो किसी भी वजह से क्यों न हो, नेरुदा ने अपने ‘ममायर्स’ में छोड़ दी थी। इसलिए उनकी जीवनी को ज्यादा प्रमाणित बनाने में फीन्सतीन द्वारा जुटा गईं सामग्री निश्चित तौर पर उपयोगी रही है।
हिन्दी में नेरुदा के बारे में चेतना पैदा करने में जिन चन्द लोगों की विशेष भूमिका रही है, उन्होंने नेरुदा कि कविताओं पर लिखना शुरू कर दिया था। चन्द्रबली सिंह और प्रभाती नौटियाल द्वारा अनुचित, साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित नेरुदा की कविताओं के संकलनों की भूमिका भी उन्होंने ही लिखी। मेरी इस पुस्तक की भूमिका भी लिखकर नामवरजी ने पुस्तक के मूल्य को बढ़ाया है, जिसके लिए मैं उनके प्रति आभारी हूँ।
इस पुस्तक के सभी अध्याय भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुए हैं। ‘स्वाधीनता के कामरोडों में जिस उत्साह के साथ इसके प्रकाशन में सहयोग किया उसके लिए लेखक सदा उनका आभारी रहेगा। यहाँ उन विशेष लेखक महोदय के प्रति भी आभार प्रकट करना जरूरी है, जिनके नेरुदा के बारे में एक उलजलूल लेख की वजह से ही ‘स्वाधीनता’ में नेरुदा पर धारावाहिक रूप में लिखने की प्रेरणा मिली थी। दुर्भाग्य से यह कम्युनिस्ट विरोधी, सीआईए द्वारा प्रचारित झूठों पर आधारित निकृष्ट लेख, संपादकीय असावधानी की वजह से, ‘स्वाधीनता’ के ही 2004 के ‘शारदीय विशेषांक’ में प्रकाशित हो गया था।
अन्त में, इस पुस्तक के जरिये नेरुदा को समझने और अपनाने में हिन्दी के पाठकों को थोड़ी-सी सहायता भी मिली, तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूँगा।
अगस्त 2005
-अरुण माहेश्वरी
जन्मशती पर नेरुदा
पाब्लो नेरुदा जन्मशती पर फिर याद आ रहे हैं तो सबसे पहले याद आते हैं
‘माच्चु पिच्चु के शिखर’ फिर याद आता है कालिदास का
हिमालय-‘पूर्मापरौ तोयनिधी बगाह्य स्थितः पृथिव्या इव
मानदण्डः।’
नेरुदा सचमुच ही बीसवीं शताब्दी की कविता की पृथ्वी पर एक ही मापदंड की तरह खडे़ हैं। पूर्व और पश्चिम के समुद्रों का अवगाहन उन्होंने भी किया है और उनकी कविता अपनी बाँहों में जैसे पूरी पथ्वी को घेरे हुए है। ‘ओ पृथ्वी ! मेरा इंतज़ार करो’ कहने का हक़ भी नेरुदा को ही हासिल है।
गरज कि नेरुदा के काव्य संसार में पृथ्वी भी है, समुद्र भी और पर्वत शिखर भी। पृथ्वी का विस्तार, समुद्र की गहराई और एक पहाड़ की ऊँचाई।
गौर से देखे तो इस पहाड़ के अन्दर एक ज्वालामुखी भी है। उस ज्वाला मुखी में रह-रहकर विस्फोट होते रहते हैं जिनसे सैलाब की तरह कविताएँ उमड़ती रही हैं। आज नेरुदा का सम्पूर्ण काव्य सृजन एक अतिमानवीय चमत्कार-सा प्रतीत होता है।
जो नेरुदा-समग्र मृत्यु के कुछ पहले प्रकाशित हुआ था वही साढ़े तीन हज़ार पृष्ठों का था। अब मरणोपरान्त प्रकाशित अवशिष्ट रचनाओं को जिल्दों को भी शामिल कर ले तो पाँच हजार पृष्ठों से कम न होंगे। ऐसी विपुल काव्य राशि बीसवीं शताब्दी के कितने कवियों के हिस्से में आती है ? कहने की आवश्यकता नहीं कि नेरुदा की यह काव्य सृष्टि मात्रा में विस्मयकारी होने के साथ ही गुणवत्ता में भी अजेय है।
इसके अलावा, परवर्ती पीढ़ी के निकोनार पारा जैसे प्रतिभाशाली कवि भी स्वीकार करते हैं कि नेरुदा ने स्पानी कविता की आधी शताब्दी की धारा मोड़ दी।
विपुल विराट का आकर्षण नेरुदा के स्वभाव में था। अपनी पुस्तक ‘यादें’ में उन्होंने स्वयं कहा है कि ‘मेरी कविता का यदि कोई अर्थ है तो वह है अबाध अन्तरिक्ष में फैलने की प्रवृत्ति ! इस पथ पर मेरी सहायता की है इसी गोलार्ध में एक अन्य कवि वाल्ट ह्विटमैन ने, मैनहटन के, मेरे कामरेड ने !’
इसलिए कुछ लोग उन्हें दक्षिणी अमेरिका का वाल्ट कहते हैं।
‘यादें’ में ही उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘भावनाओं, पदार्थों, पुस्तकों, घटनाओं और लड़ाइयों-इन सबके लिए मैं सर्वभक्षी हूँ। मैं समूची पृथ्वी को निगल जाना चाहता हूँ।’
कहते भी हैं, बड़ा वही जिसकी भूख बड़ी !
नेरुदा के क्रान्तिकारी होने में भी कहीं-न-कहीं इस भूख की भूमिका है। जैसा कि नेरुदा के स्पानी मित्रा कवि गार्सिया लोर्का ने कहा था, नेरुदा की कविता रौशनाई की अपेक्षा ख़ून के ज़्यादा नज़दीक है और वह बीसवीं शताब्दी के क्रान्तिकारी विचार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
वस्तुतः नेरुदा के लिए कविता स्वयं विद्रोह है क्योंकि विद्रोह कविता की प्रकृति है। इसलिए सच्चा कवि विद्रोह किए बिना रह नहीं सकता-विद्रोह का क्षेत्र कुछ भी हो सकता है। इसलिए उनके प्रिय नाटक भी वही थे जिन्होंने जीवन के किसी-न-किसी क्षेत्र में विद्रोह किया। ‘यादें’ पुस्तक में नेरुदा ने इस बात का उल्लेख किया है कि महान गुरिल्ला नेता चे ग्वेरा ने अपनी डायरी में सिर्फ़ एक कवि का उद्धरण दिया है और वह मैं हूँ।
फिलहाल उसी विद्रोह की चर्चा प्रासंगिता है जो नेरुदा ने कविता का दुनिया में किया और कहना होगा कि इसकी शुरुआत कविता की भाषा से हुई। इस भाषाई विद्रोह के कुछ सूत्र नेरुदा की पुस्तक ‘यादें’ में दर्ज हैं।
पहली समस्या तो यही थी-स्पेनवासियों की ‘स्पानी’ भाषा से दक्षिणी अमरीकियों को अपनी ‘स्पानी’ का विच्छेद एक तरह से यह भाषा की विचारधारा का मामला है और इस बारे में नेरुदा साफ़ कहते हैं कि गोंगोर का बर्फ़ जमा सौन्दर्य हमारे अक्षांशों के लिए नहीं; क्योंकि हमारा दक्षिण अमरीकी धरातल धूल-धूसर चट्टानों, खून सनी मिट्टी और चूर-चूर लावा बना रहा है।
सवाल इस क्षेत्रीय भाषा को बरतने का था-भाषा का ऐसा इस्तेमाल जैसे हम शरीर पर पहनने वाले कपड़ों का करते है-ऐसे कपड़ों का जो पसीनों से तर हैं, जिस पर खून और पसीने के धब्बे हैं, और टँकी हुई थिगलियाँ हैं। इसी से किसी लेखक की दिलेरी का पता चलता है और इसे ही ‘शैली’ कहते हैं।
इसके अलावा कवि नेरुदा अपने खास अन्दाज़ में भाषा के साथ ख़ानगी सलूक का भी बयान करते हैं। जिस भाषा के साथ जिंदगी गुज़ारनी है उसके साथ अंतरंगता कायम करने के लिए उसके साथ छेड़छाड़ और नोंक-झोंक किए बिना कैसे रहा जा सकता है ! नेरुदा ने अपनी कविताओं में दक्षिण अमेरिकी आम जनता की इसी ऊबड़-खाबड़ स्पानी भाषा को खुलकर बरतने का साहस किया है। लेकिन इस पर ठीक-ठीक राय देने का अधिकार उन्हें ही है जो भाषा के मर्मज्ञ हैं।
फिर भी यह निश्चित है कि एक सच्चे कवि के नाते भाषा नेरुदा की पहली चिन्ता है क्योंकि भाषा ही कवि का एकमात्र औज़ार है। इसलिए यदि एक रेल मिस्त्री के उस बेटे को अपने औज़ार से इतना लगाव था तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। इसी दृष्टि से नेरुदा ने कविता को एक ‘पेशा’ कहा था-न कि धंधा या व्यवसाय के बाजारू अर्थ में !
कविता में नेरुदा का विद्रोह स्वयं नेरुदावाद के विरुद्ध था। पहले एक छवि जतन से बनाते थे, फिर उसे तोड़कर दूसरी छवि बना लेते थे। 1920 से चलकर जीवन की अंतिम घड़ियों तक लगभग पचास वर्षों के सक्रिय सृजन कर्म में यही प्रकिया चलती रही। नेरुदा की इस लम्बी काव्य-यात्रा में कम से कम चार मंजिलें तो स्पष्ट रूप से लक्षित की ही गईं हैं। इनमें से प्रत्येक का सोदाहरण विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है। फिर भी मोटे तौर से इतना तो कहा ही जा सकता है कि नेरुदा ने प्रगाड़ प्रेम के अनेक मर्मस्पर्शी गीत लिखे हैं- हताश प्रेम में आकंठ तृप्ति के भी। कामोद्दीपक ऐन्द्रियता और मांसलता के चित्रों में तो नेरुदा अकुंठ और अपराजेय हैं। उनके काव्य संसार का एक अच्छा-खासा हिस्सा मानव शरीर की सुन्दरता का महोत्सव है।
इसी प्रकार उन्मुक्त प्रकृति में भी वे प्रवेश करते हैं तो उनकी दृष्टि उन पदार्थों पर जाती है जो सदियों से अनदेखे और अनलिखे रह गए हैं –चाहे वे पेड़-पौधे हों या छोटे-छोटे जीव-जन्तु ! वे प्रकृति में भी जड़ों तक साहस करते हैं और इस प्रकिया में ऐसे अप्रत्याशित और अपूर्व चित्र उभरते हैं जैसे वह पहली बार देखे गये हों। इस दृष्टि से नेरुदा की कविता दुर्लभ वनस्पतियों और वन्य प्राणियों तथा उनके अवशेषों का अद्धितीय संग्रहालय जैसा है। इस प्रकार कविता में चीले के जंगलों और समुद्र के अनूठे शब्दचित्रों को स्थान दिलाकर नेरुदा ने अपनी जन्मभूमि का ऋण अदा कर दिया।
इसके साथ ही नेरुदा ने वर्णान्ध लोगों की आँखों में अँगुली डालकर यह भी दिखा दिया कि क्रान्ति का केवल एक ही रंग नहीं होता। सम्पूर्ण क्रान्ति में अनेक रंग होते हैं और वह भी जीवन की तरह ही बहुरंगी होती है, लेकिन ‘बहुरूपिया’ नहीं !
नेरुदा के व्यक्तित्व का एक और पहलू है जिसकी ओर लोगों का ध्यान कम ही गया है। वे आत्मचेतस् कवि के साथ-साथ काव्य के मर्मी समीक्षक और सिद्धान्तकार भी थे। अपनी पुस्तक ‘यादें’ के कविता के सन्दर्भ में यथार्थ पर संक्षिप्त किन्तु सारगर्भ टिप्पणियाँ की हैं।
प्रसंगवश यहाँ केवल एक टिप्पणी का उल्लेख पर्याप्त है, ‘‘जहाँ तक यथार्थवाद का प्रश्न है। कविता में यथार्थवाद से मुझे नफरत है। कविता के लिए न तो अतियथार्थवादी होना जरूरी है न अर्धयथार्थवादी। वैसे, वह चाहें तो प्रतियथार्थवादी (अर्थात् यथार्थवाद-विरोधी) हो सकती है। वह यथार्थवाद-विरोधी है तो अच्छी तरह सोच-समझकर या बिना सोचे-समझे भी, फिर भी वह अन्ततः कविता है।’’
सरसरी तौर से देखने पर नेरुदा का यह वक्तव्य कबीर की उलटबाँसी जैसा लग सकता है; क्योंकि इसी प्रसंग से पहले नेरुदा ने यह भी कहा है वह भी मुरदा है।’’
कहना न होगा कि नेरुदा का यह वक्तव्य भी विरोधाभासी है। कवि के अभिप्रेत आशय का पता लगाने के लिए यह याद करना जरूरी है कि अपनी काव्ययात्रा के प्रथम चरण में ही नेरुदा ने कुछ ऐसी कविताएँ लिखी थीं जिन्हें आगे चलकर कुछ लोगों ने ‘अतियथार्थवादी’ बताकर प्रशंसा की। मज़ा यह कि तब तक फ्रांसीसी साहित्य अतियथार्थवाद का उदय भी नहीं हुआ था।
इसी के साथ ‘माच्चु के शिखर’ शीर्षक प्रसिद्ध कविता को भी लें जो यथार्थवादी भी मानी जाती है और क्रान्तिकारी भी। लेकिन क्या उसमें केवल यथार्थवाद ही है ?
इसलिए नेरुदा ने उक्त वक्तव्य को उनके अपने कवि-कर्म के समग्र सन्दर्भ में रखकर देखें तो कविता के संदर्भ में तथाकथित यथार्थवाद की सार्थकता स्पष्ट हो जाएगी। वैसे, अब तो कथा साहित्य में भी यथार्थवाद की सीमाएँ सामने आ गयी हैं।
कहना न होगा कि नेरुदा ने समय से यथार्थवाद से जुड़े विभ्रम का निवारण कर दिया। नेरुदा के कनिष्ठ मित्र गार्सिया मार्खेज़ ने यही कार्य आगे चलकर सम्पन्न किया और इस तरह एक एकांगी तथा अतिवादी साहित्य विचारधारा का निराकरण हो गया। यह भी कुछ कम क्रान्तिकारी उपलब्धि नहीं है।
फिलहाल इतने से ही संतोष करना पड़ेगा। आज जो भी बन पड़ा, वह भी एक संयोग ही है। न अरुण महेश्वरी की यह पुस्तक ‘पाब्लो नेरुदाः एक कैदी की खुली दुनिया’ तैयार होती न वे मुझे इसके साथ दो शब्द जोड़ने के लिए तैयार करते। पाब्लो नेरुदा के जीवन और कृतित्व पर हिन्दी में यह पहली मुकम्मल पुस्तक है-यथातथ्य, प्रामाणिक और विवेकपूर्ण। नेरुदा की जन्मशती के अवसर पर हिन्दी की ओर से यह उपयुक्त उपहार है।
अंत में इन थोड़े से शब्दों के साथ प्रिय साथी अरुण माहेश्वरी को हार्दिक धन्यवाद और कामरेड पाब्लो नेरुदा को लाल सलाम।
नई दिल्ली
27 नवम्बर, 2005
नेरुदा सचमुच ही बीसवीं शताब्दी की कविता की पृथ्वी पर एक ही मापदंड की तरह खडे़ हैं। पूर्व और पश्चिम के समुद्रों का अवगाहन उन्होंने भी किया है और उनकी कविता अपनी बाँहों में जैसे पूरी पथ्वी को घेरे हुए है। ‘ओ पृथ्वी ! मेरा इंतज़ार करो’ कहने का हक़ भी नेरुदा को ही हासिल है।
गरज कि नेरुदा के काव्य संसार में पृथ्वी भी है, समुद्र भी और पर्वत शिखर भी। पृथ्वी का विस्तार, समुद्र की गहराई और एक पहाड़ की ऊँचाई।
गौर से देखे तो इस पहाड़ के अन्दर एक ज्वालामुखी भी है। उस ज्वाला मुखी में रह-रहकर विस्फोट होते रहते हैं जिनसे सैलाब की तरह कविताएँ उमड़ती रही हैं। आज नेरुदा का सम्पूर्ण काव्य सृजन एक अतिमानवीय चमत्कार-सा प्रतीत होता है।
जो नेरुदा-समग्र मृत्यु के कुछ पहले प्रकाशित हुआ था वही साढ़े तीन हज़ार पृष्ठों का था। अब मरणोपरान्त प्रकाशित अवशिष्ट रचनाओं को जिल्दों को भी शामिल कर ले तो पाँच हजार पृष्ठों से कम न होंगे। ऐसी विपुल काव्य राशि बीसवीं शताब्दी के कितने कवियों के हिस्से में आती है ? कहने की आवश्यकता नहीं कि नेरुदा की यह काव्य सृष्टि मात्रा में विस्मयकारी होने के साथ ही गुणवत्ता में भी अजेय है।
इसके अलावा, परवर्ती पीढ़ी के निकोनार पारा जैसे प्रतिभाशाली कवि भी स्वीकार करते हैं कि नेरुदा ने स्पानी कविता की आधी शताब्दी की धारा मोड़ दी।
विपुल विराट का आकर्षण नेरुदा के स्वभाव में था। अपनी पुस्तक ‘यादें’ में उन्होंने स्वयं कहा है कि ‘मेरी कविता का यदि कोई अर्थ है तो वह है अबाध अन्तरिक्ष में फैलने की प्रवृत्ति ! इस पथ पर मेरी सहायता की है इसी गोलार्ध में एक अन्य कवि वाल्ट ह्विटमैन ने, मैनहटन के, मेरे कामरेड ने !’
इसलिए कुछ लोग उन्हें दक्षिणी अमेरिका का वाल्ट कहते हैं।
‘यादें’ में ही उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘भावनाओं, पदार्थों, पुस्तकों, घटनाओं और लड़ाइयों-इन सबके लिए मैं सर्वभक्षी हूँ। मैं समूची पृथ्वी को निगल जाना चाहता हूँ।’
कहते भी हैं, बड़ा वही जिसकी भूख बड़ी !
नेरुदा के क्रान्तिकारी होने में भी कहीं-न-कहीं इस भूख की भूमिका है। जैसा कि नेरुदा के स्पानी मित्रा कवि गार्सिया लोर्का ने कहा था, नेरुदा की कविता रौशनाई की अपेक्षा ख़ून के ज़्यादा नज़दीक है और वह बीसवीं शताब्दी के क्रान्तिकारी विचार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
वस्तुतः नेरुदा के लिए कविता स्वयं विद्रोह है क्योंकि विद्रोह कविता की प्रकृति है। इसलिए सच्चा कवि विद्रोह किए बिना रह नहीं सकता-विद्रोह का क्षेत्र कुछ भी हो सकता है। इसलिए उनके प्रिय नाटक भी वही थे जिन्होंने जीवन के किसी-न-किसी क्षेत्र में विद्रोह किया। ‘यादें’ पुस्तक में नेरुदा ने इस बात का उल्लेख किया है कि महान गुरिल्ला नेता चे ग्वेरा ने अपनी डायरी में सिर्फ़ एक कवि का उद्धरण दिया है और वह मैं हूँ।
फिलहाल उसी विद्रोह की चर्चा प्रासंगिता है जो नेरुदा ने कविता का दुनिया में किया और कहना होगा कि इसकी शुरुआत कविता की भाषा से हुई। इस भाषाई विद्रोह के कुछ सूत्र नेरुदा की पुस्तक ‘यादें’ में दर्ज हैं।
पहली समस्या तो यही थी-स्पेनवासियों की ‘स्पानी’ भाषा से दक्षिणी अमरीकियों को अपनी ‘स्पानी’ का विच्छेद एक तरह से यह भाषा की विचारधारा का मामला है और इस बारे में नेरुदा साफ़ कहते हैं कि गोंगोर का बर्फ़ जमा सौन्दर्य हमारे अक्षांशों के लिए नहीं; क्योंकि हमारा दक्षिण अमरीकी धरातल धूल-धूसर चट्टानों, खून सनी मिट्टी और चूर-चूर लावा बना रहा है।
सवाल इस क्षेत्रीय भाषा को बरतने का था-भाषा का ऐसा इस्तेमाल जैसे हम शरीर पर पहनने वाले कपड़ों का करते है-ऐसे कपड़ों का जो पसीनों से तर हैं, जिस पर खून और पसीने के धब्बे हैं, और टँकी हुई थिगलियाँ हैं। इसी से किसी लेखक की दिलेरी का पता चलता है और इसे ही ‘शैली’ कहते हैं।
इसके अलावा कवि नेरुदा अपने खास अन्दाज़ में भाषा के साथ ख़ानगी सलूक का भी बयान करते हैं। जिस भाषा के साथ जिंदगी गुज़ारनी है उसके साथ अंतरंगता कायम करने के लिए उसके साथ छेड़छाड़ और नोंक-झोंक किए बिना कैसे रहा जा सकता है ! नेरुदा ने अपनी कविताओं में दक्षिण अमेरिकी आम जनता की इसी ऊबड़-खाबड़ स्पानी भाषा को खुलकर बरतने का साहस किया है। लेकिन इस पर ठीक-ठीक राय देने का अधिकार उन्हें ही है जो भाषा के मर्मज्ञ हैं।
फिर भी यह निश्चित है कि एक सच्चे कवि के नाते भाषा नेरुदा की पहली चिन्ता है क्योंकि भाषा ही कवि का एकमात्र औज़ार है। इसलिए यदि एक रेल मिस्त्री के उस बेटे को अपने औज़ार से इतना लगाव था तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। इसी दृष्टि से नेरुदा ने कविता को एक ‘पेशा’ कहा था-न कि धंधा या व्यवसाय के बाजारू अर्थ में !
कविता में नेरुदा का विद्रोह स्वयं नेरुदावाद के विरुद्ध था। पहले एक छवि जतन से बनाते थे, फिर उसे तोड़कर दूसरी छवि बना लेते थे। 1920 से चलकर जीवन की अंतिम घड़ियों तक लगभग पचास वर्षों के सक्रिय सृजन कर्म में यही प्रकिया चलती रही। नेरुदा की इस लम्बी काव्य-यात्रा में कम से कम चार मंजिलें तो स्पष्ट रूप से लक्षित की ही गईं हैं। इनमें से प्रत्येक का सोदाहरण विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है। फिर भी मोटे तौर से इतना तो कहा ही जा सकता है कि नेरुदा ने प्रगाड़ प्रेम के अनेक मर्मस्पर्शी गीत लिखे हैं- हताश प्रेम में आकंठ तृप्ति के भी। कामोद्दीपक ऐन्द्रियता और मांसलता के चित्रों में तो नेरुदा अकुंठ और अपराजेय हैं। उनके काव्य संसार का एक अच्छा-खासा हिस्सा मानव शरीर की सुन्दरता का महोत्सव है।
इसी प्रकार उन्मुक्त प्रकृति में भी वे प्रवेश करते हैं तो उनकी दृष्टि उन पदार्थों पर जाती है जो सदियों से अनदेखे और अनलिखे रह गए हैं –चाहे वे पेड़-पौधे हों या छोटे-छोटे जीव-जन्तु ! वे प्रकृति में भी जड़ों तक साहस करते हैं और इस प्रकिया में ऐसे अप्रत्याशित और अपूर्व चित्र उभरते हैं जैसे वह पहली बार देखे गये हों। इस दृष्टि से नेरुदा की कविता दुर्लभ वनस्पतियों और वन्य प्राणियों तथा उनके अवशेषों का अद्धितीय संग्रहालय जैसा है। इस प्रकार कविता में चीले के जंगलों और समुद्र के अनूठे शब्दचित्रों को स्थान दिलाकर नेरुदा ने अपनी जन्मभूमि का ऋण अदा कर दिया।
इसके साथ ही नेरुदा ने वर्णान्ध लोगों की आँखों में अँगुली डालकर यह भी दिखा दिया कि क्रान्ति का केवल एक ही रंग नहीं होता। सम्पूर्ण क्रान्ति में अनेक रंग होते हैं और वह भी जीवन की तरह ही बहुरंगी होती है, लेकिन ‘बहुरूपिया’ नहीं !
नेरुदा के व्यक्तित्व का एक और पहलू है जिसकी ओर लोगों का ध्यान कम ही गया है। वे आत्मचेतस् कवि के साथ-साथ काव्य के मर्मी समीक्षक और सिद्धान्तकार भी थे। अपनी पुस्तक ‘यादें’ के कविता के सन्दर्भ में यथार्थ पर संक्षिप्त किन्तु सारगर्भ टिप्पणियाँ की हैं।
प्रसंगवश यहाँ केवल एक टिप्पणी का उल्लेख पर्याप्त है, ‘‘जहाँ तक यथार्थवाद का प्रश्न है। कविता में यथार्थवाद से मुझे नफरत है। कविता के लिए न तो अतियथार्थवादी होना जरूरी है न अर्धयथार्थवादी। वैसे, वह चाहें तो प्रतियथार्थवादी (अर्थात् यथार्थवाद-विरोधी) हो सकती है। वह यथार्थवाद-विरोधी है तो अच्छी तरह सोच-समझकर या बिना सोचे-समझे भी, फिर भी वह अन्ततः कविता है।’’
सरसरी तौर से देखने पर नेरुदा का यह वक्तव्य कबीर की उलटबाँसी जैसा लग सकता है; क्योंकि इसी प्रसंग से पहले नेरुदा ने यह भी कहा है वह भी मुरदा है।’’
कहना न होगा कि नेरुदा का यह वक्तव्य भी विरोधाभासी है। कवि के अभिप्रेत आशय का पता लगाने के लिए यह याद करना जरूरी है कि अपनी काव्ययात्रा के प्रथम चरण में ही नेरुदा ने कुछ ऐसी कविताएँ लिखी थीं जिन्हें आगे चलकर कुछ लोगों ने ‘अतियथार्थवादी’ बताकर प्रशंसा की। मज़ा यह कि तब तक फ्रांसीसी साहित्य अतियथार्थवाद का उदय भी नहीं हुआ था।
इसी के साथ ‘माच्चु के शिखर’ शीर्षक प्रसिद्ध कविता को भी लें जो यथार्थवादी भी मानी जाती है और क्रान्तिकारी भी। लेकिन क्या उसमें केवल यथार्थवाद ही है ?
इसलिए नेरुदा ने उक्त वक्तव्य को उनके अपने कवि-कर्म के समग्र सन्दर्भ में रखकर देखें तो कविता के संदर्भ में तथाकथित यथार्थवाद की सार्थकता स्पष्ट हो जाएगी। वैसे, अब तो कथा साहित्य में भी यथार्थवाद की सीमाएँ सामने आ गयी हैं।
कहना न होगा कि नेरुदा ने समय से यथार्थवाद से जुड़े विभ्रम का निवारण कर दिया। नेरुदा के कनिष्ठ मित्र गार्सिया मार्खेज़ ने यही कार्य आगे चलकर सम्पन्न किया और इस तरह एक एकांगी तथा अतिवादी साहित्य विचारधारा का निराकरण हो गया। यह भी कुछ कम क्रान्तिकारी उपलब्धि नहीं है।
फिलहाल इतने से ही संतोष करना पड़ेगा। आज जो भी बन पड़ा, वह भी एक संयोग ही है। न अरुण महेश्वरी की यह पुस्तक ‘पाब्लो नेरुदाः एक कैदी की खुली दुनिया’ तैयार होती न वे मुझे इसके साथ दो शब्द जोड़ने के लिए तैयार करते। पाब्लो नेरुदा के जीवन और कृतित्व पर हिन्दी में यह पहली मुकम्मल पुस्तक है-यथातथ्य, प्रामाणिक और विवेकपूर्ण। नेरुदा की जन्मशती के अवसर पर हिन्दी की ओर से यह उपयुक्त उपहार है।
अंत में इन थोड़े से शब्दों के साथ प्रिय साथी अरुण माहेश्वरी को हार्दिक धन्यवाद और कामरेड पाब्लो नेरुदा को लाल सलाम।
नई दिल्ली
27 नवम्बर, 2005
-नामवर सिंह
गीला बचपन
पाब्लो नेरुदा जिनका मूल नाम था नेफ्ताली रिकार्दो रेइस बासोल्ता, का जन्म
मध्य चीले के एक छोटे-से शहर पराल में 12 जुलाई 1904 के दिन हुआ
था।
13 भाई-बहनों वाले उनके पिता डान जोसे देल कारमेन रेइस अपने पिता के फार्म
को छो़ड़ कर अपनी जवानी के दिनों में ही पहले तालकाहुनाओ के एक बाँध पर
मजदूरी करने लगे थे। लेकिन नौकरी उन्हें रास आई रेलवे की। दक्षिणी चीले के
दूरवर्ती सीमान्त शहर तेमुको में वे रेलवे के रनिंग स्टाफ बन गए। वे
गिट्टी की ट्रेन के कन्डक्टर थे जिसका नेरुदा ने अपने
‘ममायर्स’ में इस प्रकार का जिक्र किया हैः
‘‘गिट्टी की ट्रेन क्या होती है, इसे कम लोग ही जानते
हैं।
भयंकर आँधियों वाले दक्षिण के उस क्षेत्र में यदि रेल की पटरियों के बीच
गिट्टियाँ न डाली जाएं तो बारिस कब पटरियों को बहा ले जाएगी। गिट्टी को
पत्थर की खदानों से तसलों में निकाल कर ट्रेन के लोगों को फौलाद से बना
होना होता था।’’ नेरुदा के पिता ऐसे ही एक रेल मजदूर
थे।
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