धर्म एवं दर्शन >> सफलता सोपान सफलता सोपानप्रबोध कुमार मजुमदार
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स्वामी रामतीर्थ के भाषणों के संकलन का वर्णन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भौतिक उन्नति के चरमोत्कर्ष से प्रलुब्ध किन्तु सच्चे सुख और शान्ति की
क्षुधा से त्रस्त, आज के समस्त विश्व, की आँखें भारतीय अध्यात्म एवं
वेदान्त-दर्शन के व्यावहारिक स्वरूप की ओर आशा के साथ निहार रही हैं।
प्रस्तुत ‘‘रामतीर्थ वचनामृत’’ के अन्तर्गत प्रकाशित साहित्य का उद्देश्य, मनुष्य के नित्यप्रति के जीवन में वेदांत के सूत्रों को ढालने के सम्बन्ध में मनीषियों द्वारा प्रदत्त अमृत-वचनों को संग्रहित करना और विश्व की नयी समस्याओं का समाधान प्रदान करने के लिए, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि तैयार करना है।
यत्किञ्चित् सफलता यदि हमें इस अभीष्ट में प्राप्त हुई, तो निस्संदेह वह हमें उद्देश्य में आगे बढ़ने को उत्साहित करती रहेगी।
प्रस्तुत ‘‘रामतीर्थ वचनामृत’’ के अन्तर्गत प्रकाशित साहित्य का उद्देश्य, मनुष्य के नित्यप्रति के जीवन में वेदांत के सूत्रों को ढालने के सम्बन्ध में मनीषियों द्वारा प्रदत्त अमृत-वचनों को संग्रहित करना और विश्व की नयी समस्याओं का समाधान प्रदान करने के लिए, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि तैयार करना है।
यत्किञ्चित् सफलता यदि हमें इस अभीष्ट में प्राप्त हुई, तो निस्संदेह वह हमें उद्देश्य में आगे बढ़ने को उत्साहित करती रहेगी।
-प्रकाशक
सफलता-सोपान
सफलता का रहस्य
(7 अक्टूबर, 1902 को हाई-कमर्शियल-कालेज, टोकियो, जापान में दिया हुआ
व्याख्यान)
विद्यार्थियों तथा शिक्षकों के रूप में, मेरे आत्मस्वरूप !
क्या यह अजीब सा नहीं लगता कि भारतवर्ष से एक अपरिचित व्यक्ति आकर उस विषय परक व्याख्यान दे, जिसे भारतवर्ष की अपेक्षा जापान ने स्पष्टतया कहीं अधिक बुद्धिमानी के साथ प्रयोग में लिया हो ! भले ऐसा हो, किन्तु राम यहाँ पर एकाधिक कारणों से शिक्षक के रूप में खड़ा है।
किसी विचार को निपुणता के साथ क्रियात्मक रूप देना एक बात और उसके सैद्धान्तिक अर्थ को समझना दूसरी बात है। हो सकता है कि आज एक राष्ट्र किन्हीं सामान्य सिद्धान्तों को कार्यान्वित करते हुए सम्पन्न और वैभवशाली बना रहा हो, किन्तु यदि उसके वे सिद्धान्त किसी दोषरहित ज्ञानपद्धति के स्पष्ट तथा पुष्ट आधार पर टिके नहीं हैं तो अध:पतन का खतरा सर्वथा विद्यमान है। एक श्रमिक सफलता के साथ किसी-रसायन-संबंधी कार्य को सम्पादित कर लेता है, परन्तु इससे ही वह किसी रासायनिक या रसायनशास्त्री नहीं हो जाता; क्योंकि उसकी क्रिशाशीलता के साथ उसके सैद्धान्तिक ज्ञान का सहयोग नहीं है। एक फायरमैन एक स्टीम-इंजन को सफलता के साथ परिचालित कराता है, परन्तु वह एक इंजीनियर या अभियन्ता नहीं है; क्योंकि उसका कार्य केवल यांत्रिक होता है।
हम लोगों ने एक डॉक्टर के बारे में पढ़ा है, जो घावों को कपड़े की पट्टियों से हफ़्ते-भर के लिए बाँध देता था और रोज़ एक तलवार से उस पट्टी को छूकर घाव को आराम पहुँचा दिया करता था। घाव पट्टियों में बँधे होने के कारण बाहर की हवा के स्पर्श से बचे रहते और इसलिए भर जाते थे। किन्तु वह खंग के स्पर्श पर ही इस आश्चर्यजनक आरोग्यकारी गुण को आरोपित करता था। उसके रोगियों का भी ऐसा ही ख़्याल था। इस अन्धविश्वास की उपपत्ति के कारण उन सभी मामलों में असफलताएँ मिलीं जिनमें केवल पट्टी बाँधना ही पर्याप्त न था बल्कि उसके अतिरिक्त अन्य प्रकार के इलाज की भी आवश्यकता थी। अत: यह पूर्णतया आवश्यक है कि सही सिद्धान्त के साथ सही क्रियाशीलता का सहयोग हो, राम जापान को अपना ही देश मानता है और उसके निवासियों को अपना देशवासी। युक्ति के आधार पर राम यह प्रामाणित कर सकता है कि आरम्भ में आपके पूर्वपुरुष भारतवर्ष से चलकर यहाँ आये थे।
आपके पूर्वपुरुष राम के पूर्वज हैं। राम यहाँ पर एक अजनबी के रूप में नहीं बल्कि एक भाई की हैसियत से आपसे हाथ मिलाना चाहता है। राम के पास एक दूसरा कारण है जो उसे इस विशेषाधिकार का अधिकारी बना देता है। राम अपने जन्म से ही अपने मिजाज, व्यवहार, भावनाओं और सहानुभूति में एक जापानी व्यक्ति के ही समान रहा है। इन प्रस्तावना के शब्दों के उपरान्त आइए हम अपने विषय की व्याख्या आरम्भ करें।
‘सफलता का रहस्य’ एक खुला भेद है। प्रत्येक व्यक्ति ही इस विषय पर कुछ न कुछ कह सकता है और शायद अपने इस विषय के सामान्य सिद्धान्तों को प्रतिपादित करते हुए भी अक्सर सुना होगा; परन्तु यह विषय, अपनी सजीव महत्ता के कारण, किसी भी मात्रा में उस प्रचेष्टा को युक्तिसंगत मानता है, जो उसे और भी अधिक (जन साधारण के लिए) सुबोध बना सके।
क्या यह अजीब सा नहीं लगता कि भारतवर्ष से एक अपरिचित व्यक्ति आकर उस विषय परक व्याख्यान दे, जिसे भारतवर्ष की अपेक्षा जापान ने स्पष्टतया कहीं अधिक बुद्धिमानी के साथ प्रयोग में लिया हो ! भले ऐसा हो, किन्तु राम यहाँ पर एकाधिक कारणों से शिक्षक के रूप में खड़ा है।
किसी विचार को निपुणता के साथ क्रियात्मक रूप देना एक बात और उसके सैद्धान्तिक अर्थ को समझना दूसरी बात है। हो सकता है कि आज एक राष्ट्र किन्हीं सामान्य सिद्धान्तों को कार्यान्वित करते हुए सम्पन्न और वैभवशाली बना रहा हो, किन्तु यदि उसके वे सिद्धान्त किसी दोषरहित ज्ञानपद्धति के स्पष्ट तथा पुष्ट आधार पर टिके नहीं हैं तो अध:पतन का खतरा सर्वथा विद्यमान है। एक श्रमिक सफलता के साथ किसी-रसायन-संबंधी कार्य को सम्पादित कर लेता है, परन्तु इससे ही वह किसी रासायनिक या रसायनशास्त्री नहीं हो जाता; क्योंकि उसकी क्रिशाशीलता के साथ उसके सैद्धान्तिक ज्ञान का सहयोग नहीं है। एक फायरमैन एक स्टीम-इंजन को सफलता के साथ परिचालित कराता है, परन्तु वह एक इंजीनियर या अभियन्ता नहीं है; क्योंकि उसका कार्य केवल यांत्रिक होता है।
हम लोगों ने एक डॉक्टर के बारे में पढ़ा है, जो घावों को कपड़े की पट्टियों से हफ़्ते-भर के लिए बाँध देता था और रोज़ एक तलवार से उस पट्टी को छूकर घाव को आराम पहुँचा दिया करता था। घाव पट्टियों में बँधे होने के कारण बाहर की हवा के स्पर्श से बचे रहते और इसलिए भर जाते थे। किन्तु वह खंग के स्पर्श पर ही इस आश्चर्यजनक आरोग्यकारी गुण को आरोपित करता था। उसके रोगियों का भी ऐसा ही ख़्याल था। इस अन्धविश्वास की उपपत्ति के कारण उन सभी मामलों में असफलताएँ मिलीं जिनमें केवल पट्टी बाँधना ही पर्याप्त न था बल्कि उसके अतिरिक्त अन्य प्रकार के इलाज की भी आवश्यकता थी। अत: यह पूर्णतया आवश्यक है कि सही सिद्धान्त के साथ सही क्रियाशीलता का सहयोग हो, राम जापान को अपना ही देश मानता है और उसके निवासियों को अपना देशवासी। युक्ति के आधार पर राम यह प्रामाणित कर सकता है कि आरम्भ में आपके पूर्वपुरुष भारतवर्ष से चलकर यहाँ आये थे।
आपके पूर्वपुरुष राम के पूर्वज हैं। राम यहाँ पर एक अजनबी के रूप में नहीं बल्कि एक भाई की हैसियत से आपसे हाथ मिलाना चाहता है। राम के पास एक दूसरा कारण है जो उसे इस विशेषाधिकार का अधिकारी बना देता है। राम अपने जन्म से ही अपने मिजाज, व्यवहार, भावनाओं और सहानुभूति में एक जापानी व्यक्ति के ही समान रहा है। इन प्रस्तावना के शब्दों के उपरान्त आइए हम अपने विषय की व्याख्या आरम्भ करें।
‘सफलता का रहस्य’ एक खुला भेद है। प्रत्येक व्यक्ति ही इस विषय पर कुछ न कुछ कह सकता है और शायद अपने इस विषय के सामान्य सिद्धान्तों को प्रतिपादित करते हुए भी अक्सर सुना होगा; परन्तु यह विषय, अपनी सजीव महत्ता के कारण, किसी भी मात्रा में उस प्रचेष्टा को युक्तिसंगत मानता है, जो उसे और भी अधिक (जन साधारण के लिए) सुबोध बना सके।
सफलता के मूल सिद्धान्त
1. परिश्रम
आरम्भ में हम अपने चारों ओर की प्रकृति से यह प्रश्न करें। बहती नदियों के
रूप में पुस्तकें और प्रस्तरों में निहित धर्मोपदेश अपने अभ्रान्त उच्चारण
से क्रमबद्ध निरन्तर श्रम करते रहने की शिक्षा देते हैं। प्रकाश हमें
देखने की शक्ति देता है। प्रकाश समस्त प्राणियों को जीवन का एक स्रोत्र
प्राप्त करता है। आइए, देखा जाये कि स्वयं प्रकाश इस प्रश्न पर
क्या
प्रकाश डालता है। उदाहरण के लिए राम एक सामान्य प्रकाश लेगा-एक दीपक। एक
दीपक की आभा और तेज का अन्तर्निहित रहस्य यह है कि वह तेल या बत्ती की
रक्षा नहीं करता-उसको बचाकर नहीं रखता। तेल बत्ती या क्षुद्र अहं निरन्तर
अपना स्वरूप खोते हैं और प्रकाश एवं शोभा उसका स्वाभाविक परिणाम होता है।
दीपक कहता है, अपने को बचाये रखने के यत्न में तत्क्षण बुझ जाओगे। यदि आप अपने शरीर को सुखी और सन्तुष्ट बनाना चाहते हैं और अपना समय इन्द्रियसुख और विलास में नष्ट करते हैं, तो आपके लिए कोई आशा नहीं है। अन्य शब्दों में, निष्क्रियता आपके लिए मृत्यु ले आयेगी और क्रियाशीलता, केवल क्रियाशीलता ही जीवन है। एक स्थिर जल के तालाब को और बहती हुई नदी को देखिए। कलकलाती नदी का स्फटिक-स्वच्छ जल सदा ताजा, साफ, पीनेवाला और आकर्षक होता है लेकिन दूसरी ओर देखिए के स्थित तालाब का पानी कितना घृणित, दुर्गन्धमय, गन्दा, पंकिल और अशुद्ध होता है। यदि आप सफलता पाना चाहते हैं तो नदी के निरन्तर प्रवाह के समान क्रियाशीलता का पथ अपनाइए। उस व्यक्ति के लिए कोई आशा नहीं जो अपनी बत्ती और तेल की रक्षा करने के लिए उसका अपव्यय करता है। नदी की नीति का अनुसरण कीजिए-सदा आगे बढ़ते हुए, सदा अपने को वातावरण के अनुकूल बनाते हुए और सदा काम करते हुए। एकमात्र कार्य; सदा कार्य में लगा रहना ही सफलता का प्रथम सिद्धान्त है।
यही वह क्रियाशीलता है जो मनुष्य को ‘आत्म अतिक्रमण कराती हुई प्रतिदिन अनेक सद्गुणों से पूर्णतर’ बनाती रहती है।
यदि आप इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य करें तो आप देखेंगे कि ‘छोटे होने के समान बड़ा होना भी कितना सरल है।’
दीपक कहता है, अपने को बचाये रखने के यत्न में तत्क्षण बुझ जाओगे। यदि आप अपने शरीर को सुखी और सन्तुष्ट बनाना चाहते हैं और अपना समय इन्द्रियसुख और विलास में नष्ट करते हैं, तो आपके लिए कोई आशा नहीं है। अन्य शब्दों में, निष्क्रियता आपके लिए मृत्यु ले आयेगी और क्रियाशीलता, केवल क्रियाशीलता ही जीवन है। एक स्थिर जल के तालाब को और बहती हुई नदी को देखिए। कलकलाती नदी का स्फटिक-स्वच्छ जल सदा ताजा, साफ, पीनेवाला और आकर्षक होता है लेकिन दूसरी ओर देखिए के स्थित तालाब का पानी कितना घृणित, दुर्गन्धमय, गन्दा, पंकिल और अशुद्ध होता है। यदि आप सफलता पाना चाहते हैं तो नदी के निरन्तर प्रवाह के समान क्रियाशीलता का पथ अपनाइए। उस व्यक्ति के लिए कोई आशा नहीं जो अपनी बत्ती और तेल की रक्षा करने के लिए उसका अपव्यय करता है। नदी की नीति का अनुसरण कीजिए-सदा आगे बढ़ते हुए, सदा अपने को वातावरण के अनुकूल बनाते हुए और सदा काम करते हुए। एकमात्र कार्य; सदा कार्य में लगा रहना ही सफलता का प्रथम सिद्धान्त है।
यही वह क्रियाशीलता है जो मनुष्य को ‘आत्म अतिक्रमण कराती हुई प्रतिदिन अनेक सद्गुणों से पूर्णतर’ बनाती रहती है।
यदि आप इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य करें तो आप देखेंगे कि ‘छोटे होने के समान बड़ा होना भी कितना सरल है।’
2. आत्म-बलिदान
प्रत्येक व्यक्ति ही श्वेत वस्तुओं से प्रेम करता है। आइए, हम यह परीक्षा
करें कि उनकी इस सर्वलोकप्रियता का क्या कारण है। श्वेत वस्तुओं की
आकर्षित करने की इस सफलता का कारण हम समझ लें। सर्वत्र काली वस्तु को लोग
घृणा की दृष्टि से देखते हैं और उसका वर्जन या परिहार करते हैं। आइए, इसका
क्या कारण है, वह भी देख लें। भौतिक विज्ञान से हमें रंगों के गोचर
स्वरूपों के रहस्य का बोध होता है। जो लाल रंग हमें दिखाई देता है, वह
आन्तरिक रूप में लाल रंग नहीं है। उसी प्रकार से हरा दिखाई देनेवाला रंग
वास्तव में हरा नहीं होता। काला भी काला नहीं है और सबकुछ वैसा ही नहीं
होता जैसा कि वह हमें दिखाई देता है।
लाल गुलाब के ऐसे मनमोहक रंग का कारण यह है कि वह इस दिखाई देने वाले रंग को अपने अन्तर में सँजाकर न रखते हुए उसे बहिर्मुखी बनाकर प्रतिबिम्बित करता है अथवा यह कहिये कि इस रंग को वह अपने अन्दर से बाहर फेंक देता है। हरा पत्ता प्रकाश में से प्रत्येक अन्य रंगों को सोख लेता है और जिस रंग को वह आत्मसात् नहीं करता और फेंक देता है उसी ताजे या हरे रंग में वह लोगों को दिखायी पड़ता है। काली वस्तुओं में सभी रंग सोख लेने का गुण है और वे कोई भी प्रकाश प्रतिफलित नहीं करती हैं। उनमें त्याग, बलिदान या दान की कोई भावना नहीं होती ! वे किसी रंग की किरण का त्याग नहीं कर सकतीं। वे जो कुछ प्राप्त करती हैं उसमें से कण भी त्याग नहीं सकतीं। प्रकृति आपको बताती है कि वह व्यक्ति जो अपनी प्राप्त वस्तुओं को पड़ोसियों को देने से इनकार करता है, ठीक कोयले के समान काला है। असलियत में दान ही लाभ है। प्राप्त करने का मार्ग है प्रदान करना। श्वेत प्रतीत होने का रहस्य सम्पूर्ण बलिदान में है। अपने पड़ोसियों से जो कुछ प्राप्त होता हो उसे तत्क्षण लौटा देना है। श्वेत वस्तुओं का यह गुण अपना लीजिए और आप अवश्य सफल होंगे।
लाल गुलाब के ऐसे मनमोहक रंग का कारण यह है कि वह इस दिखाई देने वाले रंग को अपने अन्तर में सँजाकर न रखते हुए उसे बहिर्मुखी बनाकर प्रतिबिम्बित करता है अथवा यह कहिये कि इस रंग को वह अपने अन्दर से बाहर फेंक देता है। हरा पत्ता प्रकाश में से प्रत्येक अन्य रंगों को सोख लेता है और जिस रंग को वह आत्मसात् नहीं करता और फेंक देता है उसी ताजे या हरे रंग में वह लोगों को दिखायी पड़ता है। काली वस्तुओं में सभी रंग सोख लेने का गुण है और वे कोई भी प्रकाश प्रतिफलित नहीं करती हैं। उनमें त्याग, बलिदान या दान की कोई भावना नहीं होती ! वे किसी रंग की किरण का त्याग नहीं कर सकतीं। वे जो कुछ प्राप्त करती हैं उसमें से कण भी त्याग नहीं सकतीं। प्रकृति आपको बताती है कि वह व्यक्ति जो अपनी प्राप्त वस्तुओं को पड़ोसियों को देने से इनकार करता है, ठीक कोयले के समान काला है। असलियत में दान ही लाभ है। प्राप्त करने का मार्ग है प्रदान करना। श्वेत प्रतीत होने का रहस्य सम्पूर्ण बलिदान में है। अपने पड़ोसियों से जो कुछ प्राप्त होता हो उसे तत्क्षण लौटा देना है। श्वेत वस्तुओं का यह गुण अपना लीजिए और आप अवश्य सफल होंगे।
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लोगों की राय
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