विभिन्न रामायण एवं गीता >> कौशिक रामायण कौशिक रामायणएस. रामचन्द्र
|
14 पाठकों को प्रिय 347 पाठक हैं |
कर्नाटक के विभिन्न जिलों में तो यह ग्रन्थ लोक-प्रिय है, पर आवश्यकता थी कि हिन्दी-भाषी प्रान्तों के निवासी भी इसमें राम-रसामृत का पान करें
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
तुलसी चरित रामचरित मानस में सात काण्ड हैं, अधिकांश रामायणों में छह
काण्ड ही मिलते हैं और छठे युद्ध काण्ड के साथ ग्रन्थ समाप्त हो जाता है,
यही चलन है। कौशिक रामायण का भी, जिसमें युद्धकाण्ड में ऐरावण द्वारा
राम-लक्ष्मण हरण एवं वीर हनुमान द्वारा इस इष्टदेव-युग्म के
उद्धार की कथा का भी समावेश किया गया है।
कर्नाटक के विभिन्न जिलों में तो यह ग्रन्थ लोक-प्रिय है, पर आवश्यकता थी कि हिन्दी-भाषी प्रान्तों के निवासी भी इसमें राम-रसामृत का पान करें, यदार्थ भुवनवाणी-ट्रस्ट लखनऊ द्वारा इसे प्रो. एस. रामचन्द्र की समर्थ लेखनी द्वारा अनूदित रूप में प्रस्तुत करते हुए हम प्रफुल्लित पारितोष पा रहे हैं और आशा करते हैं कि यह रामायण कविपुंगव तुलसी और पंडित राधेश्याम कथा-वाचक की लिखी रामायणों की भाँति प्रचलित हो सकेगी और इसका आनन्दित पारायण करके पाठक-गण अध्यात्म-पन्थ के सुदृढ़ पंथी होकर हमारे प्रयास को सफल करेंगे।
कर्नाटक के विभिन्न जिलों में तो यह ग्रन्थ लोक-प्रिय है, पर आवश्यकता थी कि हिन्दी-भाषी प्रान्तों के निवासी भी इसमें राम-रसामृत का पान करें, यदार्थ भुवनवाणी-ट्रस्ट लखनऊ द्वारा इसे प्रो. एस. रामचन्द्र की समर्थ लेखनी द्वारा अनूदित रूप में प्रस्तुत करते हुए हम प्रफुल्लित पारितोष पा रहे हैं और आशा करते हैं कि यह रामायण कविपुंगव तुलसी और पंडित राधेश्याम कथा-वाचक की लिखी रामायणों की भाँति प्रचलित हो सकेगी और इसका आनन्दित पारायण करके पाठक-गण अध्यात्म-पन्थ के सुदृढ़ पंथी होकर हमारे प्रयास को सफल करेंगे।
प्रकाशकीय
भारतीय वाङ्मय में राम-चरित्र का अपना विशेष महत्त्व है, क्योंकि भगवान
राम के लोकरञ्जक और लोकरक्षक उभयरूपों का दिग्दर्शन उसमें कविजन करा सके
हैं। राम-चरित-धारा के आदि प्रणेता तो महर्षि वाल्मीकि हुए। उनकी 24,000
श्लोकों की रामायण जो ‘वाल्मीकीय रामायण’ नाम से
भगवान राम के धराधाम पर अवतरित होने के पूर्व ही दिव्यदृष्टि से लिख दी
गयी थी, वही अवलम्ब बनी। परवर्ती संस्कृत, हिन्दी, बँगला, कन्नड आदि
विभिन्न भारतीय भाषाओं के भक्त कवियों का संस्कृत कवियों में कालिदास
भवभूति दिङ्गनाद आदि ने राम-चरित-रसापगा में अवगाहन कर अपने को पवित्र
करते हुए भारतीय संस्कृति को उजागर किया।
हिन्दी कवियों में सूर, तुलसी, केशव, मैथलीशरण गुप्त और राजेश सदृश महाकवियों ने ‘रामचन्द्रिका, ‘साकेत’ और ‘सत्यनिष्ठराम’ सदृश महिमान्वित कृतियां प्रस्तुत करके इस धारा को प्रवहमान रखा। ‘राम-चन्द्रिका’ और ‘साकेत’ में भगवान राम के महाप्रयाण की कथा नहीं अंकित है। इस, अछूते विषय को ‘राजेश’ जी ने अपना वर्ण्य बना कर हिन्दी काव्य में नयी कथा सी जोड़ दी। यदर्थ उन्होंने स्वतः आविष्कृत षद्पद वर्णवृत्त-शैली को अंगीकृत किया, जिसके छह चरण अ ब स स ब अ क्रम से आद्यन्त आये हैं।
यथा-अयोध्या है नगरी धन्यातिधन्या। जन्मे जहाँ थे राघव जी हमारे।।-सत्यनिष्ठ राम यह तो निर्विवाद तथ्य है कि महर्षि और उनकी रामायण अद्यावधि रामचरित परक महात्तम ग्रन्थ है, परन्तु इतर कवियों ने भी अपने को कृतार्थ करने और जनता के सम्मुख मर्यादा पुरुषोत्तम का चरित रख कर उसे युगोचित दिशा प्रदान करने का यथाशक्ति प्रयास किया।
निज पौरुष अनुसार जिमि मसल उड़ाहि अकाश।
भारतीय वाङ्गमय में सर्वाधिक उत्कृष्ट साहित्य बँगला, तमिळ, कन्नड और हिन्दी में राम-चरित्र पर लिखा गया है। कन्नड के क्षेत्र में महाकवि बत्तलेश्वर की लिखी हुई रामायण, जिसे कौशिक रामायण भी कहा गया है। राम की पावन कथा का जो अंकन किया है, उसमें भाषा का सहजप्रवाह, भाव-भूति, उक्ति, वैचित्रय, और अर्थ-गौरव की मनोज्ञता पग-पग पर दर्शनीय है।
अर्थ-गौरव इस महती कृति की सर्वाधिक प्रमुख विशिष्टता है। संस्कृत में भारवि अपने अर्थ-गौरव के लिए प्रसिद्ध है तो कन्नड़ में पुण्यकाय बत्तलेश्वर जी ने भी अर्थ गौरव को उनकी भाँति अर्थातरन्यास अलंकार की झड़ी लगा दी है, एक-दो नहीं, जाने कितने स्थलों पर। वस्तुतः जैसे भूषण अपनी मालोपमा को लिये हुए समस्त हिन्दी-कलाकारों को पीछे छोड़ गये हैं, वैसे ही ‘कौशिक रामायण’ के रचनाकार की मालार्थान्तरन्यास के प्रयोग में समस्त प्राचीन-अर्वाचीन कवियों से आगे निकल गये हैं, यह असन्दिध है। कौशिक रामायण में पग-पग पर हमें भाव-विभोर करनेवाली पंक्तियाँ पढ़ने को मिलती हैं।
तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ में सात काण्ड हैं, अधिकांश रामायणों में छह काण्ड ही मिलते हैं और छठे युद्ध-काण्ड के साथ ग्रन्थ समाप्त हो जाता है, यही चलन है। ‘कौशिक रामायण’ का भी, जिसमें युद्ध-काण्ड में ऐरावण द्वारा राम-लक्ष्मणापहरण एवं वीर हनुमान द्वारा इस इष्टदेव-युग्म के उद्धार की कथा का भी समावेश किया गया है।
कर्नाटक के विभिन्न जिलों में तो यह ग्रन्थ लोकप्रिय है, पर आवश्यकता थी कि हिन्दी-भाषी प्रान्तों के निवासी भी इसके राम-रसामृत का पान करें, यदर्थ भुवनवाणी-ट्रस्ट लखनऊ द्वारा इसे प्रो एस. रामचन्द्र की समर्थ लेखनी द्वारा अनूदित रूप में प्रस्तुत करते हुए हम प्रफुल्ल परितोष पा रहे हैं और आशा करते हैं कि यह रामायण कविपुंगव तुलसी और पंडित राधेश्याम कथावाचक की लिखी रामायणों की भाँति प्रचलित हो सकेगी और इसका आनन्दित पारायण करके पाठक-गण अध्यात्म-पन्थ के सुदृढ़ पथी होकर हमारे प्रयास को सफल करेंगे।
रथयात्रा
जुलाई 14, 1999 ई.
हिन्दी कवियों में सूर, तुलसी, केशव, मैथलीशरण गुप्त और राजेश सदृश महाकवियों ने ‘रामचन्द्रिका, ‘साकेत’ और ‘सत्यनिष्ठराम’ सदृश महिमान्वित कृतियां प्रस्तुत करके इस धारा को प्रवहमान रखा। ‘राम-चन्द्रिका’ और ‘साकेत’ में भगवान राम के महाप्रयाण की कथा नहीं अंकित है। इस, अछूते विषय को ‘राजेश’ जी ने अपना वर्ण्य बना कर हिन्दी काव्य में नयी कथा सी जोड़ दी। यदर्थ उन्होंने स्वतः आविष्कृत षद्पद वर्णवृत्त-शैली को अंगीकृत किया, जिसके छह चरण अ ब स स ब अ क्रम से आद्यन्त आये हैं।
यथा-अयोध्या है नगरी धन्यातिधन्या। जन्मे जहाँ थे राघव जी हमारे।।-सत्यनिष्ठ राम यह तो निर्विवाद तथ्य है कि महर्षि और उनकी रामायण अद्यावधि रामचरित परक महात्तम ग्रन्थ है, परन्तु इतर कवियों ने भी अपने को कृतार्थ करने और जनता के सम्मुख मर्यादा पुरुषोत्तम का चरित रख कर उसे युगोचित दिशा प्रदान करने का यथाशक्ति प्रयास किया।
निज पौरुष अनुसार जिमि मसल उड़ाहि अकाश।
भारतीय वाङ्गमय में सर्वाधिक उत्कृष्ट साहित्य बँगला, तमिळ, कन्नड और हिन्दी में राम-चरित्र पर लिखा गया है। कन्नड के क्षेत्र में महाकवि बत्तलेश्वर की लिखी हुई रामायण, जिसे कौशिक रामायण भी कहा गया है। राम की पावन कथा का जो अंकन किया है, उसमें भाषा का सहजप्रवाह, भाव-भूति, उक्ति, वैचित्रय, और अर्थ-गौरव की मनोज्ञता पग-पग पर दर्शनीय है।
अर्थ-गौरव इस महती कृति की सर्वाधिक प्रमुख विशिष्टता है। संस्कृत में भारवि अपने अर्थ-गौरव के लिए प्रसिद्ध है तो कन्नड़ में पुण्यकाय बत्तलेश्वर जी ने भी अर्थ गौरव को उनकी भाँति अर्थातरन्यास अलंकार की झड़ी लगा दी है, एक-दो नहीं, जाने कितने स्थलों पर। वस्तुतः जैसे भूषण अपनी मालोपमा को लिये हुए समस्त हिन्दी-कलाकारों को पीछे छोड़ गये हैं, वैसे ही ‘कौशिक रामायण’ के रचनाकार की मालार्थान्तरन्यास के प्रयोग में समस्त प्राचीन-अर्वाचीन कवियों से आगे निकल गये हैं, यह असन्दिध है। कौशिक रामायण में पग-पग पर हमें भाव-विभोर करनेवाली पंक्तियाँ पढ़ने को मिलती हैं।
तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ में सात काण्ड हैं, अधिकांश रामायणों में छह काण्ड ही मिलते हैं और छठे युद्ध-काण्ड के साथ ग्रन्थ समाप्त हो जाता है, यही चलन है। ‘कौशिक रामायण’ का भी, जिसमें युद्ध-काण्ड में ऐरावण द्वारा राम-लक्ष्मणापहरण एवं वीर हनुमान द्वारा इस इष्टदेव-युग्म के उद्धार की कथा का भी समावेश किया गया है।
कर्नाटक के विभिन्न जिलों में तो यह ग्रन्थ लोकप्रिय है, पर आवश्यकता थी कि हिन्दी-भाषी प्रान्तों के निवासी भी इसके राम-रसामृत का पान करें, यदर्थ भुवनवाणी-ट्रस्ट लखनऊ द्वारा इसे प्रो एस. रामचन्द्र की समर्थ लेखनी द्वारा अनूदित रूप में प्रस्तुत करते हुए हम प्रफुल्ल परितोष पा रहे हैं और आशा करते हैं कि यह रामायण कविपुंगव तुलसी और पंडित राधेश्याम कथावाचक की लिखी रामायणों की भाँति प्रचलित हो सकेगी और इसका आनन्दित पारायण करके पाठक-गण अध्यात्म-पन्थ के सुदृढ़ पथी होकर हमारे प्रयास को सफल करेंगे।
रथयात्रा
जुलाई 14, 1999 ई.
विनय
कुमार अवस्थी
मुख्यन्यासी सभापति
भुवनवाणी ट्रस्ट,
मुख्यन्यासी सभापति
भुवनवाणी ट्रस्ट,
अनुवादक का वक्तत्य
कन्नड कौशिक रामायण ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता एवं कन्नड़ के ख्यातनामा
साहित्यकार डॉ. शिवराम कारंतजी द्वारा संपादित वृहत् काव्य है। यह दक्षिण
कन्नड़ जिले के पुत्तूर के ‘हर्ष प्रकटणालय’ से
प्रकाशित है।
यह एक प्राचीन कन्नड महाकाव्य है। इसके रचियता ‘बत्तलेश्वर’ 16 वीं सदी के आसपास के माने गये हैं। ‘बत्तलेश्वर’, कवि का असली नाम है या उपनाम इस पर भी मतभेद है। कन्नड़ साहित्य-सामग्री का आकार ग्रंथ है-‘कवि चरिते’-कवियों के चरित्र। उसमें बत्तलेश्वर के अलावा ‘निर्वाणनायक’, ‘निर्वाणलिंग’ नाम हैं, जो बत्तलेश्वर के पर्यायवाची बताये गये हैं। डॉ. कारंत का कहना है कि किसी भी उपलब्ध हस्तलिखित प्रति में ऐसा कोई नाम नहीं है। काव्य में, मैरावण युद्ध के प्रकरण में, दो एक बार बत्तलेश्लर पद प्रयुक्त है। रुंड भैरव के कथा-प्रसंग में भी उल्लेख है। वहाँ भी ‘निर्वाणनायक’ या ‘निर्वाणलिंग’ प्रयुक्त नहीं है। ‘बत्तलेश्वर’ ही अधिक प्रचलित है। यह रामायण कर्नाटक के उत्तर कन्नड, दक्षिण कन्नड और शिमोगा जिलों में अधिक लोकप्रिय है। कर्नाटक के उत्तर में और अन्यत्र ‘तोरवे रामायण’, ‘पंपरामायण’ चर्चित कृतियाँ हैं। भुवनवाणी ट्रस्ट से इन दोनों का सानुवाद लिप्यंतरण प्रकाशित है। पहले का लिप्यंतरण-अनुवाद मेरे परम आत्मीय स्व. एस. वि. भट्टजी ने और दूसरे श्री रसिक पुत्तिगे ने किया है।
‘कौशिक रामायण’ अब ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित हो रही है। महाभारत और भागवत की भाँति चौमासे में उत्तर कन्नड, दक्षिण कन्नड, और शिमोगा जिलों में कौशिक रामायण का कथावाचन होता था। धर्मप्राण श्रोता कथा सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते थे। मुद्रित प्रतियों का अभाव होने लगा तो कथा-वाचन-श्रवण की परंपरा लुप्तप्राय सी हुई। इस सदी के आरंभ में ताड़पत्रों पर की लिखावट पढ़नेवाले भी नहीं के बराबर थे। अतः कौशिक रामायण उपेक्षित रह गई। एक वयोवृद्ध कथावाचक महोदय से डॉ. कारंत को विदित हुआ कि इसमें ‘मैरावण युद्ध’ का प्रसंग है। यह जानकारी मिलते ही डॉ. कारंत का कुतूहल बढ़ा और वे हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्तकर इसके संपादन में लग गये।
इस महाकाव्य में कर्नाटक के पश्चिमी तटवर्ती प्रदेश में होन्नावर, सिरसि, कुमटा आदि स्थान हैं। यहाँ ‘हव्यक्’ नाम का एक जनसमुदाय बसा है। डॉ. कारंतजी को काव्य में हव्यक् कन्नड़ के प्रयोग देखने को मिले हैं। अतः उनका अनुमान है कि इसका कवि कोई हव्यक् कन्नडभाषी रहा होगा। डॉ. कारंतजी को महाकाव्य में कथ्य की अपेक्षा कथन-शैली में देसी का पुट आकर्षक लगा है। विद्वान मित्रों की सलाह एवं सहयोग से डॉ. कारंतजी ने इसका पाठांतर स्थिर किया और कन्नड रामायण-परंपरा में कृति का मूल्यांकन हो, इस उद्देश्य से सहृदय पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया।
कौशिक रामायण 44 संधियों (सर्गों) में विभाजित महाकाव्य है। क्रम से कथा का कहीं संक्षिप्त और कहीं विस्तृत वर्णन है युद्ध का वर्णन विस्तृत मिलता है। 39-40 इन पूरे दो सर्गों में ‘मैरावण युद्ध’ का वर्णन है। कई स्थानों पर पुनरुक्ति भी है। रामायण में पुनरुक्ति कोई दोष नहीं मानी गई है।
भुवन वाणी ट्रस्ट के मुख्य न्यासी श्री विनय कुमार जी अवस्थी ने प्रियवर डॉ. गजानन नरसिंह साठे की सलाह पर कौशिक रामायण का सानुवाद लिप्यंतरण-कार्य मुझे सौंपा। डॉ. गजानन नरसिंह साठे जी ‘रामायण के चलते-चलते विश्वकोष हैं। उन्हें मेरे पास सनेही डॉ. चन्दूलाल दुबेजी ने मेरा नाम सुझाया। जो काम आत्मीय बंधु प्रो. एस. वि. भट्ट को करना था, वही काम उनके निधन के बाद, मैंने यथामति यथाशक्ति किया है। इस अवसर पर मैं इन सबका आभार मानता हूँ।
मैं आचार्य पाठशाला, बेंगलूर के अवकाश-प्राप्त प्रो.टी. केशवभट्टा का आभारी हूँ जिन्होंने काव्य में गोचर कतिपय संदिग्ध छंदों का अर्थ स्पष्ट कराया और मेरा काम सरल बना दिया।
अंत में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि अनुवाद में कोई खूबी हो तो वह बत्तलेश्वर कवि की कृपा है और कोई कमी हो तो भूल को पकड़ न पाने की निजी असमर्थता है।
यह एक प्राचीन कन्नड महाकाव्य है। इसके रचियता ‘बत्तलेश्वर’ 16 वीं सदी के आसपास के माने गये हैं। ‘बत्तलेश्वर’, कवि का असली नाम है या उपनाम इस पर भी मतभेद है। कन्नड़ साहित्य-सामग्री का आकार ग्रंथ है-‘कवि चरिते’-कवियों के चरित्र। उसमें बत्तलेश्वर के अलावा ‘निर्वाणनायक’, ‘निर्वाणलिंग’ नाम हैं, जो बत्तलेश्वर के पर्यायवाची बताये गये हैं। डॉ. कारंत का कहना है कि किसी भी उपलब्ध हस्तलिखित प्रति में ऐसा कोई नाम नहीं है। काव्य में, मैरावण युद्ध के प्रकरण में, दो एक बार बत्तलेश्लर पद प्रयुक्त है। रुंड भैरव के कथा-प्रसंग में भी उल्लेख है। वहाँ भी ‘निर्वाणनायक’ या ‘निर्वाणलिंग’ प्रयुक्त नहीं है। ‘बत्तलेश्वर’ ही अधिक प्रचलित है। यह रामायण कर्नाटक के उत्तर कन्नड, दक्षिण कन्नड और शिमोगा जिलों में अधिक लोकप्रिय है। कर्नाटक के उत्तर में और अन्यत्र ‘तोरवे रामायण’, ‘पंपरामायण’ चर्चित कृतियाँ हैं। भुवनवाणी ट्रस्ट से इन दोनों का सानुवाद लिप्यंतरण प्रकाशित है। पहले का लिप्यंतरण-अनुवाद मेरे परम आत्मीय स्व. एस. वि. भट्टजी ने और दूसरे श्री रसिक पुत्तिगे ने किया है।
‘कौशिक रामायण’ अब ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित हो रही है। महाभारत और भागवत की भाँति चौमासे में उत्तर कन्नड, दक्षिण कन्नड, और शिमोगा जिलों में कौशिक रामायण का कथावाचन होता था। धर्मप्राण श्रोता कथा सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते थे। मुद्रित प्रतियों का अभाव होने लगा तो कथा-वाचन-श्रवण की परंपरा लुप्तप्राय सी हुई। इस सदी के आरंभ में ताड़पत्रों पर की लिखावट पढ़नेवाले भी नहीं के बराबर थे। अतः कौशिक रामायण उपेक्षित रह गई। एक वयोवृद्ध कथावाचक महोदय से डॉ. कारंत को विदित हुआ कि इसमें ‘मैरावण युद्ध’ का प्रसंग है। यह जानकारी मिलते ही डॉ. कारंत का कुतूहल बढ़ा और वे हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्तकर इसके संपादन में लग गये।
इस महाकाव्य में कर्नाटक के पश्चिमी तटवर्ती प्रदेश में होन्नावर, सिरसि, कुमटा आदि स्थान हैं। यहाँ ‘हव्यक्’ नाम का एक जनसमुदाय बसा है। डॉ. कारंतजी को काव्य में हव्यक् कन्नड़ के प्रयोग देखने को मिले हैं। अतः उनका अनुमान है कि इसका कवि कोई हव्यक् कन्नडभाषी रहा होगा। डॉ. कारंतजी को महाकाव्य में कथ्य की अपेक्षा कथन-शैली में देसी का पुट आकर्षक लगा है। विद्वान मित्रों की सलाह एवं सहयोग से डॉ. कारंतजी ने इसका पाठांतर स्थिर किया और कन्नड रामायण-परंपरा में कृति का मूल्यांकन हो, इस उद्देश्य से सहृदय पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया।
कौशिक रामायण 44 संधियों (सर्गों) में विभाजित महाकाव्य है। क्रम से कथा का कहीं संक्षिप्त और कहीं विस्तृत वर्णन है युद्ध का वर्णन विस्तृत मिलता है। 39-40 इन पूरे दो सर्गों में ‘मैरावण युद्ध’ का वर्णन है। कई स्थानों पर पुनरुक्ति भी है। रामायण में पुनरुक्ति कोई दोष नहीं मानी गई है।
भुवन वाणी ट्रस्ट के मुख्य न्यासी श्री विनय कुमार जी अवस्थी ने प्रियवर डॉ. गजानन नरसिंह साठे की सलाह पर कौशिक रामायण का सानुवाद लिप्यंतरण-कार्य मुझे सौंपा। डॉ. गजानन नरसिंह साठे जी ‘रामायण के चलते-चलते विश्वकोष हैं। उन्हें मेरे पास सनेही डॉ. चन्दूलाल दुबेजी ने मेरा नाम सुझाया। जो काम आत्मीय बंधु प्रो. एस. वि. भट्ट को करना था, वही काम उनके निधन के बाद, मैंने यथामति यथाशक्ति किया है। इस अवसर पर मैं इन सबका आभार मानता हूँ।
मैं आचार्य पाठशाला, बेंगलूर के अवकाश-प्राप्त प्रो.टी. केशवभट्टा का आभारी हूँ जिन्होंने काव्य में गोचर कतिपय संदिग्ध छंदों का अर्थ स्पष्ट कराया और मेरा काम सरल बना दिया।
अंत में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि अनुवाद में कोई खूबी हो तो वह बत्तलेश्वर कवि की कृपा है और कोई कमी हो तो भूल को पकड़ न पाने की निजी असमर्थता है।
रामनवमी सु.
रामचन्द्र
4 अप्रैल 1992 257, काके बिल्डिंग,
नारायणपुर,
धारवाड़-580008
4 अप्रैल 1992 257, काके बिल्डिंग,
नारायणपुर,
धारवाड़-580008
बत्तलेश्वर
कौशिक रामायण
बालकाण्ड
सन्धि-1
।। पल्ल ।।
राजा दशरथ के चार सुपुत्र हुए। राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न उनके नाम थे। नरहरि और देवता हर्षित हुए।
।। पद।।
गणेशजी ! आप दूज के चंद्रमा की किरणों से शोभित हो। भालनेत्र हो। रत्नमुकुटधारी हो। विशाल हो। गजवदन हो। वरदायी, अभय करकमलवाले हो, शैलजा के ज्येष्ठ पुत्र हो, समस्त देवता आपके चरण कमलों की वंदना करते हैं। मेरी मति मंगलमयी हो। मेरी रक्षा करो।
वाणी ! तुम ब्रह्म की रानी हो। सौजन्य की निधि हो। सुन्दरता की खान हो। अनर्ध्य रत्न हो। उच्चवर्ग वाली हो। पुस्तकपाणि हो। क्षीण कटिवाली हो। कृपा करनेवाले दाताओं में श्रेष्ठ हो। स्मरण करने वाले भक्तों का त्राण करती हो। सुब्रह्माणी हो। मनोकामना पूरी करनेवाली हो। तुम हम पर दया करो। हमें वर दो। लाटानुप्रासजनित रमणीयता, सरस लोकोक्तियों का विदग्धता का, क्रमिक पंक्तिबद्धता, बंध की गरिमा, कथा की व्यापकता का आनन्द लेने और पीढ़ी की नवकुसुममाल सदृश मधुर सुक्तियों का रसपान करने के उपरान्त मैं प्रेम से रामकथा लिखता हूँ। गुण से प्रसन्न होनेवाले कवि के दोषों को अनदेखा करनेवाले, तत्व को परखने वाले, परमात्मा से द्रोह न करने वाले आदि सब आदरसहित कथा श्रवण करें। मैं गणेशजी, वाग्देवी इन दोनों के सम्मुख नमित होकर दिनमणिकुलेन्द्र की कथा सुनाता हूँ। विवेकीजन छिलका उतारे केले की उपेक्षा करके लोहे का चना चबाएँगे ? सरल सत्कथा का श्रवण न करनेवाले मतिमंद भी धरती पर है ? इसका अभिप्रेत अर्थ भी कोई जान सकेगा ? बात बढ़ाने से फायदा ? यह सब जानने के बाद लोककल्याण के निमित्त मुनिवर्य ने कहानी रची। (1-5) धरती के निवासी इस कलियुग में जुआ, दुर्जनों की संगत, वाद, प्रतिवाद, कुतर्क परनिंदा, इन्द्रजाल, नीतिविरुद्ध व्यापार, कहावतें बोली में प्रचलित अश्लीलताएं बेकार की गपबाजी आदि में ही रस लेते हैं और समय गंवाते है। कोई नयी बात सीखना चाहे भी तो लोग अल्पायु है। और हैं बड़े श्रद्धाहीन।
बड़े आलसी हैं। खूब सोते हैं। वेदाध्यन में कोरे हैं। झगड़ालू हैं। कामुक हैं। दंभी हैं। युक्तिशून्य हैं। ऐसे लोग भी श्रेयस् के भागी बनें इस उद्देश्य से कवि ने ललित शैली में रचना रची है। गहने बनाना न जाननेवाला यदि सोने को खोटा कह दे तो सोने की कीमत घट गयी। दर्पण की धूल न साफ कर सकनेवाला दर्पण में दोष बताये तो दर्पण बेकार माना जाय ? रसों की व्यंजना से काव्यामृत का आस्वाद न करा सकनेवाले के कारण लोक में रामकथा की गरिमा घटेगी ? वक्ता के लिए कथा मंगलकारिणी और सपंत्तिदायिनी है। श्रोता के लिए तो उसके पास समूल नष्ट करनेवाली है। उसके कानों में सुधा बरसानेवाली है। सुजन-सभा का यह आभूषण है। बड़ी बात यह कि यह सत्यकथा है ज्ञानियों का श्रृंगार है। देवों के लिए संतृप्ति आप लक्ष्मीलोल का यह अंतरंग चरितामृत सुनो। शरणागतों की कामधेनु, धेनुकासुर जैसों का दलन करनेवाले, रण में घातक, चार हाथोंवाले, का यह नियम आदि के प्रयोक्ता, निर्मल इंद्रियवाले, निर्मल वरदायी खरदूषण का वध करने वाले शिव को प्रिय लगनेवाले प्रभु ! चरण-युगलों में भरी पूरी भक्ति का वर दे। ध्यान से सुनो या अनजान होकर सुनो। इस कथा से भवबंध टूटेगा। आग पर अनजाने हाथ पड़ जाये तो पल भर उँगलियाँ जलेंगी नहीं ? सुधारस का पान अनजाने कर दिया तो वह तुम्हारी रक्षा न करेगा ? अजामिल ने होश में हरि का नाम लिया था ? फिर भी वह नाम लेने से उसे मुक्ति मिली तो। पढ़ो तो वाक्य पदयोजना का पता लगे। उसका आशय ग्रहण कर लिया तो बुद्धि सुधर जाय। सुनने मात्र से श्रोता का कर्मबंधन शिथिल हो जाय और भवभयजन्य ताप दूर हो जाय। यह श्रुतिसम्मत हरिकथा हैं, मुक्तिपथ हैं, वैकुण्ठ को ले जाने वाली हैं। धरती पर रहने वालों के हित के लिए मुनिपति वाल्मीकि ने यह रमणीय कथा रची। धरती का बोझ उतारने के लिए भगवान नारायण राघव के रूप में अवतरित हुए। श्रुतिसम्मत रामकथा का यह प्रसंग बड़े आदर से उन्होंने वर्णित किया है। साधु नजरों को इसका आस्वाद मिला और वे परितुष्ट हुए। महादयानिधि की कृपा हुई।
वाल्मीकि ने प्रेम से यह कथा प्रस्तुत कर दी। (6-13) हरिकथा-श्रीराम की कथा खीर है। सा रे गा मा आदि सात स्वर से सुवाचितगान ताजा घी है। गीत पुंज, दाल, शाक, भाजी आदि व्यंजन हैं। इतिहास खुशबूदार खाने की चीजें हैं। कवि ने प्रसन्नता से परोसने का काम अपने ऊपर लिया है। इससे भोजन में न्योता दिया जा सकता है। जिनको भूख लगी हो वे कृपया पधारें। इससे मन का अभिप्राय व्यक्ति होता है। इह पर में यह सुखदायी हैं। सुखसागर का यह मूल हैं। सुखप्रद हैं। समस्त वेदपुराणों का यह हृदय हैं। यह वाल्मीकि द्वारा रची गई हैं। ईश्वर इसकी महिमा जानता है। औरों का कहना क्या ! असुरों के उत्पात से सुरलोकवासी अदूग्नि हुए। हरि के सम्मुख अपनी व्यथा सुनायी। नरहरि की उन पर कृपा हुई। अभयदान देते हरि ने कहा-मैं राजा दशरथ के यहाँ उनके सुत के रूप में अवतार लूँगा। आप सब धरती पर तरुचर वानर योनि में जन्म लेना। भगवान के आदेशानुसार देवराज बालि बने। ब्रह्मा जांबवान बने। रविसुत सुग्रीव बने। शिव हनुमान बने। चन्द्रमा दधिमुख बने। अग्नि नील बने। निरुति केसरि नामधारी बने। वरुण और विश्वकर्मा क्रम से पनस और नल नामधारी हुए। मरुत धेनुक बना। यक्ष अंगद बना। यमराज गवय बना। मेंद आदि धरती पर मर्कट रूप धरकर पहुंचे। नारद से शापग्रस्त विष्णु नरवेशधारी हुए। इनकी लीला का कथा रूप में वर्णन मैं करने का प्रयत्न करुँगा। सज्जनों !
आप ध्यान से यह कथामृत पान करें। नारद वाल्मीक से बोले-अयोध्या वाराणसी से श्रेष्ठ है। चौदहों भुवनों का केन्द्र है। तमसा के उत्तर में सात योजनों के अंतर में तट को छूता सागर है। सरयू नदी है। नगरी के पूरब में सागर की सीमा तक धरती पर यह प्रहरी सदृश है। इसके चमकीले कनक दुर्ग पर माणिक्य का कलश है। रत्नों का बंदनवार है। छियानबे हजार सोमवीथियाँ हैं। छह योजन इसकी चौड़ाई है। दस योजन का वर्तुल आकार है। कैलाश से भी यह अधिक वैभवसंपन्न है। नगरी में ऊँचे-ऊँचे भवन है। इन पर हाथी के मस्तक क्षुधित व्याघ्र के मुँह, फूत्कार करते फणिमुख, देवी मारिकाँबा के मुख आदि की आकृतियाँ बनी हैं। मुनिवरों को यह विशेष प्रिय है। इस नगरी का वर्णन कौन करे ! अमरावती इसके सामने फीकी है। अलकापुरी की संपदा से इसकी संपत्ति बढ़ी-चढ़ी है। सारे संसार की संपदा शोभा यहाँ एकत्र समझो। यहाँ की शिलाएँ पारस पत्थर हैं। अंकुरित दूब सारी रुचिकर राजभोज बराबर हैं। यहाँ की गायें कामधेनु हैं। क्षुद्रता, अभाव, बाधाएँ, दरिद्रता इनका नाम नहीं। विजयश्री की खान है। मन्मथ रतिरानी के साथ इस तिलकप्राय भूभाग पर विहार करता है। (14-22) इस धरती पर सर्वत्र अमृत भरा सागर लहराता है अर्थात् अमृत रस से सिक्त है। यहाँ के बाजारों में हजारों शानदार दुकानें हैं। गणिका भवनों की शोभा निराली है दुर्ग के चारों ओर उद्यान हैं। इस शोभा संपदा से समृद्ध नगरी के नरेश दशरथ महाराज है। इनकी उपाधियाँ हैं- रिपुकुलतिमिर रवि, ब्रह्मा के सेवक, सदा विजयी। राजा दशरथ स्थिरता में मेरुसदृश हैं, धैर्य में धरा समान है। गंभीरता में जलधि जैसे हैं, दान में कल्पतरु हैं, तेज में तरणि हैं, ऐश्वर्य में बलि चक्रवर्ती है, भोगोपभोग, में देवराज हैं, सौदर्य में कामदेव हैं, शत्रुओं के प्राण हरने में कालानल रुद्र हैं। सुमति कौशल्यादेवी उनकी पटरानी हैं। मझली रानी कैकेयी पर राजा अतिशय आसक्त हैं। विशाल नयनोंवाली सुमित्रा सबसे छोटी रानी है। इन तीनों की रूपशोभा अप्सराओं के रूपलावण्य से बढ़ी-चढ़ी है। भ्रमरों के समान सघन काले केशोंवाली ये कांताएं पूर्णयौवना हैं। एक बार स्वर्गलोक में असाधारण संग्राम छिड़ा। उस अवसर पर देवों की सहायता करने दशरथ महाराज भी गये।
पराक्रमी पति का सारथी बनाकर कैकेयी भी गयी। घमासान लड़ाई के बीच रथ की धुरी टूट गई। हाथ का सहारा देकर कैकेयी ने रथ चलाये रखा। शत्रुसेना के छक्के छूटे। राजा लौटे। लौटते समय उसकी दृष्टि कैकेयी के हाथ पर गई। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने रानी की स्थिरता की सराहना की। प्रशंसा से ही उसका मन न भरा। रानी से उसने वर माँगने को कहा। रानी बोली-जब जरूरत पड़ेगी तब माँग लूँगी। यह आपके पास धरोहर रूप में रहें। राजा ने रानी का अनुरोध मान लिया और अयोध्या लौट आये। हंस बिना सरोवर, विद्वान बिना राजसभा, षट्पद बिना कमल, कोयल बिना उपवन, लयताल बिना गायन, पीतांबर बिना परिधान इनके समान राजा को सुत बिना निजी राजभवन व्यर्थ लगा। संतान के अभाव की चिंता से व्याकुल राजा एक दिन अनमना होकर रात में सरोवर के पास आया। राजा प्रतीक्षा में खड़ा रहा। चौडल नाम का एक विप्रकुमार अपने प्यासे पिताजी के लिए पानी भरने उसी पोखरे पर आया। मटके में पानी भरते समय हुई आवाज सुनकर दशरथ महाराज को पानी पीने पहुँचे हाथी का भ्रम हुआ और उन्होंने सहसा तीर चला दिया। बड़ा अकार्य हो गया। मटका हाथ में लिये वह मुनिकुमार हर ! हर ! उद्गार के साथ गिरा। उसके प्राण निकल गये।
दशरथ को लगा कि किसी मनुष्य का यह आर्तनाद हैं वह घबरा उठा। दौड़ा आया। पूछा तो आखिरी साँस लेते उस कुमार ने अपने पिता का पता बताया। (23-30) फिर राजा सुत का मृतक शरीर मुनिदंपति के सामने लाये। लंबी आहें भरीं। खूब रोते दोनों के चरणों पर गिरे। भूल से हुए अपराध के लिए क्षमायाचना की। ‘‘मुझे आप अपना लड़का मानें। सुत- वियोग जन्य संताप भूल जायें’’। यह निवेदन किया इस पर मुनिदम्पति बोले-पुत्रशोक से ही तुम्हारी मृत्यु होगी। तुरन्त ही दोनों निष्प्राण हो गये। राजा ने तीनों शवों का दाहकर्म किया। निजी मूर्खता के कारण हुए कांड से सूर्यवंशी नरेश शोकविह्वल हो उठे। इसी बीच उन्हें उस एक बात सूझी। यह अभिशाप अवश्य हैं पर मेरे लिए वरदान भी तो है। सुत का मुख देखना तो भाग्य में बदा है। पीछे जो हो जाय, बला से। धन्य हुआ है। काला विहग पंख खोलता है। दो सफेद छिपकलियाँ एक साथ हैं। इन जैसे शुभ सगुनों को राजा बार-बार देखते है। संतान की आकांक्षा से ऐसा करते हैं। मनौतियाँ मान रही हैं। तीनों रानियाँ-कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा आदि। हरि का तिलक होगा। पालना होगा। टिकुली होगी। राजदरबार में एक दिन महर्षि वशिष्ठ पधारे। राजा ने अविलंब खड़े होकर अर्ध्यपाद्य आदि से उनका सत्कार किया। हाथ जोड़े राजा बोले।
राजकाज चलाते साठ हजार वर्ष बीते। राजवैभव भोगा है पर कोई संतृप्ति नहीं मिली। पिक-कूजन बिना उपवन, दिनकर बिना नभ, हंस विहार बिना पुष्कर, इनकी भाँति संतीनहीन राजा की मेरी दशा है। यह भी कोई राजसुख है भला ! ऐसी संपत्ति का उपभोग किस काम का ! कृपानिधि गुरु महाराज ! पुत्र प्राप्ति होगी कब ? बताइए। वशिष्ट बोले आज प्रातः काल एक सपना दिखा। सपना ऐसा था। एक श्रृंगीयति ने चार हाथी के बच्चे दिये। उन्हें राजमहल में बाँध दिया। तुरंत पचंमुखी एक सर्पशिशु उन्हें निगल गया। मेरी बाँहों से खून बह निकला। आँखें खुल गईं। राजन्। तुम बड़े भाग्यशाली हो। तुम्हारे इसी भवन में लक्ष्मीपति भगवान का, चार सुत रूप में अवतार होगा। देवमुनि ऋष्श्रृंग यहाँ पधारे, ऐसा प्रबंध करो। राजा ने आतुरता से पूछा-देवमुनि हैं कहाँ ? मुनिवर बोले-तुम्हारा मित्र रोमपाद उनका पता जानता है। राजन् ! नगरी का महाद्वार सजवा देना। धनुर्धर पैदल सेना सजा लो। हाथी घोड़े स्वर्णरथों में जुत जाएं। नगरी में सर्वत्र घोषणा करा देना नगरी से बाहर इनका पड़ाव हो। तुम जाओ लिंगार्चन करो, भोग चढ़ाओ। राजा ने अमात्यों को पुर की रक्षा का आदेश दिया। राजा अपनी चतुरंगिनी सेना के साथ चंपापुर की ओर चल पड़े। सेना की गति देख सब चौंके। इधर क्षत्रिय नरेश हततेज हो गये। चंपापुर नरेश ने नगरी को सजाने का प्रबंध किया और दशरथ महाराज का स्वागत करने के लिए लिए हाथी, घोड़े, रथ पैदल सेनाओं समेत निकला। (31-39)
राजा दशरथ के चार सुपुत्र हुए। राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न उनके नाम थे। नरहरि और देवता हर्षित हुए।
।। पद।।
गणेशजी ! आप दूज के चंद्रमा की किरणों से शोभित हो। भालनेत्र हो। रत्नमुकुटधारी हो। विशाल हो। गजवदन हो। वरदायी, अभय करकमलवाले हो, शैलजा के ज्येष्ठ पुत्र हो, समस्त देवता आपके चरण कमलों की वंदना करते हैं। मेरी मति मंगलमयी हो। मेरी रक्षा करो।
वाणी ! तुम ब्रह्म की रानी हो। सौजन्य की निधि हो। सुन्दरता की खान हो। अनर्ध्य रत्न हो। उच्चवर्ग वाली हो। पुस्तकपाणि हो। क्षीण कटिवाली हो। कृपा करनेवाले दाताओं में श्रेष्ठ हो। स्मरण करने वाले भक्तों का त्राण करती हो। सुब्रह्माणी हो। मनोकामना पूरी करनेवाली हो। तुम हम पर दया करो। हमें वर दो। लाटानुप्रासजनित रमणीयता, सरस लोकोक्तियों का विदग्धता का, क्रमिक पंक्तिबद्धता, बंध की गरिमा, कथा की व्यापकता का आनन्द लेने और पीढ़ी की नवकुसुममाल सदृश मधुर सुक्तियों का रसपान करने के उपरान्त मैं प्रेम से रामकथा लिखता हूँ। गुण से प्रसन्न होनेवाले कवि के दोषों को अनदेखा करनेवाले, तत्व को परखने वाले, परमात्मा से द्रोह न करने वाले आदि सब आदरसहित कथा श्रवण करें। मैं गणेशजी, वाग्देवी इन दोनों के सम्मुख नमित होकर दिनमणिकुलेन्द्र की कथा सुनाता हूँ। विवेकीजन छिलका उतारे केले की उपेक्षा करके लोहे का चना चबाएँगे ? सरल सत्कथा का श्रवण न करनेवाले मतिमंद भी धरती पर है ? इसका अभिप्रेत अर्थ भी कोई जान सकेगा ? बात बढ़ाने से फायदा ? यह सब जानने के बाद लोककल्याण के निमित्त मुनिवर्य ने कहानी रची। (1-5) धरती के निवासी इस कलियुग में जुआ, दुर्जनों की संगत, वाद, प्रतिवाद, कुतर्क परनिंदा, इन्द्रजाल, नीतिविरुद्ध व्यापार, कहावतें बोली में प्रचलित अश्लीलताएं बेकार की गपबाजी आदि में ही रस लेते हैं और समय गंवाते है। कोई नयी बात सीखना चाहे भी तो लोग अल्पायु है। और हैं बड़े श्रद्धाहीन।
बड़े आलसी हैं। खूब सोते हैं। वेदाध्यन में कोरे हैं। झगड़ालू हैं। कामुक हैं। दंभी हैं। युक्तिशून्य हैं। ऐसे लोग भी श्रेयस् के भागी बनें इस उद्देश्य से कवि ने ललित शैली में रचना रची है। गहने बनाना न जाननेवाला यदि सोने को खोटा कह दे तो सोने की कीमत घट गयी। दर्पण की धूल न साफ कर सकनेवाला दर्पण में दोष बताये तो दर्पण बेकार माना जाय ? रसों की व्यंजना से काव्यामृत का आस्वाद न करा सकनेवाले के कारण लोक में रामकथा की गरिमा घटेगी ? वक्ता के लिए कथा मंगलकारिणी और सपंत्तिदायिनी है। श्रोता के लिए तो उसके पास समूल नष्ट करनेवाली है। उसके कानों में सुधा बरसानेवाली है। सुजन-सभा का यह आभूषण है। बड़ी बात यह कि यह सत्यकथा है ज्ञानियों का श्रृंगार है। देवों के लिए संतृप्ति आप लक्ष्मीलोल का यह अंतरंग चरितामृत सुनो। शरणागतों की कामधेनु, धेनुकासुर जैसों का दलन करनेवाले, रण में घातक, चार हाथोंवाले, का यह नियम आदि के प्रयोक्ता, निर्मल इंद्रियवाले, निर्मल वरदायी खरदूषण का वध करने वाले शिव को प्रिय लगनेवाले प्रभु ! चरण-युगलों में भरी पूरी भक्ति का वर दे। ध्यान से सुनो या अनजान होकर सुनो। इस कथा से भवबंध टूटेगा। आग पर अनजाने हाथ पड़ जाये तो पल भर उँगलियाँ जलेंगी नहीं ? सुधारस का पान अनजाने कर दिया तो वह तुम्हारी रक्षा न करेगा ? अजामिल ने होश में हरि का नाम लिया था ? फिर भी वह नाम लेने से उसे मुक्ति मिली तो। पढ़ो तो वाक्य पदयोजना का पता लगे। उसका आशय ग्रहण कर लिया तो बुद्धि सुधर जाय। सुनने मात्र से श्रोता का कर्मबंधन शिथिल हो जाय और भवभयजन्य ताप दूर हो जाय। यह श्रुतिसम्मत हरिकथा हैं, मुक्तिपथ हैं, वैकुण्ठ को ले जाने वाली हैं। धरती पर रहने वालों के हित के लिए मुनिपति वाल्मीकि ने यह रमणीय कथा रची। धरती का बोझ उतारने के लिए भगवान नारायण राघव के रूप में अवतरित हुए। श्रुतिसम्मत रामकथा का यह प्रसंग बड़े आदर से उन्होंने वर्णित किया है। साधु नजरों को इसका आस्वाद मिला और वे परितुष्ट हुए। महादयानिधि की कृपा हुई।
वाल्मीकि ने प्रेम से यह कथा प्रस्तुत कर दी। (6-13) हरिकथा-श्रीराम की कथा खीर है। सा रे गा मा आदि सात स्वर से सुवाचितगान ताजा घी है। गीत पुंज, दाल, शाक, भाजी आदि व्यंजन हैं। इतिहास खुशबूदार खाने की चीजें हैं। कवि ने प्रसन्नता से परोसने का काम अपने ऊपर लिया है। इससे भोजन में न्योता दिया जा सकता है। जिनको भूख लगी हो वे कृपया पधारें। इससे मन का अभिप्राय व्यक्ति होता है। इह पर में यह सुखदायी हैं। सुखसागर का यह मूल हैं। सुखप्रद हैं। समस्त वेदपुराणों का यह हृदय हैं। यह वाल्मीकि द्वारा रची गई हैं। ईश्वर इसकी महिमा जानता है। औरों का कहना क्या ! असुरों के उत्पात से सुरलोकवासी अदूग्नि हुए। हरि के सम्मुख अपनी व्यथा सुनायी। नरहरि की उन पर कृपा हुई। अभयदान देते हरि ने कहा-मैं राजा दशरथ के यहाँ उनके सुत के रूप में अवतार लूँगा। आप सब धरती पर तरुचर वानर योनि में जन्म लेना। भगवान के आदेशानुसार देवराज बालि बने। ब्रह्मा जांबवान बने। रविसुत सुग्रीव बने। शिव हनुमान बने। चन्द्रमा दधिमुख बने। अग्नि नील बने। निरुति केसरि नामधारी बने। वरुण और विश्वकर्मा क्रम से पनस और नल नामधारी हुए। मरुत धेनुक बना। यक्ष अंगद बना। यमराज गवय बना। मेंद आदि धरती पर मर्कट रूप धरकर पहुंचे। नारद से शापग्रस्त विष्णु नरवेशधारी हुए। इनकी लीला का कथा रूप में वर्णन मैं करने का प्रयत्न करुँगा। सज्जनों !
आप ध्यान से यह कथामृत पान करें। नारद वाल्मीक से बोले-अयोध्या वाराणसी से श्रेष्ठ है। चौदहों भुवनों का केन्द्र है। तमसा के उत्तर में सात योजनों के अंतर में तट को छूता सागर है। सरयू नदी है। नगरी के पूरब में सागर की सीमा तक धरती पर यह प्रहरी सदृश है। इसके चमकीले कनक दुर्ग पर माणिक्य का कलश है। रत्नों का बंदनवार है। छियानबे हजार सोमवीथियाँ हैं। छह योजन इसकी चौड़ाई है। दस योजन का वर्तुल आकार है। कैलाश से भी यह अधिक वैभवसंपन्न है। नगरी में ऊँचे-ऊँचे भवन है। इन पर हाथी के मस्तक क्षुधित व्याघ्र के मुँह, फूत्कार करते फणिमुख, देवी मारिकाँबा के मुख आदि की आकृतियाँ बनी हैं। मुनिवरों को यह विशेष प्रिय है। इस नगरी का वर्णन कौन करे ! अमरावती इसके सामने फीकी है। अलकापुरी की संपदा से इसकी संपत्ति बढ़ी-चढ़ी है। सारे संसार की संपदा शोभा यहाँ एकत्र समझो। यहाँ की शिलाएँ पारस पत्थर हैं। अंकुरित दूब सारी रुचिकर राजभोज बराबर हैं। यहाँ की गायें कामधेनु हैं। क्षुद्रता, अभाव, बाधाएँ, दरिद्रता इनका नाम नहीं। विजयश्री की खान है। मन्मथ रतिरानी के साथ इस तिलकप्राय भूभाग पर विहार करता है। (14-22) इस धरती पर सर्वत्र अमृत भरा सागर लहराता है अर्थात् अमृत रस से सिक्त है। यहाँ के बाजारों में हजारों शानदार दुकानें हैं। गणिका भवनों की शोभा निराली है दुर्ग के चारों ओर उद्यान हैं। इस शोभा संपदा से समृद्ध नगरी के नरेश दशरथ महाराज है। इनकी उपाधियाँ हैं- रिपुकुलतिमिर रवि, ब्रह्मा के सेवक, सदा विजयी। राजा दशरथ स्थिरता में मेरुसदृश हैं, धैर्य में धरा समान है। गंभीरता में जलधि जैसे हैं, दान में कल्पतरु हैं, तेज में तरणि हैं, ऐश्वर्य में बलि चक्रवर्ती है, भोगोपभोग, में देवराज हैं, सौदर्य में कामदेव हैं, शत्रुओं के प्राण हरने में कालानल रुद्र हैं। सुमति कौशल्यादेवी उनकी पटरानी हैं। मझली रानी कैकेयी पर राजा अतिशय आसक्त हैं। विशाल नयनोंवाली सुमित्रा सबसे छोटी रानी है। इन तीनों की रूपशोभा अप्सराओं के रूपलावण्य से बढ़ी-चढ़ी है। भ्रमरों के समान सघन काले केशोंवाली ये कांताएं पूर्णयौवना हैं। एक बार स्वर्गलोक में असाधारण संग्राम छिड़ा। उस अवसर पर देवों की सहायता करने दशरथ महाराज भी गये।
पराक्रमी पति का सारथी बनाकर कैकेयी भी गयी। घमासान लड़ाई के बीच रथ की धुरी टूट गई। हाथ का सहारा देकर कैकेयी ने रथ चलाये रखा। शत्रुसेना के छक्के छूटे। राजा लौटे। लौटते समय उसकी दृष्टि कैकेयी के हाथ पर गई। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने रानी की स्थिरता की सराहना की। प्रशंसा से ही उसका मन न भरा। रानी से उसने वर माँगने को कहा। रानी बोली-जब जरूरत पड़ेगी तब माँग लूँगी। यह आपके पास धरोहर रूप में रहें। राजा ने रानी का अनुरोध मान लिया और अयोध्या लौट आये। हंस बिना सरोवर, विद्वान बिना राजसभा, षट्पद बिना कमल, कोयल बिना उपवन, लयताल बिना गायन, पीतांबर बिना परिधान इनके समान राजा को सुत बिना निजी राजभवन व्यर्थ लगा। संतान के अभाव की चिंता से व्याकुल राजा एक दिन अनमना होकर रात में सरोवर के पास आया। राजा प्रतीक्षा में खड़ा रहा। चौडल नाम का एक विप्रकुमार अपने प्यासे पिताजी के लिए पानी भरने उसी पोखरे पर आया। मटके में पानी भरते समय हुई आवाज सुनकर दशरथ महाराज को पानी पीने पहुँचे हाथी का भ्रम हुआ और उन्होंने सहसा तीर चला दिया। बड़ा अकार्य हो गया। मटका हाथ में लिये वह मुनिकुमार हर ! हर ! उद्गार के साथ गिरा। उसके प्राण निकल गये।
दशरथ को लगा कि किसी मनुष्य का यह आर्तनाद हैं वह घबरा उठा। दौड़ा आया। पूछा तो आखिरी साँस लेते उस कुमार ने अपने पिता का पता बताया। (23-30) फिर राजा सुत का मृतक शरीर मुनिदंपति के सामने लाये। लंबी आहें भरीं। खूब रोते दोनों के चरणों पर गिरे। भूल से हुए अपराध के लिए क्षमायाचना की। ‘‘मुझे आप अपना लड़का मानें। सुत- वियोग जन्य संताप भूल जायें’’। यह निवेदन किया इस पर मुनिदम्पति बोले-पुत्रशोक से ही तुम्हारी मृत्यु होगी। तुरन्त ही दोनों निष्प्राण हो गये। राजा ने तीनों शवों का दाहकर्म किया। निजी मूर्खता के कारण हुए कांड से सूर्यवंशी नरेश शोकविह्वल हो उठे। इसी बीच उन्हें उस एक बात सूझी। यह अभिशाप अवश्य हैं पर मेरे लिए वरदान भी तो है। सुत का मुख देखना तो भाग्य में बदा है। पीछे जो हो जाय, बला से। धन्य हुआ है। काला विहग पंख खोलता है। दो सफेद छिपकलियाँ एक साथ हैं। इन जैसे शुभ सगुनों को राजा बार-बार देखते है। संतान की आकांक्षा से ऐसा करते हैं। मनौतियाँ मान रही हैं। तीनों रानियाँ-कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा आदि। हरि का तिलक होगा। पालना होगा। टिकुली होगी। राजदरबार में एक दिन महर्षि वशिष्ठ पधारे। राजा ने अविलंब खड़े होकर अर्ध्यपाद्य आदि से उनका सत्कार किया। हाथ जोड़े राजा बोले।
राजकाज चलाते साठ हजार वर्ष बीते। राजवैभव भोगा है पर कोई संतृप्ति नहीं मिली। पिक-कूजन बिना उपवन, दिनकर बिना नभ, हंस विहार बिना पुष्कर, इनकी भाँति संतीनहीन राजा की मेरी दशा है। यह भी कोई राजसुख है भला ! ऐसी संपत्ति का उपभोग किस काम का ! कृपानिधि गुरु महाराज ! पुत्र प्राप्ति होगी कब ? बताइए। वशिष्ट बोले आज प्रातः काल एक सपना दिखा। सपना ऐसा था। एक श्रृंगीयति ने चार हाथी के बच्चे दिये। उन्हें राजमहल में बाँध दिया। तुरंत पचंमुखी एक सर्पशिशु उन्हें निगल गया। मेरी बाँहों से खून बह निकला। आँखें खुल गईं। राजन्। तुम बड़े भाग्यशाली हो। तुम्हारे इसी भवन में लक्ष्मीपति भगवान का, चार सुत रूप में अवतार होगा। देवमुनि ऋष्श्रृंग यहाँ पधारे, ऐसा प्रबंध करो। राजा ने आतुरता से पूछा-देवमुनि हैं कहाँ ? मुनिवर बोले-तुम्हारा मित्र रोमपाद उनका पता जानता है। राजन् ! नगरी का महाद्वार सजवा देना। धनुर्धर पैदल सेना सजा लो। हाथी घोड़े स्वर्णरथों में जुत जाएं। नगरी में सर्वत्र घोषणा करा देना नगरी से बाहर इनका पड़ाव हो। तुम जाओ लिंगार्चन करो, भोग चढ़ाओ। राजा ने अमात्यों को पुर की रक्षा का आदेश दिया। राजा अपनी चतुरंगिनी सेना के साथ चंपापुर की ओर चल पड़े। सेना की गति देख सब चौंके। इधर क्षत्रिय नरेश हततेज हो गये। चंपापुर नरेश ने नगरी को सजाने का प्रबंध किया और दशरथ महाराज का स्वागत करने के लिए लिए हाथी, घोड़े, रथ पैदल सेनाओं समेत निकला। (31-39)
|
लोगों की राय
No reviews for this book