विभिन्न रामायण एवं गीता >> बिलंका रामायण बिलंका रामायणयोगेश्वर त्रिपाठी
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इसमें दाण्डी जगमोहन रामायण का हिन्दी अनुवाद तथा नागरी लिप्यन्तरण का वर्णन है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
भुवन वाणी ट्रस्ट द्वारा विभिन्न भाषाओं के प्रचुर वाड्मय के नागरी
लिप्यन्तरण के प्रयास के अन्तर्गत ओड़िआ भाषा के लोकप्रिय ग्रन्थ बिलंका
रामायण का नया संस्करण आपके समक्ष प्रस्तुत है।
उड़ीसा राज्य में प्रयुक्त उड़िया लिपि, पुरानी, नागरी की पूर्वशैली से विकसित हुई है किन्तु इस पर दक्षिण की तेलुगु एवं तमिल लिपियों का भी प्रभाव पड़ा, जिससे यह बहुत कठिन हो गई। कुछ लोग इसे पुरानी बंगला-लिपि से तथा कुछ इसे कुटिल (दे. बंगला लिपि) से निकली मानते हैं। इसके दो रूप करनी तथा ब्राह्मणी नाम से प्रसिद्ध है। ब्राह्मणी ताड़ पत्रों पर लिखने में प्रयुक्त होती है जबकि करनी कागज पर।
अधिकाधिक हि्न्दी-भाषियों को बिलंका रामायण सुग्राह्मय बनाने के उद्देश्य से इस नये संस्करण में कथानक का केवल गद्यरूप ही प्रकाशित किया गया है। हमारा विश्वास है कि इस प्रकार लिप्यन्तरित बिलंका रामायण का आकार काफी कम हो जाएगा और यह सुधी हिन्दी पाठकों को अपेक्षाकृत कम मूल्य पर उपलब्घ हो सकेगी।
उड़ीसा राज्य में प्रयुक्त उड़िया लिपि, पुरानी, नागरी की पूर्वशैली से विकसित हुई है किन्तु इस पर दक्षिण की तेलुगु एवं तमिल लिपियों का भी प्रभाव पड़ा, जिससे यह बहुत कठिन हो गई। कुछ लोग इसे पुरानी बंगला-लिपि से तथा कुछ इसे कुटिल (दे. बंगला लिपि) से निकली मानते हैं। इसके दो रूप करनी तथा ब्राह्मणी नाम से प्रसिद्ध है। ब्राह्मणी ताड़ पत्रों पर लिखने में प्रयुक्त होती है जबकि करनी कागज पर।
अधिकाधिक हि्न्दी-भाषियों को बिलंका रामायण सुग्राह्मय बनाने के उद्देश्य से इस नये संस्करण में कथानक का केवल गद्यरूप ही प्रकाशित किया गया है। हमारा विश्वास है कि इस प्रकार लिप्यन्तरित बिलंका रामायण का आकार काफी कम हो जाएगा और यह सुधी हिन्दी पाठकों को अपेक्षाकृत कम मूल्य पर उपलब्घ हो सकेगी।
अनुवादकीय
उड़ीसा वास के समय मैं जिन उड़िया ग्रन्थों के प्रति आकर्षित हुआ उनमें
बिलंका रामायण भी एक थी। विश्राम के क्षणों में हमारे बगीचे से बहुधा सरस
पदावली सुनकर मैं मुग्ध हो जाया करता। हमारा माली बड़ी लय के साथ लगभग
नित्य ही गेय पदों के गाया करता था। एक दिन मैंने उससे पुस्तक ले ली और
पढ़ने बैठ गया। मुझे बड़ा आनन्द आया। हमारे पारिवारिक जनों ने इसे नये
कथानक को बड़े ध्यान से सुना। इस ग्रन्थ को मैंने कई बार आद्योपान्त पढ़ा।
हमारे मित्रों ने भी इसका आनन्द लिया। अन्ततः अपने इस्पात कारखाने के अति
व्यस्त जीवन में भी चमत्कृत कर दिया। उड़िया भाषा का सत्साहित्य बहुत ही
सरल और सरस है।
बिलंका रामायण तो उड़िया के ग्रामीण अंचलों से लेकर नगर साहित्यिक जनों को प्रभाविक करती रही है इसकी भाषा सरल व बोधगम्य होते हुए माधुर्य गुण से अनुप्राणित है। इस ग्रन्थ के मूल लेखक भक्त कवि शारलादास जी है। इनकी महाभारत भी उड़ीसा में विशेशतः ग्रामीण अंचलों में जनप्रिय रही है। अपने पाठकों को ग्रन्थाकार विषय में कतिपय जानकारी करा देना आवश्यक समझता हूँ। शारलादास उड़िया साहित्य के सर्वप्रथम कवि है। उनके जीवन से सम्बन्धित अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित है। अन्तर्साक्ष्य के आधार पर यह सिद्ध होता है कि वह श्री जगन्नापुरी के महाराज गजपति गौड़ेश्वर कपिलेन्द्रदेव (सन् 1452 ई. से 1479 ई.) के समकालीन थे।
बिलंका रामायण तो उड़िया के ग्रामीण अंचलों से लेकर नगर साहित्यिक जनों को प्रभाविक करती रही है इसकी भाषा सरल व बोधगम्य होते हुए माधुर्य गुण से अनुप्राणित है। इस ग्रन्थ के मूल लेखक भक्त कवि शारलादास जी है। इनकी महाभारत भी उड़ीसा में विशेशतः ग्रामीण अंचलों में जनप्रिय रही है। अपने पाठकों को ग्रन्थाकार विषय में कतिपय जानकारी करा देना आवश्यक समझता हूँ। शारलादास उड़िया साहित्य के सर्वप्रथम कवि है। उनके जीवन से सम्बन्धित अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित है। अन्तर्साक्ष्य के आधार पर यह सिद्ध होता है कि वह श्री जगन्नापुरी के महाराज गजपति गौड़ेश्वर कपिलेन्द्रदेव (सन् 1452 ई. से 1479 ई.) के समकालीन थे।
‘‘प्रणपत्ये खटइ कपिलेन्द्र नामे राजा।
तेत्रिश कोटि देवे चरणे जार पूजा।
तेत्रिश कोटि देवे चरणे जार पूजा।
बचपन में उनका नाम सिद्धेश्वर तथा चक्रधर परिड़ा था। बिलंका रामायण के
रचनाकाल तक उनके ये ही नाम प्रचलित थे।
रामायण वृत्तांतकु निरंतरे घोष।
श्रीराम चरणे भजे सिद्धेश्वर दास।।
बइकुण्ठे जाई विष्णु आश्रारे रहइ
चक्रधर श्री अच्चुत पयर भजइ।।’’ (वि. रामायण)
श्रीराम चरणे भजे सिद्धेश्वर दास।।
बइकुण्ठे जाई विष्णु आश्रारे रहइ
चक्रधर श्री अच्चुत पयर भजइ।।’’ (वि. रामायण)
परवर्ती काल में उनकी इष्टदेवी, जो
‘‘झंकड़वासनी’’ नाम से आज भी
पूजित हैं, उन पर
प्रसन्न हुई। उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। उन्होंने अपने को शारलादेवी के
अनन्य उपासक के रूप में परिचित करा कर अपना नाम शारलादास रखा।
जगन्माता जहुँ प्रसन्न मोते हेले।
शूद्रमुनि शारलादास नाम मोते देले।।(आश्रमिक पर्व)
शूद्रमुनि शारलादास नाम मोते देले।।(आश्रमिक पर्व)
शारलादास जी बचपन से ही मातृ-पितृ-सुख से वंचित रहे। उनका बाल्यजीवन उनके
बड़े भाई परशुराम जी के आश्रय में व्यतीत हुआ था।
‘‘कनकपुर पाटणा घर पर्शुराम।
मुहिं तार अनुज शारलादास नाम।।;(मध्य पर्व)
मुहिं तार अनुज शारलादास नाम।।;(मध्य पर्व)
उड़ीसा के आधुनिक कटक जिले में चित्रोत्पला नदी के किनारे स्थित
‘‘जंखरपुर पाटणा’’ इलाके के
शारोल गाँव में उनका
जन्म हुआ था, ऐसा बताया जाता है। परन्तु शारलादेवी के मन्दिर के समीपवर्ती
‘‘कालीनाभ’’ गाँव के पक्ष में
किंवदन्ती अधिक है।
शारलादास शक्ति के उपासक शाक्त थे। उनके पूर्वज शारलापीठ के परम्परागत
पूजक थे। उनकी वंश-परम्परा ब्राह्मणेतर थी, क्योंकि उस समय ब्राह्मणेतर
लोग ही देवी पूजा का कार्य करते थे। सम्भवतः उनकी उपजाति का नाम
‘‘मुनि’’ था जो अवैदिक शूद्र था।
अतएव शारला जी
ने अपना परिचय बार बार
‘‘शूद्रमुनि’’ के नाम से
दिया है। उन्होंने यह भी कहा है कि न वह पण्डित है और न पढ़े-लिखे। शारला
की कृपा से ही वह उनकी महिमा गाते हैं।
शारलादास जी का महाभारत संस्कृत महाभारत का अनुवाद नहीं है। उसी प्रकार उनकी अन्य कृतियाँ बिलंका रामायण तथा चण्डी पुराण भी अनूदित ग्रन्थ नहीं हैं। कथानक और भावपक्ष दोनों ही पूर्णतः मैंलिक हैं। शैलीगत नवीनता तो है ही। उनकी कुछ पंक्तियाँ सामान्य जनता के कण्ठ में बहुप्रचलित लोकोक्तियों तथा कहावतों का रूप ले चुकी है।
1. झिमिट खेलरु महाभारत।
2. कोकुआ भय।
3. गंगाकहिले थिबि-गंगी कहिले जिबि।
4. पहिले जुद्धरे भीम हारे.
बिलंका रामायण और महाभारत का छन्द ‘‘दाण्डी-वृत्त’’ कहलाता है। प्रस्तुत छन्द के आदिप्रवर्तक स्वयं शारलादास हैं। पंक्तियों की वर्ण संख्या का बराबर न होना उसका प्रमुख लक्षण है। वार्णिक तथातुकान्त तो है परन्तु चरणों की वर्ण संख्या नौ से बत्तीस तक बढ़ भी जाती है। यथा-
शारलादास जी का महाभारत संस्कृत महाभारत का अनुवाद नहीं है। उसी प्रकार उनकी अन्य कृतियाँ बिलंका रामायण तथा चण्डी पुराण भी अनूदित ग्रन्थ नहीं हैं। कथानक और भावपक्ष दोनों ही पूर्णतः मैंलिक हैं। शैलीगत नवीनता तो है ही। उनकी कुछ पंक्तियाँ सामान्य जनता के कण्ठ में बहुप्रचलित लोकोक्तियों तथा कहावतों का रूप ले चुकी है।
1. झिमिट खेलरु महाभारत।
2. कोकुआ भय।
3. गंगाकहिले थिबि-गंगी कहिले जिबि।
4. पहिले जुद्धरे भीम हारे.
बिलंका रामायण और महाभारत का छन्द ‘‘दाण्डी-वृत्त’’ कहलाता है। प्रस्तुत छन्द के आदिप्रवर्तक स्वयं शारलादास हैं। पंक्तियों की वर्ण संख्या का बराबर न होना उसका प्रमुख लक्षण है। वार्णिक तथातुकान्त तो है परन्तु चरणों की वर्ण संख्या नौ से बत्तीस तक बढ़ भी जाती है। यथा-
‘‘खड्ग से बर जे नोहिला सन्तति।
समुद्रकुलरे राये नित्य आसिथिला नग्रकु समुद्र दश जोजने परिजन्ति।।’’
समुद्रकुलरे राये नित्य आसिथिला नग्रकु समुद्र दश जोजने परिजन्ति।।’’
उन्होंने स्थानीय जीवन का यथार्थ वर्णन किया है। द्रोपदी और हिडिम्बा के
प्रसंग में उड़िया नारी स्पष्टतः चित्रित है। उनकी रचनाएँ उड़िया जन-जीवन
के अमर आलेख हैं।
अपने कार्य क्षेत्र से परिस्थितिवश मुझे कानपुर जाना पड़ा। गृहकार्यों के साथ ही साहित्यिक साधना भी चलती रही। ‘‘तपस्विनी’’ तो प्रकाशित हो चुकी थी। पर बिलंका रामायण अभी तक मुझ तक ही सीमित थी। मेरी इच्छा होती थी कि जैसे भी हो यह ग्रन्थ हिन्दी जगत में आना ही चाहिए। भाग्यवश मान्यवर पं. नन्दकुमार जी अवस्थी से भेंट हो गई। अवस्थी जी ने भुवन वाणी ट्रस्ट लखनऊ के माध्यम से इस ग्रन्थ को हिन्दी जगत में लाने की मुझे प्रेरणा दी ! मैंने ट्रस्ट के लिए इस ग्रन्थ को हिन्दी में लिप्यन्तरण सहित अनूदित किया। पूज्य अवस्थी जी की प्रेरणा एवं सौजन्य के फलस्वरूप मूल अड़िया काव्य का नागरी लिप्यन्तरण सहित भाषानुवाद आपके हाथों में आया। मैं समझ नहीं पा हा कि उनका आभार किन शब्दों में प्रकट करूँ। शारलादास के जीवन परिचय के लिए मैं अपने स्नेही बन्धु डॉ. अर्जुन सत्पथी, एम.ए., पी.एच.डी. अध्यक्ष हिन्दीविभाग, सरकारी कालेज राउरकेला (उड़ीसा) का आभारी हूँ। जिन अन्य सहयोगियों ने मुझे इस कार्य में सहायता दी है, उनका मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।
अपने कार्य क्षेत्र से परिस्थितिवश मुझे कानपुर जाना पड़ा। गृहकार्यों के साथ ही साहित्यिक साधना भी चलती रही। ‘‘तपस्विनी’’ तो प्रकाशित हो चुकी थी। पर बिलंका रामायण अभी तक मुझ तक ही सीमित थी। मेरी इच्छा होती थी कि जैसे भी हो यह ग्रन्थ हिन्दी जगत में आना ही चाहिए। भाग्यवश मान्यवर पं. नन्दकुमार जी अवस्थी से भेंट हो गई। अवस्थी जी ने भुवन वाणी ट्रस्ट लखनऊ के माध्यम से इस ग्रन्थ को हिन्दी जगत में लाने की मुझे प्रेरणा दी ! मैंने ट्रस्ट के लिए इस ग्रन्थ को हिन्दी में लिप्यन्तरण सहित अनूदित किया। पूज्य अवस्थी जी की प्रेरणा एवं सौजन्य के फलस्वरूप मूल अड़िया काव्य का नागरी लिप्यन्तरण सहित भाषानुवाद आपके हाथों में आया। मैं समझ नहीं पा हा कि उनका आभार किन शब्दों में प्रकट करूँ। शारलादास के जीवन परिचय के लिए मैं अपने स्नेही बन्धु डॉ. अर्जुन सत्पथी, एम.ए., पी.एच.डी. अध्यक्ष हिन्दीविभाग, सरकारी कालेज राउरकेला (उड़ीसा) का आभारी हूँ। जिन अन्य सहयोगियों ने मुझे इस कार्य में सहायता दी है, उनका मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।
शंकर सदन’
17/13, माल रोड कानपुर-1
कार्तिक पूर्णिमा
सन् 1984
17/13, माल रोड कानपुर-1
कार्तिक पूर्णिमा
सन् 1984
विनीत योगेश्वर त्रिपाठी योगी
भुवन वाणी ट्रस्ट द्वारा ओड़िया भाषा की सेवा एवं विद्वान अनुवादक का परिचय
भारत के विश्रुत चार सांस्कृतिक पीठस्थानों में पूर्वान्चलीय श्रीजगन्नाथ
पुरी की पुष्कल प्रेरणा, अथवा सहयोग की अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा
ओड़िया भाषा की सेवा कुछ अधिक आकर्षक बन पड़ी। सर्वप्रथम अद्वितीय
अलंकारमय काव्य बैदेहीश विलास का हिन्दी अनुवाद सहित नागरी लिप्यन्तरण,
ओड़िया प्रदेश के सर्वप्रथम हिन्दी के एम.ए. स्नातक श्री सुरेश चन्द्र
नन्द के श्रम के फलस्वरूप प्रकाशित हुआ। दूसरी विशेषता यह कि हिन्दी के
मुकुट ग्रंथ रामचरितमानस का ओड़िया लिपि में रूपान्तर तथा ओड़िया भाषा में
गद्य-पद्य अनुवाद। इसके बाद श्री नन्द अधिक व्यस्त हो गये।
भगवान की कृपा हुई कि भुवन वाणी ट्रस्ट के क्षितिज में नव नक्षत्र का उदय हुआ समीप ही कानपुर में श्री योगेश्वर त्रिपाठी योगी सम्पर्क में आये। सृष्टि उदय पर सदा व्योम, में जगते यथा वेद के मंत्र !
विश्वनागरी से उगते त्यों सुवन सरस्वति स्वतः स्वतंत्र !’’ श्री योगी जी बी.ए. साहित्यरत्न, जन्म तिथि 15 अप्रैल, 1935 ई; जन्म स्थल महोबा (जि. हमीरपुर) मतुलग्रह में, निवास 17/13, शंकर सदन, माल रोड, कानपुर 208001 : 1957 तक जमशेदपुर टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी में कार्यरत: 1959 ,से 1982 तक राउरकेला उड़ीसा में स्टील ऑफ एण्डिया में कार्यरत साहित्यिक अभिरुचि के फलस्वरूप ओड़िया का ज्ञान अनूदित ग्रंथ (1) तपस्विनी-स्व. गंगाधर मेहेर; (2) प्रणय वल्लरी स्व. गंगाधर मेहेरे, (3) बन्दीर आत्मकथास्वं उत्कलमणि गोपबन्धुदास; (4) कालिआंर करामति रामायण स्व. श्री शारलादास तथा मौलिक कृतियाँ- (1) साक्षीगोपाल; (2) कांची विजय; (3) जगन्नाथ दर्शन; (4) मानस चन्द्रिका। यह श्री योगी जी का जीवन वृत्त है। वे हिन्दी संस्कृत अंग्रेजी बंगला, ओड़िया भाषाओं के विद्वान हैं।
उनके योगदान से ओड़िया की बिलंका रामायण का सानुवाद लिप्यन्तरण पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। विचित्र रामायण छप रही है और अति विशाल बलरामदास कृत दाण्डी जगमोहन रामायण का हिन्दी अनुवाद तथा नागरी लिप्यन्तरण भी कई खण्डों में प्रकाशानाधीन है।
भगवान की कृपा हुई कि भुवन वाणी ट्रस्ट के क्षितिज में नव नक्षत्र का उदय हुआ समीप ही कानपुर में श्री योगेश्वर त्रिपाठी योगी सम्पर्क में आये। सृष्टि उदय पर सदा व्योम, में जगते यथा वेद के मंत्र !
विश्वनागरी से उगते त्यों सुवन सरस्वति स्वतः स्वतंत्र !’’ श्री योगी जी बी.ए. साहित्यरत्न, जन्म तिथि 15 अप्रैल, 1935 ई; जन्म स्थल महोबा (जि. हमीरपुर) मतुलग्रह में, निवास 17/13, शंकर सदन, माल रोड, कानपुर 208001 : 1957 तक जमशेदपुर टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी में कार्यरत: 1959 ,से 1982 तक राउरकेला उड़ीसा में स्टील ऑफ एण्डिया में कार्यरत साहित्यिक अभिरुचि के फलस्वरूप ओड़िया का ज्ञान अनूदित ग्रंथ (1) तपस्विनी-स्व. गंगाधर मेहेर; (2) प्रणय वल्लरी स्व. गंगाधर मेहेरे, (3) बन्दीर आत्मकथास्वं उत्कलमणि गोपबन्धुदास; (4) कालिआंर करामति रामायण स्व. श्री शारलादास तथा मौलिक कृतियाँ- (1) साक्षीगोपाल; (2) कांची विजय; (3) जगन्नाथ दर्शन; (4) मानस चन्द्रिका। यह श्री योगी जी का जीवन वृत्त है। वे हिन्दी संस्कृत अंग्रेजी बंगला, ओड़िया भाषाओं के विद्वान हैं।
उनके योगदान से ओड़िया की बिलंका रामायण का सानुवाद लिप्यन्तरण पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। विचित्र रामायण छप रही है और अति विशाल बलरामदास कृत दाण्डी जगमोहन रामायण का हिन्दी अनुवाद तथा नागरी लिप्यन्तरण भी कई खण्डों में प्रकाशानाधीन है।
प्रकाशक
।। श्री गणेशाय नम: ।।
वृहत्
बिलंका रामायण
पूर्व खण्ड
देवी देवताओं की वन्दना
माता सर्वमंगला, कात्यायिनी तथा खड्ग और खप्पर धारण करने वाली
महिषासुर-मर्दिनी की जय हो। झंकड़ में निवास करनेवाली माँ शारला की जय हो,
जय हो। अमंगल का नाश करनेवाली सिद्ध चण्डी माता ! तुम्हारी जय हो, जय हो।
झंकड़पुर में उग्र मूर्ति धारण कर सिद्ध शारला-रूप में तुमने जन्म लिया।
माँ ! तुम संकट से उद्धार करने वाली हो। अभय का दान देने वाली
महेशमनमोहिनी माँ तुमने झंकड़पुर को अपना निवास बनाया है। तुम सम्पूर्ण
जगत की जननी आदिमाता हो। तुम्हारे कृपा करने से मूर्ख की भी गणना पण्डितों
में हो जाती है।
विभूतिलोपित अंगवाले, पार्वती के साथ विहार करने वाले त्रिशूलधारी सदाशिव की जय हो। जय हो। हे नीलकंठ ! हे गंगा को धारण करनेवाले ! तुम्हारी जय हो ! जय हो ! देव ! आपने ताण्डव नृत्य से तीनों लोकों को मोहितकर लिया है। अहर्निशि कुद्धवेश में आप कपिलास में निवास करते हैं। हे पार्वती के स्वामी ! आप क्षण क्षण में ध्यानस्थ हो जाया करते हैं। मुझे आपके चरणों का भरोसा है इसी कारण से मेरी इच्छा और दृढ़ हो गई है शारला दास उन श्रीचरणों की शरण ग्रहण करता हैं अर्थात् उन श्रीचरणों की भक्ति को ही अपना शरण स्थल समझता है। मैं तो मूर्ख हूँ। मुझे शास्त्रों का भी ज्ञान नहीं है। मेरे पास ज्ञान ध्यान लय योग कुछ भी तो नहीं हैं। ग्रन्थ के रहस्योद्घाटन की शक्ति भी मुझमें कहाँ है ? मैं शारला माता का सदा-सदा का दास हूँ और उनकी ही आज्ञा से मैं शास्त्र का अभ्यासी बना हूँ। वह मुझे जैसी आज्ञा देती है मैं वह ही लिख देता हूँ। मैं तो अज्ञानी मूर्ख हूँ। मुझे शास्त्र का ज्ञान नहीं है। हे त्रिलोक के तारने वाले जगत के कारण श्री जगन्नाथ ! आपकी जय हो ! जय हो ! हे प्रभु ! आप अधर्मों का उद्धार करनेवाले तथा दीन जनों के बन्धु हैं। विपदाओं का नाश करने वाले कृपा के सागर है। (1-15)
-----------
*कपिलास-उड़ीसा में ढेंकानाल जिले में कपिलास नाम के एक विशाल पर्वत पर नीलकंठ महादेव का सुरम्य मन्दिर है। जो सदाशिव का नित्य निवास माना जाता है। इसी का नाम कैलास भी है।
आपने शारंग धनुष गदा तथा असिपत्र अर्थात् चक्र को धारण कर रखा है। मैं मूर्ख तथा अज्ञानी सदैव आपकी शरण में हूँ। शास्त्र का वर्णन करना मेरी शक्ति का बाहर है। झंकड़वासिनी माँ शारला की कृपा से मेरी बुद्धि (रामागुण गाने को) अग्रसर हो गई है, जिनका ध्यान देवता, सिद्ध तथा मुनि झंकड़ आकर किया करते हैं। अपनी कृपा से मूर्ख को भी विद्वान बना देने वाली माँ सरस्वती ! अपने दास पर दया कर दीजिये। आपने छत्तीस रागिनियों द्वारा भगवान का मन मोहित कर लिया है। इसी कारण प्रभु आप पर प्रसन्न हो गये हैं। हे अम्ब ! आप जब मुझ जैसे अरक्षित (असहाय) जन पर दया कर देंगी तभी आपकी आज्ञा से मैं रामायण का गान करूँगा अर्थात् रामचरित्र कहने में समर्थ होऊँगा। श्रीहरि का नाम स्मरण करके मनुष्य संसार से छुटकारा पा जाता है। श्रीहरि का नाम ही एक मात्र संसार में सार वस्तु है। एक मात्र श्रीहरि के नाम का निरन्तर जाप करने से मनुष्य इस भवजाल से त्राण पा जाता हैष सांसारिक यातनाओं से छूट जाता है। (16-23)
विभूतिलोपित अंगवाले, पार्वती के साथ विहार करने वाले त्रिशूलधारी सदाशिव की जय हो। जय हो। हे नीलकंठ ! हे गंगा को धारण करनेवाले ! तुम्हारी जय हो ! जय हो ! देव ! आपने ताण्डव नृत्य से तीनों लोकों को मोहितकर लिया है। अहर्निशि कुद्धवेश में आप कपिलास में निवास करते हैं। हे पार्वती के स्वामी ! आप क्षण क्षण में ध्यानस्थ हो जाया करते हैं। मुझे आपके चरणों का भरोसा है इसी कारण से मेरी इच्छा और दृढ़ हो गई है शारला दास उन श्रीचरणों की शरण ग्रहण करता हैं अर्थात् उन श्रीचरणों की भक्ति को ही अपना शरण स्थल समझता है। मैं तो मूर्ख हूँ। मुझे शास्त्रों का भी ज्ञान नहीं है। मेरे पास ज्ञान ध्यान लय योग कुछ भी तो नहीं हैं। ग्रन्थ के रहस्योद्घाटन की शक्ति भी मुझमें कहाँ है ? मैं शारला माता का सदा-सदा का दास हूँ और उनकी ही आज्ञा से मैं शास्त्र का अभ्यासी बना हूँ। वह मुझे जैसी आज्ञा देती है मैं वह ही लिख देता हूँ। मैं तो अज्ञानी मूर्ख हूँ। मुझे शास्त्र का ज्ञान नहीं है। हे त्रिलोक के तारने वाले जगत के कारण श्री जगन्नाथ ! आपकी जय हो ! जय हो ! हे प्रभु ! आप अधर्मों का उद्धार करनेवाले तथा दीन जनों के बन्धु हैं। विपदाओं का नाश करने वाले कृपा के सागर है। (1-15)
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*कपिलास-उड़ीसा में ढेंकानाल जिले में कपिलास नाम के एक विशाल पर्वत पर नीलकंठ महादेव का सुरम्य मन्दिर है। जो सदाशिव का नित्य निवास माना जाता है। इसी का नाम कैलास भी है।
आपने शारंग धनुष गदा तथा असिपत्र अर्थात् चक्र को धारण कर रखा है। मैं मूर्ख तथा अज्ञानी सदैव आपकी शरण में हूँ। शास्त्र का वर्णन करना मेरी शक्ति का बाहर है। झंकड़वासिनी माँ शारला की कृपा से मेरी बुद्धि (रामागुण गाने को) अग्रसर हो गई है, जिनका ध्यान देवता, सिद्ध तथा मुनि झंकड़ आकर किया करते हैं। अपनी कृपा से मूर्ख को भी विद्वान बना देने वाली माँ सरस्वती ! अपने दास पर दया कर दीजिये। आपने छत्तीस रागिनियों द्वारा भगवान का मन मोहित कर लिया है। इसी कारण प्रभु आप पर प्रसन्न हो गये हैं। हे अम्ब ! आप जब मुझ जैसे अरक्षित (असहाय) जन पर दया कर देंगी तभी आपकी आज्ञा से मैं रामायण का गान करूँगा अर्थात् रामचरित्र कहने में समर्थ होऊँगा। श्रीहरि का नाम स्मरण करके मनुष्य संसार से छुटकारा पा जाता है। श्रीहरि का नाम ही एक मात्र संसार में सार वस्तु है। एक मात्र श्रीहरि के नाम का निरन्तर जाप करने से मनुष्य इस भवजाल से त्राण पा जाता हैष सांसारिक यातनाओं से छूट जाता है। (16-23)
शिव पार्वती का रामायण चरित विषयक कथोपकथन तथा रामचन्द्र का अयोध्या आगमन
इसके पश्चात् पार्वती ने दोनों हाथ जोड़कर त्रिशूल धारण करनेवाले शिवजी के
चरणों में प्रणाम किया। वह उनके बोली, हे जगत् के स्वामी ! मुझ पर प्रसन्न
होकर यह बिलंका रामायण मुझे समझाकर कहें। श्रीराम से सहस्रशिरा
का
वध किस प्रकार किया ? हे शूलपाणि ! यह वृत्तान्त आप मुझसे कहें। भगवान शिव
बोले, हे पार्वती ! तुम सुनो, रामयण ग्रंथ के सुनने से मुक्ति मिल जाती
है। यह रामायण ग्रंथ सामवेद से उत्पन्न हुआ है। हे हिमांचल कुमारी !
एकाग्र चित्त से श्रवण करो। यह रामायण का चरित्र अगोचर है। तन्मयता से
सुनकर भवसागर से पार हो जाओ। देवराज ने लंका में रामायण का वध किया मानव
रूप धारण करके देवकार्य सम्पन्न किया। जानकी का उद्धार, कराके, देवताओं को
त्राण दिलाकर प्रभु राघवेन्द्र अयोध्या की ओर लौट पड़े। कष्ट का समय पार
हो गया। वनवास भी समाप्त हो गया। दिनों के अनुसार चौदह वर्ष पुर्ण हो चुके
थे। मार्गशीर्ष महीने का शुक्ल पक्ष था। द्विज नामक नक्षत्र से युक्त
गुरुवार का दिन था। बालक कारणयुक्त आयुष्मान नामक योग था। उस दिन पंचमी
तिथि के सात दण्ड व्यतीत हो चुके थे । (1-11)
जानकी लक्ष्मण तथा हनुमान के साथ श्रीराम सरयू तट पर जा पहुँचे। लक्ष्मण की ओर ताकते हुए कौशल्यानन्दन बोले, ‘‘हे तात सौमित्र ! वनवास का समय तो व्यतीत हो चुका।’’ यह सुनकर लक्ष्मण ने खड़िया गणना की। धनु के इक्कीसवें दिन अयोध्या त्याग किया गया था। इस समयधनु के इक्कीस दिन पूर्ण हो चुके हैं। आज माध महीने का सातवाँ दिन है। हे देव ! अट्ठारह दिन अधिक पार हो गये हैं। हे श्रेष्ठ श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, हे भाई ! अयोध्या चलने में मेरा मन संकुचित हो रहा है। तुम अयोध्या या जाकर राजा से समाचार देकर वापस आ जाओ। मेरा सम्वाद लेकर माता से कहना, यदि राजा को स्नेह होगा तभी मैं अयोध्या जाऊँगा। लक्ष्मण न कहा, हे देव ! आप शान्त तथा शीलवान होकर दुष्ट पुरुषों जैसी दुर्बुद्धि की बातें कैसे कर रहे हैं ? हे रघुवीर आप अयोध्या के नायक स्वामी है, हम सभी आपके परिजन हैं। अन्य कुछ न सोंचकर अब शीघ्र ही अयोध्या चलकर माताओं के दर्शन करें। इस प्रकार वार्तालाप करते करते संध्या हो गई।
सन्ध्या तप्रणदि से निवृत्त होकर रघुनन्दन श्रीराम ने पितरों तथा देवताओं को जलदान किया। तभी हनुमान जी ने बहुत से फल मूल ला दिये। तदुपरान्त जानकी और लक्ष्मण ने जाकर शीघ्र ही स्नान किया। इसी समय श्रीराम ने फल-मूलादि चार भागों में विभक्त कर दिये। भोजन की समाप्ति पर श्रीराम ने आचमन किया तथा कोमल पल्लवासन पर सो गए। श्रीजानकी जी राघवेन्द्र की गोद में सो गई। पनवकुमार चरणों की ओर जाकर बैठ गए। हे पार्वती ! इसके पश्चात् अवध में जैसी दिव्य रीतियाँ हुई उसके विषय मे सुनो। महारानी कौशल्या दिन गिन रही थी। आज चौदह वर्ष पूर्ण हो चुके। उन्होंने रात्रि में सुमन्भ को बुलाकर कहा, हे मंत्रीवप ! मेरे पुत्र का वनवास समाप्त हो गया। शीघ्र ही सेना में जाकर उत्सव आयोजित करवा दो। नगर को सुसज्जित करके पैंठ लगवा दो। चौदह दिन और अधिक बीत गए हैं।
किस कारण से मेरा लाल वन से वापस नहीं आ रहा। इतना कहकर कौशल्या बड़े वेग से जाकर महर्षि वशिष्ठ के चरणों में नत हो गई। तब ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने उन्हें श्रीरामचन्द्र की प्राप्ति अर्थात् मिलन का आशीर्वाद प्रदान किया। कौशल्या ने कहा, हे तपोधन। चौदह वर्ष समाप्त हो चुके हैं। मेरा लाल और कितने दिनों में आएगा ? हे मुनिश्रेष्ठ आप विचार करके बतालाइए ऐसा सुनते ही ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी ध्यानस्थ हो गए। वे जान गए कि राघव पधार चुके हैं। उन्होंने कहा कि श्रीराम तथा लक्ष्मण आ चुके हैं और वह तीनों व्यक्ति सरयू तट पर विराजमान है। (12-31) सभी माताएँ अर्ध्य की थाली लेकर श्रीराम की अगवानी करने सरयू नदी के कूल तक चलें। महारानी कौशल्या यह सुनकर आतुर हो गई। उन्होंने स्नानादि नित्य कर्म सम्पन्न किये। पवित्र होकर शीघ्रता से अर्ध्य की थाली सजाई तथा ग्राम देवी की पूजा करके उनके निमित्त बलि प्रदान की। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर प्रमाण करते हुए कहा, हे देवि ! मेरा पुत्र आ जाय, मैं तुम्हें एक लाख बकरे प्रदान करूँगी। हे सर्वमंगला ! जब तुम हमारे ऊपर इतनी दयालु हो तो मेरा पुत्र आकर अयोध्या का राजा बने। इस प्रकार मनौती मानकर कौशल्या शिव पार्वती के निकट जा पहुँची। राम की माता हाथ जो़ड़कर उनकी स्तुति करती हुई बोलीं, हे प्रभु ! आप कृपा करें मेरा पुत्र राघव आ जाय। हे पार्वतीरमण प्रभु। हे स्वामी मुझे दया करके यही वर प्रदान करें कि मेरा पुत्र वापस आ जाय। इतना कहकर माता बाहर निकल पड़ी। उनके साथ अन्य सभी रानियाँ भी थी। कौशल्या के बचनों को सुनकर सीताजी की तीनों बहनें अर्ध्य थाली लेकर बाहर निकल आयीं। सम्पूर्ण अयोध्या में बात फैल गई। कोई कहने लगा कि राम आ गये हैं, चलो देखने चलें। कोई कह रहा था कि उन्हें लाने के लिए माताएँ जा रही हैं।
ऐसा कहकर सभी उनके पीछे लग गए। घर-द्वार छोड़कर लोग पीछे-पीछे दौड़ने लगे। शत्रुघ्न को लेकर भरत जी चल पड़े। उनके साथ पात्र,मित्र, परिषद् तथा दण्ड छत्र चल रहे थे। वीर वाद्य, तूर्य निनाद से पृथ्वी कम्पित हो रही थी। श्रीराम आ गए, ऐसा कहकर ब्राह्मण जोतिषी भाट तथा चारण शीघ्रता से दौड़ पड़े। श्रीराम आ गये यह जानकर सम्पूर्ण अयोध्या नगरी में चहल मच जाने से झुण्ड उमड़ पड़े। भीड़ के कारण किसी को जाने के लिए मार्ग नहीं मिल रहा था। सभी धक्का-मुक्की करते हुए दौड़ रहे थे। निरंतर मागंलिक शब्द सुनाई पड़ रहे थे। अर्धरात्री के समय ही सब निकल पड़े एक प्रहर रात्रि शेष रहने तक सारा दल सरयू तट पर जा पहुँचा। श्री रघुनाथजी जानकीजी के साथ लेटे हुए वनवास के संस्मरण कह सुन रहे थे। जब उन्हें वहाँ वाद्य-नाद सुनाई पड़ा तो शय्या छोड़कर दोनों उठ खड़े हुए। राघवेन्द्र ने नदी से जल लेकर श्रीमुख प्रच्छालन किया तथा यह कैसा शोर है, इस पर विचार करने लगे। सुमित्रानन्दन शीघ्र ही धनुष लेकर उठे तथा उन्होंने सरयू तट पर दल बल की गहमा गहमी देखी। सुमित्रानन्दन ने बड़े ध्यान से अयोध्या के रथों, हाथी घोडों आदि से युक्त सेना को देखा। उन्होने श्रीराम से कहा, हे सीतानाथ ! आप सुनिए अवध की सेना लेकर भरत आ रहे हैं। (40-64)
जानकी लक्ष्मण तथा हनुमान के साथ श्रीराम सरयू तट पर जा पहुँचे। लक्ष्मण की ओर ताकते हुए कौशल्यानन्दन बोले, ‘‘हे तात सौमित्र ! वनवास का समय तो व्यतीत हो चुका।’’ यह सुनकर लक्ष्मण ने खड़िया गणना की। धनु के इक्कीसवें दिन अयोध्या त्याग किया गया था। इस समयधनु के इक्कीस दिन पूर्ण हो चुके हैं। आज माध महीने का सातवाँ दिन है। हे देव ! अट्ठारह दिन अधिक पार हो गये हैं। हे श्रेष्ठ श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, हे भाई ! अयोध्या चलने में मेरा मन संकुचित हो रहा है। तुम अयोध्या या जाकर राजा से समाचार देकर वापस आ जाओ। मेरा सम्वाद लेकर माता से कहना, यदि राजा को स्नेह होगा तभी मैं अयोध्या जाऊँगा। लक्ष्मण न कहा, हे देव ! आप शान्त तथा शीलवान होकर दुष्ट पुरुषों जैसी दुर्बुद्धि की बातें कैसे कर रहे हैं ? हे रघुवीर आप अयोध्या के नायक स्वामी है, हम सभी आपके परिजन हैं। अन्य कुछ न सोंचकर अब शीघ्र ही अयोध्या चलकर माताओं के दर्शन करें। इस प्रकार वार्तालाप करते करते संध्या हो गई।
सन्ध्या तप्रणदि से निवृत्त होकर रघुनन्दन श्रीराम ने पितरों तथा देवताओं को जलदान किया। तभी हनुमान जी ने बहुत से फल मूल ला दिये। तदुपरान्त जानकी और लक्ष्मण ने जाकर शीघ्र ही स्नान किया। इसी समय श्रीराम ने फल-मूलादि चार भागों में विभक्त कर दिये। भोजन की समाप्ति पर श्रीराम ने आचमन किया तथा कोमल पल्लवासन पर सो गए। श्रीजानकी जी राघवेन्द्र की गोद में सो गई। पनवकुमार चरणों की ओर जाकर बैठ गए। हे पार्वती ! इसके पश्चात् अवध में जैसी दिव्य रीतियाँ हुई उसके विषय मे सुनो। महारानी कौशल्या दिन गिन रही थी। आज चौदह वर्ष पूर्ण हो चुके। उन्होंने रात्रि में सुमन्भ को बुलाकर कहा, हे मंत्रीवप ! मेरे पुत्र का वनवास समाप्त हो गया। शीघ्र ही सेना में जाकर उत्सव आयोजित करवा दो। नगर को सुसज्जित करके पैंठ लगवा दो। चौदह दिन और अधिक बीत गए हैं।
किस कारण से मेरा लाल वन से वापस नहीं आ रहा। इतना कहकर कौशल्या बड़े वेग से जाकर महर्षि वशिष्ठ के चरणों में नत हो गई। तब ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने उन्हें श्रीरामचन्द्र की प्राप्ति अर्थात् मिलन का आशीर्वाद प्रदान किया। कौशल्या ने कहा, हे तपोधन। चौदह वर्ष समाप्त हो चुके हैं। मेरा लाल और कितने दिनों में आएगा ? हे मुनिश्रेष्ठ आप विचार करके बतालाइए ऐसा सुनते ही ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी ध्यानस्थ हो गए। वे जान गए कि राघव पधार चुके हैं। उन्होंने कहा कि श्रीराम तथा लक्ष्मण आ चुके हैं और वह तीनों व्यक्ति सरयू तट पर विराजमान है। (12-31) सभी माताएँ अर्ध्य की थाली लेकर श्रीराम की अगवानी करने सरयू नदी के कूल तक चलें। महारानी कौशल्या यह सुनकर आतुर हो गई। उन्होंने स्नानादि नित्य कर्म सम्पन्न किये। पवित्र होकर शीघ्रता से अर्ध्य की थाली सजाई तथा ग्राम देवी की पूजा करके उनके निमित्त बलि प्रदान की। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर प्रमाण करते हुए कहा, हे देवि ! मेरा पुत्र आ जाय, मैं तुम्हें एक लाख बकरे प्रदान करूँगी। हे सर्वमंगला ! जब तुम हमारे ऊपर इतनी दयालु हो तो मेरा पुत्र आकर अयोध्या का राजा बने। इस प्रकार मनौती मानकर कौशल्या शिव पार्वती के निकट जा पहुँची। राम की माता हाथ जो़ड़कर उनकी स्तुति करती हुई बोलीं, हे प्रभु ! आप कृपा करें मेरा पुत्र राघव आ जाय। हे पार्वतीरमण प्रभु। हे स्वामी मुझे दया करके यही वर प्रदान करें कि मेरा पुत्र वापस आ जाय। इतना कहकर माता बाहर निकल पड़ी। उनके साथ अन्य सभी रानियाँ भी थी। कौशल्या के बचनों को सुनकर सीताजी की तीनों बहनें अर्ध्य थाली लेकर बाहर निकल आयीं। सम्पूर्ण अयोध्या में बात फैल गई। कोई कहने लगा कि राम आ गये हैं, चलो देखने चलें। कोई कह रहा था कि उन्हें लाने के लिए माताएँ जा रही हैं।
ऐसा कहकर सभी उनके पीछे लग गए। घर-द्वार छोड़कर लोग पीछे-पीछे दौड़ने लगे। शत्रुघ्न को लेकर भरत जी चल पड़े। उनके साथ पात्र,मित्र, परिषद् तथा दण्ड छत्र चल रहे थे। वीर वाद्य, तूर्य निनाद से पृथ्वी कम्पित हो रही थी। श्रीराम आ गए, ऐसा कहकर ब्राह्मण जोतिषी भाट तथा चारण शीघ्रता से दौड़ पड़े। श्रीराम आ गये यह जानकर सम्पूर्ण अयोध्या नगरी में चहल मच जाने से झुण्ड उमड़ पड़े। भीड़ के कारण किसी को जाने के लिए मार्ग नहीं मिल रहा था। सभी धक्का-मुक्की करते हुए दौड़ रहे थे। निरंतर मागंलिक शब्द सुनाई पड़ रहे थे। अर्धरात्री के समय ही सब निकल पड़े एक प्रहर रात्रि शेष रहने तक सारा दल सरयू तट पर जा पहुँचा। श्री रघुनाथजी जानकीजी के साथ लेटे हुए वनवास के संस्मरण कह सुन रहे थे। जब उन्हें वहाँ वाद्य-नाद सुनाई पड़ा तो शय्या छोड़कर दोनों उठ खड़े हुए। राघवेन्द्र ने नदी से जल लेकर श्रीमुख प्रच्छालन किया तथा यह कैसा शोर है, इस पर विचार करने लगे। सुमित्रानन्दन शीघ्र ही धनुष लेकर उठे तथा उन्होंने सरयू तट पर दल बल की गहमा गहमी देखी। सुमित्रानन्दन ने बड़े ध्यान से अयोध्या के रथों, हाथी घोडों आदि से युक्त सेना को देखा। उन्होने श्रीराम से कहा, हे सीतानाथ ! आप सुनिए अवध की सेना लेकर भरत आ रहे हैं। (40-64)
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