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नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....


तृतीय-अंक

 

पहला दृश्य


(कुछ महीने बाद। सबेरे का समय अजित का ड्राइंग-रूम नए ढंग से सजा हुआ है, कुर्सियों की संख्या अधिक है। नए ग़िलाफ़, पर्दे आदि लगे हुए हैं। भीतर से जीजी का प्रवेश। नम्बर मिलाकर फ़ोन करती हैं।)

जीजी: हलोऽ-कौन रग्घू? साहब हैं? ज़रा उन्हें बुला देना। (एक क्षण की चुप्पी के बाद) हाँऽ मैं जीजी बोल रही हूँ जयन्त। बोलो, तुमने क्या तय किया!-क्या कहा, मुश्किल है आना। ठीक है, तो मैं फिर दावत ही रोके देती हूँ।...नाराज़ मैं क्या हो रही हूँ, नाराज़ तो तुम हो।...देखो, जयन्त, यह घर अजित का ही नहीं, शोभा का और मेरा भी है। शोभा कल शाम को तुम्हें बुलाने गई। कहो तो आज मैं आ जाऊँ। शोभा की नौकरी पक्की होने की दावत तुम्हारे बिना हो नहीं सकती।-तुम आओ तो सही, न हो जाए अजित शर्म से पानी-पानी तो कहना। तुम्हें मेरे सिर की क़सम है जयन्त, आज तुम नहीं आए तो समझ लूँगी कि जीजी और शोभा तुम्हारे लिए मर गईं।-हाँ-हाँ, तुम थोड़ी-सी देर के लिए ही आना, पर आना ज़रूर। तुम्हें मेरे सिर की क़सम है-जीजी की बात नहीं टालते। तो आ रहे हो न? अच्छा।

(टेलीफ़ोन रखती हैं। शोभा का प्रवेश, उसने अन्तिम बात सुन ली है।)

शोभा : किसे बुला रही हैं, जयन्त को?

जीजी : हाँ, वह मान गया है, थोड़ी देर को आएगा ज़रूर।

शोभा : क्यों बुलाया आपने उसे? मैं कल शाम को जयन्त को बुलाने गई इस बात पर क्या-क्या सुनाया है इन्होंने, जानती हैं आप? मैं अभी फ़ोन कर देती हूँ कि कोई जरूरत नहीं है आने की।

(फ़ोन की ओर बढ़ती है। जीजी बीच में ही रोक लेती हैं।)

जीजी : शोभा, पागलपन मत करो। तुम सारी बात मुझ पर छोड़ दो। मैं चाहती हूँ आज की यह दावत केवल तुम्हारी नौकरी पक्की होने की ही नहीं, अजित और जयन्त की सुलह की भी हो।

शोभा : ये और सुलह! जिसका दिल ईर्ष्या और सन्देह की आग से जल रहा हो वह क्या दोस्ती करेगा, और क्या दोस्ती निभाएगा!

जीजी : मैं जानती हूँ शोभा, तुम अजित के प्रति बहुत कटु हो उठी हो। पर यह तो सोचो कि बेकारी के इन तीन महीनों में वह किस भीषण यातना से गुज़रा है। अब उसका नियुक्ति-पत्र आ गया। अब धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। कल जब मैंने दावत की बात कही तो खुशी-खुशी राजी हो गया या नहीं!

शोभा : और शाम को ही फिर दिमाग़ खराब हो गया।

जीजी : सारी चीज़ पहले जैसी स्थिति में आए, इसमें समय तो लगेगा ही-पर अब तुम भी अपना रवैया बदलो। तीन महीने से तुमने भी तो अजित को काट ही रखा है एक तरह से।

शोभा : मैंने? या उन्होंने मुझे काट रखा है?

जीजी : समझ में नहीं आता किसे दोष दूँ? लगता है जैसे कोई बुरे ग्रह तुम लोगों पर आए हए थे। लेकिन अब वे टल गए। देख लेना अजित की यह नौकरी तुम्हारे लिए नई जिन्दगी लाएगी?

शोभा : नई जिन्दगी? मैं तो अब रात-दिन नई ज़िन्दगी की ही कामना करती हूँ-इस ज़िन्दगी-

(नौकर का प्रवेश)

नौकर : बीबीजी, चलकर दाल देख लीजिए।

जीजी : चलो, मैं चलती हूँ। (शोभा से) मिठाई और कोका-कोला का काम तुम करती आओ। सोच रही थी चार-छह जनों को और बुला ही लेती। क्या फ़रक पड़ता है, जहाँ आठ वहाँ बारह।

शोभा : छोडिए जीजी! सच पूछे तो मेरा तो आठ का भी मन नहीं था। ऐसी स्थिति में किसे अच्छा लगता है दावत करना? अब तो आप यही देख लीजिए कि आनेवालों में से किसी का अपमान न हो।

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