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नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....


(जीजी का प्रवेश। सबको नमस्कार करती हैं।)

चौधरी : जीजी, लगता है आपके घर तो खुशी जैसे छप्पर फाड़कर आई है। अकेले-अकेले सारी चीजें पचाने की कोशिश मत कीजिए, बदहज़मी हो जाएगी!

जीजी : (हँसते हुए) अकेले क्यों?-खुशी क्या अकेले मनाने की चीज़ है?

(नौकर कोल्ड ड्रिंक आदि लेकर आता है। अजित और शोभा देते हैं। जीजी फिर भीतर चली जाती हैं।)

शुक्ला : मुझे तो अजित, भरोसा ही नहीं हो रहा कि तुम्हें नियुक्ति-पत्र मिल गया!
अजित : दिखाऊँ क्या? (उठकर मेज़ की ओर बढ़ता है।)

चौधरी : (बीच में ही रोकते हए) ठीक है...ठीक है यार, मान लिया कि इस बार तुम्हारा तुक्का चल ही गया और सो भी बड़ी ऊँची जगह पर।

श्रीमती चौधरी : कुछ भी कहो, मैं तो कहूँगी कि असली तुक्का तो शोभाजी ने मारा है। नौ महीने में ही नौकरी पक्की करवा ली...बड़ी तक़दीर वाली..

चौधरी : (बात बीच में ही काटकर) नहीं-नहीं-नहीं...नौ महीने की बात नहीं करते औरत के सिलसिले में, वरना सब कुछ गड़बड़ हो जाता है।

श्रीमती चौधरी : (फटकारते हुए) इनका दिमाग़ तो बस एक ही दिशा में चलता है। (सब लोग ठहाका लगाते हैं, केवल शोभा चुप है। अजित का चेहरा तन जाता है।)

चावला : अरे छोड़ो यह सब। अच्छा अजित, तुम तो यह बताओ कि किसके प्रेशर के आगे घटने टेके बर्मा-शैल वालों ने? हवा में तो इधर किसी और का ही नाम उछल रहा था...कोई भारी वेट वाला मामला होगा।

शोभा : प्रेशर? किससे डलवाते प्रेशर और कौन डालता प्रेशर? घुटने टेके हैं तो इनकी योग्यता और इनके इतने सालों के तजुर्बे के आगे। (स्वर में थोड़ी तल्खी आ जाती है।)

चावला : अरे, आप तो ख्वामख्वाह नाराज़ होने लगीं। आज जब सारी दुनिया प्रेशर के बूते पर ही चल रही है तो सोचा...

शोभा : (बात काटकर) हाँऽऽ, जहाँ योग्यता नहीं, वहाँ तो प्रेशर डलवाना ही पड़ता है।

चावला : (शोभा के स्वर की तल्खी को अनदेखा करके हँसते हुए) अब आप तो ऐसा मत कहिए शोभाजी...आपने तो खुद बताया था कि जयन्त के कहने से आपको यह प्रिंसिपलशिप मिली।

शोभा : (रुखाई से) मिलने से क्या होता है? बाद में तो मैंने अपनी योग्यता से...

चावला : (बात बीच में ही काटकर) यही तो मैं भी कह रहा हूँ। योग्यता सिद्ध करने का मौक़ा तो नौकरी मिलने के बाद ही मिलता है...नौकरी पाने के लिए तो किसी दूसरी ही तरह के वज़न की ज़रूरत होती है आजकल। (कन्धे उचकाकर) आप लोग नहीं बताना चाहते हों तो मत बताइए...मैंने तो अपना समझकर वैसे ही पूछ लिया था।

शुक्ला : छोड़ो अजित को...पर शोभाजी की योग्यता की दाद तो मैं डंके की चोट पर देता हूँ। नौकरी मिलने के छह महीने बाद से ही उल्लू के पठ्ठे उस साहनी को किस कौशल से उँगलियों पर नचाने लगी हैं आप कि कम्बख्न भूल ही गया कि कन्फर्मेशन साल भर बाद होता है...नौ महीने में ही कर बैठा। भई वाह!

चौधरी : (वातावरण में आए हल्के से तनाव को देखकर प्रसंग बदलते हुए) अरे भाड़ में गया साहनी और भाड़ में गया तुम्हारा वेट। हम तो जश्न मनाने आए हैं सो जमकर जश्न मनाएँगे। दो-दो खुशियों के मौके और ये स्साले शुक्ला और चावला बाल की खाल निकालने में लगे हैं।

श्रीमती चौधरी : (उठकर शोभा के पास जाती हैं और उसके कन्धे पर हाथ रखकर ठुनकते हुए) शोभा, मुझे तो खुशी के साथ-साथ ईर्ष्या भी हो रही है।

चौधरी : खाली बैठे-बैठे ईर्ष्या करने से क्या होता है? तुम भी कुछ करो न (सबकी ओर उन्मुख होकर) इन्होंने तो ज़िन्दगी में बस एक ही काम सीखा है-ग़रीब चौधरी पर हुकूमत करना...सो उसे बखूबी करती हैं। हो सकता है इसके लिए इन्हें कभी पद्मश्री भी मिल जाए।

(सब हँसते हैं।)

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