नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
जीजी : (आश्चर्य से) अजित! तुम्हें क्या कुछ भी याद नहीं रहता? शोभा का आज गाने
का कार्यक्रम था कि नहीं, तुम तो आए नहीं, कितना नाराज़ होकर गई है वह!
अजित : ओ गॉड! मैं तो बिलकुल ही भूल गया। (एकदम घड़ी की ओर देखकर) अब तो
कार्यक्रम ख़त्म होनेवाला होगा। त्-त्..
जीजी : तुम आखिर गए किधर थे? चार बार तो उसने फ़ोन किया होगा!
अजित : (अजित सिर पकड़ लेता है) क्या बताऊँ जीजी? मैं तो बिलकुल भूल ही गया।
जैसे ही दफ़्तर पहुँचा जनरल मैनेजर का फ़ोन मिला कि जर्मन कम्पनी के डाइरेक्टर
से मिल लूँ। लंच उन्हीं के साथ लूँ और सारी बातचीत भी कर लूँ। उन लोगों के साथ
मिलकर हमारी कम्पनी एक नई मिल बिठाना चाह रही है, उसी सिलसिले में। बिना किसी
तैयारी के बातचीत करना-मैं तो एकदम ही घबरा गया। काग़ज़-कूगज बटोरने में ऐसा
लगा कि बाकी बातें दिमाग़ से एकदम साफ हो गईं। लंच के बाद से उन लोगों के साथ
ही था। बस वहीं से आ रहा हूँ।
जीजी : कम-से-कम तुम फ़ोन ही कर देते और यह सब उसे समझा देते तो इतनी नाराज़ तो
नहीं होती। न इतनी ऊटपटाँग बातें ही सोचती। तुम जानते ही हो कि आजकल-
अजित : (जरा चौंककर) आजकल-आजकल क्या?
जीजी : (स्नेहपूर्ण स्वर में) तुम्हें थोड़ी समझदारी से काम लेना चाहिए अजित!
थोड़ा शोभा की भावनाओं का ख़याल रखना चाहिए, वरना फिर उसके दिमाग़ में-
अजित : क्या बात है जीजी, क्या कहा शोभा ने?
जीजी : ऐसी कोई ख़ास बात नहीं, पर एक बात उसके दिमाग़ में घर करती जा रही है कि
तुम्हें उसका घूमना-फिरना, पढ़ाना, गाना यह सब पसन्द नहीं है। और तुम इस सब में
किसी न किसी बहाने से रुकावट डालते हो।
अजित : (एकदम हल्का होकर हँस पड़ता है) अरे जीजी, शोभा तो पगली है। फिर हर बात
में मुझसे लड़ना तो उसने अपना स्वभाव बना लिया है। मैं उससे यह भी कहूँ कि आज
हवा बहुत ठंडी है तो वह छूटते ही कहेगी 'मैं जानती हैं कि आपको मेरा काम करना
पसन्द नहीं है।' यह सब मैंने ही तो उसे सिखाया है, वरना बरेली की दसवीं पास
लड़की-साड़ी पहनना तो आता नहीं था उसे। मुझे पसन्द न होता तो मैं पढ़ाता-लिखाता
ही क्यों? शोभा को मैं खूब अच्छी तरह जानता हूँ, खूब अच्छी तरह। अरे, वह है ही
'अजित मेड'। अपनी बनाई चीज़ को भी नहीं पहचानूँगा भला।
जीजी : बस यहीं तुम भूल करते हो अजित। कभी वह ज़रूर बरेली की दसवीं पास लड़की
थी, जिसे साड़ी बाँधना नहीं आता था। पर आज तो नहीं है। आज उसका अपना अलग
व्यक्तित्व है। उसमें प्रतिभा है, और इस बात को अब वह भी खूब अच्छी तरह जानती
है!
अजित : तो उससे क्या हुआ?
जीजी : हुआ ख़ाक! तुम्हारा उसके प्रति आज भी वही व्यवहार है जो दस साल पहले
था-पर अब वह चलेगा नहीं।
अजित : कैसी बातें करती हैं जीजी आप भी! व्यवहार तो मेरा वही रहेगा, चाहे वह
मास्टरनी हो जाए, चाहे लाट साहब! आप क्या चाहती हैं मैं सबेरे-शाम उसकी आरती
उतारा करूँ?
जीजी : अब जब तुम कुछ समझना ही नहीं चाहते हो तो बात करना ही बेकार है।
अजित : क्या समझाना चाहती हैं आप, समझाइए न?
जीजी : देखो अजित, पढ़ी-लिखी मैं चाहे बहुत नहीं हूँ, पर उम्र में तुमसे दस साल
बड़ी हूँ। दुनिया देखी है...और आदमी परखने की नज़र भी मेरी तुमसे कहीं ज्यादा
है।
अजित : (खीझकर) आप कुछ बताएँगी भी या बस उपदेश ही झाड़े जाएँगी। मैं कब कहता
हूँ कि आप बड़ी नहीं हैं!
जीजी : (कुछ सोचते हुए) बता सकते हो-तुम्हारी और पिताजी की हमेशा लड़ाई क्यों
रही?
अजित : बहुत साफ़ बात है। वे चाहते थे मैं उनकी दुकान का काम सम्हालूँ, क्योंकि
नौकरी करना उन्हें ऐसा लगता था जैसे कुलीगिरी करना हो। अब आप ही बताइए, एम.ए.,
एल.एल.बी. करके मैं कपड़े की दुकान सम्हालता? ऐसा ही था तो पढ़ाते नहीं, शुरू
से दुकान ही करवाते।
जीजी : यही बात मैं भी कभी उन्हें समझाया करती थी तो वे कहते थे, “कृष्णा, आखिर
मैंने ही तो उसे पढ़ाया-लिखाया है, और अब वह मेरी ही बात नहीं मानता।"
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