नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
शोभा : कुछ नहीं जीजी, यों ही।
जीजी : मुझे इस लायक नहीं समझती हो कि अपनी बात बता सको, तो ज़बर्दस्ती
नहीं करूँगी, पर घर में रहती हूँ तो सारी स्थिति में भी समझती हूँ।
शोभा : (एकदम फूट पड़ती है) जीजी, आपको मैं माँ की तरह समझती हूँ, और आपसे
माँ-सा स्नेह पाया है। आप बताइए न, इन्हें क्या होता जा रहा है? जब देखो तब
नाराज़, जब देखो तब ताने मारना, उल्टी-सीधी बातें करना। मैं ऐसा कौन-सा जुर्म
कर रही हूँ, या पाप कर रही हूँ, जो ये इस तरह-
जीजी : (प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हए) शोभा, इस तरह रोते नहीं बच्ची।
(थोड़ा ठहरकर) देखो, पाप या जुर्म तो तुम कुछ भी नहीं कर रहीं, कोई नहीं कहता
कि तुम जुर्म कर रही हो-पर हाँ, कहीं कुछ ग़लत ज़रूर हो रहा है।
शोभा : (आवेश में) मुझे कोई बताता क्यों नहीं कि क्या ग़लत हो रहा है? घर की
सारी व्यवस्था ठीक चल रही है, सबका काम ठीक समय पर हो जाता है। कभी कोई ज़रा-सी
कसर रह भी जाए तो उसी को लेकर तूफ़ान मचाया जाता है?
जीजी : घर की व्यवस्था और काम समय पर न होना इतनी छोटी बातें हैं शोभा, कि इनसे
सम्बन्ध नहीं बिगड़ सकते। कभी नहीं बिगड़ सकते। बात इससे ज़्यादा बड़ी और गहरी
है।
शोभा : क्या है वह बड़ी और गहरी बात, मैं भी तो जानूँ आख़िर?
जीजी : (कुछ सोचकर) जानती हो शोभा, अजित तुम्हें बहुत प्यार करता है, बहुत
ज्यादा। (शोभा प्रश्नवाचक दृष्टि से देखती रहती है) पहले उसे लगता था तुम उसकी
हो, केवल उसकी। अब जैसे-जैसे तुम अपनी बाहरी जिम्मेदारियाँ बढ़ाती जा रही हो
उसे लगता है तुम इस घर से, उससे दूर होती जा रही हो। वह तुम्हें फिर से पहले की
तरह ही पाना चाहता है।
(शोभा बड़े ध्यान से सुनती रहती है।)
शोभा : पर जीजी, ऐसा तो हमेशा होता ही रहता है। (फिर कुछ ठहरकर) शादी के तुरन्त
बाद लगता है जैसे हर समय साथ बैठे रहो, पाँच मिनट का अलगाव भी बुरा लगता है।
फिर बच्चे आते हैं तो माँ के सारे ध्यान और प्यार का केन्द्र बन जाते हैं।
पति-पत्नी की यह दूरी तो बढ़ती ही जाती है। पर यह बाहरी दूरी, बाहरी अलगाव तो
उनके भीतरी सम्बन्धों को और मजबूत बनाता है। नहीं होता ऐसा?
जीजी: होता है, पर तभी तक जब तक पत्नी का केन्द्र घर और बच्चे ही रहें।
शोभा : तब आप ही बताइए जीजी, मैं क्या करूँ? काम छोड़ दूँ? अपने को घर और
बच्चों में ही सीमित कर लूँ?
जीजी : इस तरह आवेश में आकर कुछ भी करना ग़लत होगा। और देखो, बुरा न मानो तो एक
बात और कहूँ।
(शोभा प्रश्नवाचक दृष्टि से उन्हें देखती है।)
जीजी : जयन्त को अपने इस मामले से दूर ही रखो तो ज्यादा अच्छा होगा।
शोभा : क्यों? क्या बात है?
जीजी : यह तुम्हारा एकदम व्यक्तिगत मामला है, दूसरों के बीच में आने से कभी-कभी
बात सँभलने के बजाय और बिगड़ जाती है, इसलिए।
शोभा : पर जयन्त तो शुरू से ही इस घर में घर के सदस्य की तरह ही समझा जाता रहा
है।
जीजी : कभी-कभी घर के सब सदस्यों को भी सारी बातें नहीं बताई जाती-व्यर्थ ही
ग़लतफ़हमी हो जाया करती है। (प्रसंग बदलकर) अच्छा चलो, उठकर मुँह धोओ। अप्पी
आनेवाली होगी, कम-से-कम उस पर तो इन सारी बातों का प्रभाव न पड़े। (शोभा ज्यों
की त्यों बैठी रहती है। जीजी उसकी पीठ थपथपाती है।) चलो चलो, उठो अब।
(दोनों भीतर चली जाती हैं। धीरे-धीरे पूर्ण अन्धकार हो जाता है।)
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