लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

Like this Hindi book 19 पाठकों को प्रिय

180 पाठक हैं

स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....


बंसी : हमारी लियाक़त देख लीजिए और आप ही तय कर दीजिए साब। हम क्या बोलेंगे भला? 

अजित : बात यह है कि यह भी पहले से ही तय हो जाए तो अच्छा है। वो तुम्हारी लियाक़त का थोड़ा सबूत तो मिल ही गया।

बंसी : तो फिर हम भी साफ़ बात ही करेंगे साब! बाजार आप किससे करवाएँगे?

शोभा : बाज़ार? क्या मतलब?

बंसी : (ज़रा सकुचाते हुए) मतलब यही है कि अगर बाजार का सौदा-सुल्फ हम ही करेंगे तो 30) लेंगे, वरना 40) महीना।

अजित : तो तरकारी-भाजी में आप दस रुपया मारेंगे, क्यों? हो दोस्त, बड़े ईमानदार!

बंसी : अरे साब! दस रुपए के लिए बेईमानी करके कौन अपना लोक-परलोक बिगाड़े! नौकर हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि हमारा कोई ईमान ही नहीं। ये तो भाग से नौकरी करनी पड़ रही है, नहीं तो हम भी जात के अग्गरवाल बनिए हैं।

अजित : वाह, क्या बात है! तुम नौकर कैसे हो सकते हो भला?

(एकदम खड़े होकर) आओ-आओ, कुरसी पर तशरीफ़ रखो।

बंसी : साब, मज़ाक तो करिए मत।

अजित : अच्छा जी, आप फ़िलहाल तो तशरीफ़ ले जा सकते हैं, ज़रूरत पड़ने पर हम बुलवा लेंगे। (बंसी नमस्ते करके चला जाता है।) ये नौकरी करने आए हैं या लाटसाहबी?

जीजी : मैं तो कहती हूँ अब नौकरों का यही हाल होनेवाला है। नौकरों के पीछे भागने के बजाय हाथ से काम करना सीखो!

अजित : मैं तो खुद यही कहता हूँ शोभा से। (शोभा उसे घूरती है।)

जीजी : तुम यह कहते हो अजित! शोभा तो फिर भी करती ही है बेचारी। तुम घर का कौन-सा काम करते हो?

अजित : मैं-मैं-बहुत काम करता हूँ। यह घर ठीक से चलता रहे इसलिए नौकरी करता हूँ।

जीजी : अब केवल नौकरी करने से घर नहीं चलता, समझे। वे जमाने गए अजित, जब आदमी ने नौकरी कर ली और औरत ने घर का सारा काम कर लिया। अब जब औरत भी नौकरी करने लगी है तो मर्द को भी घर के काम में हाथ बँटाना पड़ेगा, समझे?

अजित : कौन कहता है औरत से कि नौकरी करे? छोड़ दे नौकरी। अब उसकी नौकरी के पीछे यह तो होगा नहीं कि पति, बच्चे, घर सब बेचारे मारे-मारे फिरें।

शोभा : क्यों, बीच में और कोई रास्ता ही नहीं है जैसे? विदेशों में इतनी औरतें काम करती हैं, वहाँ क्या सब मारे-मारे ही फिरते हैं।

अजित : ओफ़्फ़ोह! विदेश की बात तुम अपने देश में तो किया मत करो।

शोभा : क्योंकि वह तुम्हें माफ़िक नहीं आती, इसलिए न?

अजित : अब तुम घंटा भर बैठकर क़ानून बघारोगी (घड़ी देखते हुए) मैं तो चला। ग्यारह बज रहा है, ऑफ़िस भी तो पहुँचना है (जाते हुए) अच्छा टा-टा-। (प्रस्थान)

जीजी : शोभा, जितना भी होगा तुमको ही अपने को ढालना होगा। यह अजित तो न आज सुधरेगा, न कल । खुद तो खुद, अप्पी तक को उसने इतना बिगाड़ रखा है कि बस। (जीजी भीतर चली जाती हैं। शोभा यों ही अनमनी-सी अलमारी पर रखे अप्पी के खिलौने को हिलाने-डुलाने लगती है। जयन्त का प्रवेश।)

जयन्त : यह क्या, अप्पी स्कूल जाती है तो तुम उसके खिलौनों से खेलती हो?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book