विभिन्न रामायण एवं गीता >> बिचित्र रामायण बिचित्र रामायणयोगेश्वर त्रिपाठी
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राम कथा पर आधारित पुस्तक का वर्णन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
विश्व की विभिन्न भाषाओं के वाङ्मगमय मानव जाति के कल्याण की महान भावना
से ओत प्रोत है। सत्-साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य से भुवन
वाणी ट्रस्ट, एक ‘भाषाई-सेतुकरण’ के अंतर्गत उपयोगी
ग्रन्थों
के लिप्यंतरण कर उन्हें यदि हिन्दी में प्रकाशित करने की दिशा में सतत्
प्रयत्नशील है।
विभिन्न भारतीय भाषाओं में ओड़िआ का रचना-संसार विशेष रूप से आकर्षण रहा है। ओड़िआ-साहित्य के चुने हुए ग्रन्थों को लिप्यंतरित कर उन्हें हिन्दी-भाषियों को सुलभ कराने का हमारा प्रयास निरन्तर जारी है। ओड़िआ में विरचित ‘बिलंका रामायण’ व ‘विचित्र रामायण’ उडीसा में अत्यन्त लोकप्रिय हैं और उनका प्राय: मंचन भी होता रहता है। इन दोनों के ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद हम पहले ही मूल-पाठ सहित प्रकाशित कर चुके हैं।
अब हम ‘बिलंका रामायण’ व ‘विचित्र रामायण’ को, अधिकाधिक हिन्दी पाठकों के लिए सहज-सुलभ बनाने के उद्देश्य से इन ग्रन्थों के केवल गद्यानुवाद देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर रहे हैं, जो हिन्दी भाषियों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होंगे, ऐसा हमारा विश्वास है। केवल गद्यानुवाद के कारण पृष्ठ संख्या घट जायगी, जिससे यह ग्रन्थ सुधी पाठकों को अपेक्षाकृत कम मूल्य पर उपलब्ध होंगे। प्रायोगिक रूप से इसका प्रकाशन निजी स्तर पर लखनऊ किताबघर से किया जा रहा है ताकि यह पाठकों के लिए सहज सुलभ हो सके और हम विभिन्न भाषाओं के सत्-साहित्य के हिन्दी अनुवाद का कार्य जारी रख सकें।
हम लिप्यंतरणकार एवं अनुवादक श्री योगेश्वर त्रिपाठी ‘योगी’ के प्रति विशेष रूप से आभारी हैं, जिन्होंने अथक परिश्रम कर इन ओड़िआ-ग्रन्थों को देवनागरी में लिपिबद्ध किया है।
विभिन्न भारतीय भाषाओं में ओड़िआ का रचना-संसार विशेष रूप से आकर्षण रहा है। ओड़िआ-साहित्य के चुने हुए ग्रन्थों को लिप्यंतरित कर उन्हें हिन्दी-भाषियों को सुलभ कराने का हमारा प्रयास निरन्तर जारी है। ओड़िआ में विरचित ‘बिलंका रामायण’ व ‘विचित्र रामायण’ उडीसा में अत्यन्त लोकप्रिय हैं और उनका प्राय: मंचन भी होता रहता है। इन दोनों के ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद हम पहले ही मूल-पाठ सहित प्रकाशित कर चुके हैं।
अब हम ‘बिलंका रामायण’ व ‘विचित्र रामायण’ को, अधिकाधिक हिन्दी पाठकों के लिए सहज-सुलभ बनाने के उद्देश्य से इन ग्रन्थों के केवल गद्यानुवाद देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर रहे हैं, जो हिन्दी भाषियों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होंगे, ऐसा हमारा विश्वास है। केवल गद्यानुवाद के कारण पृष्ठ संख्या घट जायगी, जिससे यह ग्रन्थ सुधी पाठकों को अपेक्षाकृत कम मूल्य पर उपलब्ध होंगे। प्रायोगिक रूप से इसका प्रकाशन निजी स्तर पर लखनऊ किताबघर से किया जा रहा है ताकि यह पाठकों के लिए सहज सुलभ हो सके और हम विभिन्न भाषाओं के सत्-साहित्य के हिन्दी अनुवाद का कार्य जारी रख सकें।
हम लिप्यंतरणकार एवं अनुवादक श्री योगेश्वर त्रिपाठी ‘योगी’ के प्रति विशेष रूप से आभारी हैं, जिन्होंने अथक परिश्रम कर इन ओड़िआ-ग्रन्थों को देवनागरी में लिपिबद्ध किया है।
विश्ववाङ्गमय से नि:सृत अगणित भाषाई धारा।
पहन नागरी-पट सबने अब भूतल-भ्रमण विचारा।।
अमर भारती सलिलमञ्जु की ‘ओड़िआ’ पावन धारा।
पहन नागरी पट ‘सुदेवि’ ने भूतल-भ्रमण विचारा।।
पहन नागरी-पट सबने अब भूतल-भ्रमण विचारा।।
अमर भारती सलिलमञ्जु की ‘ओड़िआ’ पावन धारा।
पहन नागरी पट ‘सुदेवि’ ने भूतल-भ्रमण विचारा।।
विनय कुमार अवस्थी
अनुवादकीय
दार्शनिकों ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि मनुष्य से आदर्श की
अपेक्षा की जाती है, परन्तु वह मानव-आदर्श ऐसा होना चाहिए जो लोकेतर
अलौकिक भावनाओं से ओतप्रोत न होकर सर्वथा लोकप्रकृति के अनुकूल हो। उसका
सीधा संबंध हमारे दैनिक जीवन से तालमेल खाता हो। उन्हीं परिस्थितियों के
बीच पलकर अपने जीवन-चरित्र की विशेषताओं तथा आदर्शों के सहारे अपने को ऊपर
उठाकर लोकलोचनों में आ जाता है, वह ही लोक लिए आदर्श पुरुष का स्थान
प्राप्त करता है। वह कल्पना-जगत का आदर्श नहीं रह जाता, अपितु व्यवहार जगत
का आदर्श बन जाता है।
हमें संस्कारों में उसकी जड़ें बहुत गहराई तक जाती हैं। जीवन की पूर्णता के साथ-साथ आदर्शों का रूपायन भी विकास-क्रम के अनुसार ही होता है। संस्कृति ही राष्ट्रीयता का मेरुदण्ड है, जो देश के भूगोल से नियंत्रित होती है। तुलसी के शब्दों में- ‘‘नीति प्रीति परमारथ स्वारथ। कोउ न राम सम जान जथारथ’’ वाले श्रीराम के चरित्र ने भारतीय मनीषियों को भी प्रभावित किया है। उसी के फलस्वरूप अलौकिक पक्षों को लोकप्रवृत्ति के अनुरूप ढालने के प्रयास चिरकाल से किये जा रहे हैं। अपनी इन्हीं आदर्शों की चरम सीमा की सफलताओं के कारण श्रीराम ईश्वर कोटि से पुरुषोत्तम कोटि के रूप में लोक के समक्ष आते हैं।
श्रीराम का चरित्र लोकमंगल-भावनाओं से ओतप्रोत है। उस दिव्य चरित्र का अनुगायन भारत की निधि बना। देश के कोने-कोने में विभिन्न प्रान्तों के विचारकों, सन्तों, तथा साहित्यकारों ने अपनी मातृभाषाओं में इस उदार चरित्र को चुना। उन्होंने अपनी बुद्धि के अनुसार श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया।
जगन्नाथ की पावन भूमि उड़ीसा में भी सन्तों द्वारा विविध रामायणों की रचना हुई। कविसम्राट् उपेन्द्र भंज ने ‘‘बैदेहीश-विळाप’’ की रचना की। बलरामदास जी की जगमोहन रामायण, श्री शारलादास जी की बिलंका रामायण आदि विभिन्न राम-चरित्र के पावन ग्रन्थ समाज को प्राप्त हुए। श्री विश्वनाथ खुँटिया ने अनेकानेक राग-रागनियों के पदों की संयोजना करके बिचित्र रामायण की रचना की। उड़ीसा में इस ग्रन्थ के गेय पद बहुधा रामलीला के मंचों पर सुने जाते हैं। दासकाठिआ और पाल्हा गायन में भी इसके प्रयोग अधिकता में पाये जाते हैं। ग्राम्य अंचलों से लेकर संगीताचार्य भी इन्हें गाते सुने जाते हैं। पद भावपूर्ण रसमय लालित्य से ओतप्रोत है। आधार, मूलभूत वाल्मीकीय रामायण ही है। सारे कथानक संक्षिप्त रूप से पदों में पिरो दिए गए हैं।
उड़ीसा में भक्ति-साहित्य का अतुल भण्डार ताड़ की पेशियों से भरा पड़ा है जो काल-क्रमानुसार कीटदंश का शिकार होकर या जराजीर्ण होकर विलुप्त होता जा रहा है। फलस्वरूप रामायण-रचनाकारों में प्रमुख स्थान के अधिकारी श्री विश्वनाथ खुँटिया का कोई प्रामाणिक जीवन-परिचय संबधी आलेख उपलब्ध नहीं है। कुछ अनुमान, कुछ किंवदंती तथा कुछ अंत:साक्ष्य के बल पर दो-चार बातें कही जाती रही हैं।
बिचित्र रामायण में स्थान-स्थान पर पदों में ‘बिशि’ नाम का संबोधन मिलता है। ऐसा अनुमान है कि यह विश्वनाथ का ही अपभ्रंश रूप है। ये अठारहवीं शताब्दी में महाराज दिव्यसिंह देव (खुर्धा रियासत के राजा) के शासनकाल में पुरी में रहा करते थे। उनके नाम के आगे खुँटिया शब्द लगा है। मुख्यत: खुँटिया श्री जगन्नाथ जी के सेवक थे बल्कि रथयात्रा के समय स्वयं उपस्थित रहते थे।
सामान्य तौर पर ओड़िआ भाषा में रचे गये महाकाव्य अथवा पुराण एक ही द्वन्द्व में रचे जाते थे। जगन्नाथ, शारलादास, बलरामदास आदि प्राय: सभी ने इसी नीति का पालन किया है। परन्तु विश्वनाथ खुँटिया ने रामायण-रचना के समय इस नियम का पालन नहीं किया। उन्होंने विभिन्न प्रकार की राग-रागिनी, ताल तथा छन्द आदि का प्रयोग करके ग्रन्थ में वैचित्र्य का समायोजन किया गया है। इसी आधार पर इस ग्रन्थ का नामकरण ‘‘बिचित्र रामायण’’ किया गया। आपके इस रामकथा-परक काव्य में 289 छन्द (अनुच्छेद) हैं। इनमें 52 छन्द अन्याय कवियों के भी मिलते हैं, जो संकलित किये गये हैं।
यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि शुद्ध, संशोधित एवं वैज्ञानिक पद्धति पर सम्पादित बिचित्र रामायण का पाठ अभी तक सम्भव नहीं हो पाया है, अत: प्रक्षिप्य अंशों का पृथक रूप से स्पष्टीकरण सम्भव नहीं है। इस ग्रंथ के पदों का मंचन नृत्य-गीत-वाद्य के साथ बहुत प्रचलित है। अत: लोकरूचि एवं प्रचलन को देखकर बहुत से कवियों की रचनाओं का समावेश इसमें हो गया है।
प्रस्तुत काव्य में वाल्मीकि रामायण को मुख्यत: कथा-प्रवाह के लिए आधार मानकर रखते हुए भी वह पूर्णतया वाल्मीकि के अनुगामी नहीं है। आदर्श पात्रों में भी कभी-कभी मानवीय दोष-दुर्बलता का चित्रण करते हुए गेय पदों में रामकथा को मंच के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाने का प्रयास किया गया है। भाषा सरल, माधुर्यपूर्ण है। आज भी रामलीला में सीता के विलाप पदों पर दर्शकों के नेत्र अश्रुपूरित देखे जा सकते हैं। मैं भाई शंकरलाल जी पुरोहित की हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने कवि के जीवन-दर्शन-रचना तथा कार्यकाल पर यथासम्भव प्रकाश डालकर हम सबके लिए यह जानकारी प्रदान की है।
भाषासेतु के ओड़िआ स्तंभ में अगली कड़ी के रूप में ‘बिचित्र रामायण’ सुधीवृन्द के कर-कमलों में देते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। इसकी प्रेरणा हमें भुवन वाणी ट्रस्ट के संस्थापक पूज्यपाद पं. नन्दकुमार जी अवस्थी द्वारा मिली। उन्हीं के आग्रह का पालन करके इस ओड़िआ भाषा की निधि को हिन्दी-जगत में लाया। आशा है सब समस्त राष्ट्र में सुधीजन लिपि का आवरण हट जाने से उसे सहज ही ग्रहण करने में समर्थ होंगे। इसी कारण इसे देवनागरी लिप्यन्तरण के साथ अनूदित किया गया है। पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करने में चि. राजेश पाण्डेय ने अहर्निश परिश्रम करके हमें सहायता दी है। मैं ईश्वर से उसके मंगल-भविष्य की कामना करता हूँ।
हमें संस्कारों में उसकी जड़ें बहुत गहराई तक जाती हैं। जीवन की पूर्णता के साथ-साथ आदर्शों का रूपायन भी विकास-क्रम के अनुसार ही होता है। संस्कृति ही राष्ट्रीयता का मेरुदण्ड है, जो देश के भूगोल से नियंत्रित होती है। तुलसी के शब्दों में- ‘‘नीति प्रीति परमारथ स्वारथ। कोउ न राम सम जान जथारथ’’ वाले श्रीराम के चरित्र ने भारतीय मनीषियों को भी प्रभावित किया है। उसी के फलस्वरूप अलौकिक पक्षों को लोकप्रवृत्ति के अनुरूप ढालने के प्रयास चिरकाल से किये जा रहे हैं। अपनी इन्हीं आदर्शों की चरम सीमा की सफलताओं के कारण श्रीराम ईश्वर कोटि से पुरुषोत्तम कोटि के रूप में लोक के समक्ष आते हैं।
श्रीराम का चरित्र लोकमंगल-भावनाओं से ओतप्रोत है। उस दिव्य चरित्र का अनुगायन भारत की निधि बना। देश के कोने-कोने में विभिन्न प्रान्तों के विचारकों, सन्तों, तथा साहित्यकारों ने अपनी मातृभाषाओं में इस उदार चरित्र को चुना। उन्होंने अपनी बुद्धि के अनुसार श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया।
जगन्नाथ की पावन भूमि उड़ीसा में भी सन्तों द्वारा विविध रामायणों की रचना हुई। कविसम्राट् उपेन्द्र भंज ने ‘‘बैदेहीश-विळाप’’ की रचना की। बलरामदास जी की जगमोहन रामायण, श्री शारलादास जी की बिलंका रामायण आदि विभिन्न राम-चरित्र के पावन ग्रन्थ समाज को प्राप्त हुए। श्री विश्वनाथ खुँटिया ने अनेकानेक राग-रागनियों के पदों की संयोजना करके बिचित्र रामायण की रचना की। उड़ीसा में इस ग्रन्थ के गेय पद बहुधा रामलीला के मंचों पर सुने जाते हैं। दासकाठिआ और पाल्हा गायन में भी इसके प्रयोग अधिकता में पाये जाते हैं। ग्राम्य अंचलों से लेकर संगीताचार्य भी इन्हें गाते सुने जाते हैं। पद भावपूर्ण रसमय लालित्य से ओतप्रोत है। आधार, मूलभूत वाल्मीकीय रामायण ही है। सारे कथानक संक्षिप्त रूप से पदों में पिरो दिए गए हैं।
उड़ीसा में भक्ति-साहित्य का अतुल भण्डार ताड़ की पेशियों से भरा पड़ा है जो काल-क्रमानुसार कीटदंश का शिकार होकर या जराजीर्ण होकर विलुप्त होता जा रहा है। फलस्वरूप रामायण-रचनाकारों में प्रमुख स्थान के अधिकारी श्री विश्वनाथ खुँटिया का कोई प्रामाणिक जीवन-परिचय संबधी आलेख उपलब्ध नहीं है। कुछ अनुमान, कुछ किंवदंती तथा कुछ अंत:साक्ष्य के बल पर दो-चार बातें कही जाती रही हैं।
बिचित्र रामायण में स्थान-स्थान पर पदों में ‘बिशि’ नाम का संबोधन मिलता है। ऐसा अनुमान है कि यह विश्वनाथ का ही अपभ्रंश रूप है। ये अठारहवीं शताब्दी में महाराज दिव्यसिंह देव (खुर्धा रियासत के राजा) के शासनकाल में पुरी में रहा करते थे। उनके नाम के आगे खुँटिया शब्द लगा है। मुख्यत: खुँटिया श्री जगन्नाथ जी के सेवक थे बल्कि रथयात्रा के समय स्वयं उपस्थित रहते थे।
सामान्य तौर पर ओड़िआ भाषा में रचे गये महाकाव्य अथवा पुराण एक ही द्वन्द्व में रचे जाते थे। जगन्नाथ, शारलादास, बलरामदास आदि प्राय: सभी ने इसी नीति का पालन किया है। परन्तु विश्वनाथ खुँटिया ने रामायण-रचना के समय इस नियम का पालन नहीं किया। उन्होंने विभिन्न प्रकार की राग-रागिनी, ताल तथा छन्द आदि का प्रयोग करके ग्रन्थ में वैचित्र्य का समायोजन किया गया है। इसी आधार पर इस ग्रन्थ का नामकरण ‘‘बिचित्र रामायण’’ किया गया। आपके इस रामकथा-परक काव्य में 289 छन्द (अनुच्छेद) हैं। इनमें 52 छन्द अन्याय कवियों के भी मिलते हैं, जो संकलित किये गये हैं।
यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि शुद्ध, संशोधित एवं वैज्ञानिक पद्धति पर सम्पादित बिचित्र रामायण का पाठ अभी तक सम्भव नहीं हो पाया है, अत: प्रक्षिप्य अंशों का पृथक रूप से स्पष्टीकरण सम्भव नहीं है। इस ग्रंथ के पदों का मंचन नृत्य-गीत-वाद्य के साथ बहुत प्रचलित है। अत: लोकरूचि एवं प्रचलन को देखकर बहुत से कवियों की रचनाओं का समावेश इसमें हो गया है।
प्रस्तुत काव्य में वाल्मीकि रामायण को मुख्यत: कथा-प्रवाह के लिए आधार मानकर रखते हुए भी वह पूर्णतया वाल्मीकि के अनुगामी नहीं है। आदर्श पात्रों में भी कभी-कभी मानवीय दोष-दुर्बलता का चित्रण करते हुए गेय पदों में रामकथा को मंच के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाने का प्रयास किया गया है। भाषा सरल, माधुर्यपूर्ण है। आज भी रामलीला में सीता के विलाप पदों पर दर्शकों के नेत्र अश्रुपूरित देखे जा सकते हैं। मैं भाई शंकरलाल जी पुरोहित की हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने कवि के जीवन-दर्शन-रचना तथा कार्यकाल पर यथासम्भव प्रकाश डालकर हम सबके लिए यह जानकारी प्रदान की है।
भाषासेतु के ओड़िआ स्तंभ में अगली कड़ी के रूप में ‘बिचित्र रामायण’ सुधीवृन्द के कर-कमलों में देते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। इसकी प्रेरणा हमें भुवन वाणी ट्रस्ट के संस्थापक पूज्यपाद पं. नन्दकुमार जी अवस्थी द्वारा मिली। उन्हीं के आग्रह का पालन करके इस ओड़िआ भाषा की निधि को हिन्दी-जगत में लाया। आशा है सब समस्त राष्ट्र में सुधीजन लिपि का आवरण हट जाने से उसे सहज ही ग्रहण करने में समर्थ होंगे। इसी कारण इसे देवनागरी लिप्यन्तरण के साथ अनूदित किया गया है। पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करने में चि. राजेश पाण्डेय ने अहर्निश परिश्रम करके हमें सहायता दी है। मैं ईश्वर से उसके मंगल-भविष्य की कामना करता हूँ।
गुरुचरणाश्रित
योगेश्वर त्रिपाठी ‘योगी’
योगेश्वर त्रिपाठी ‘योगी’
बिचित्र रामायण
आद्यकाण्ड
प्रथम-छान्द-मंगळाचरण
गुणासागर-बाणी
श्री नीलाचल पर्वत पर भगवान जगन्नाथ के बारह उत्सव बड़े आनन्दप्रद होते
हैं। स्नानोत्सव, रथयात्रा, शयनोत्सव, बाहुडायात्रा अर्थात् वापसी यात्रा
मोदयुक्त हैं। देवोत्थान, मकर-सक्रान्ति, दोलू-उत्सव, दमनक चोरी उत्सव,
चम्पक द्वादशी तथा चन्दोत्सव आदि विभिन्न प्रकार से आचरित होते हैं। बारह
उत्सवों में तीन उत्सव तो श्रेष्ठतम हैं। दोल-उत्सव, चन्दन-यात्रा एवम्
रथयात्रा का दर्शन करके सभी जीवों के पातकपुंज विनष्ट हो जाते हैं।
नन्दीघोष रथ पर आसीन श्री जगन्नाथ जी गुण्डिचा मन्दिर की ओर प्रस्थान की
यात्रा को देखकर नर-नाग-गन्धर्व-किन्नर जय-जयकार करने लगते हैं।
रत्नजटित कुण्डल, बघनखा वीरवेश सज्जित गले में नाना प्रकार के पादकों से युक्त मालाएँ, आपाद लम्बित प्रचुर पद्महार, सुवर्ण सज्जित श्रीचरण तथा स्वर्णिम बाहुओं में ग्रहीत स्वर्ण के धनुष-बाण शोभायमान हो रहे हैं। लगता है जैसे दक्षिणामूर्ति के दर्शनों के लिए विभीषण ताक रहे हों। सिंहद्वार पर रथारूढ़ होने के समय भगवान की लक्ष्मी जी से भेंट जनसमूह के हृदय में प्रसन्नता के कपाट ही खोल देती है। महाप्रभु जगन्नाथ एवं लक्ष्मी जी की दूर्वाक्षतयुक्त आरती के समय प्रसन्नचित्त जनसमूह संसार में जय-जय का उद्घोश करने लगते हैं।
रत्नजटित कुण्डल, बघनखा वीरवेश सज्जित गले में नाना प्रकार के पादकों से युक्त मालाएँ, आपाद लम्बित प्रचुर पद्महार, सुवर्ण सज्जित श्रीचरण तथा स्वर्णिम बाहुओं में ग्रहीत स्वर्ण के धनुष-बाण शोभायमान हो रहे हैं। लगता है जैसे दक्षिणामूर्ति के दर्शनों के लिए विभीषण ताक रहे हों। सिंहद्वार पर रथारूढ़ होने के समय भगवान की लक्ष्मी जी से भेंट जनसमूह के हृदय में प्रसन्नता के कपाट ही खोल देती है। महाप्रभु जगन्नाथ एवं लक्ष्मी जी की दूर्वाक्षतयुक्त आरती के समय प्रसन्नचित्त जनसमूह संसार में जय-जय का उद्घोश करने लगते हैं।
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