इतिहास और राजनीति >> स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहासशशिप्रभा श्रीवास्तव
|
5 पाठकों को प्रिय 19 पाठक हैं |
इसमें स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल होने वाले देशभक्तों का वर्णन है....
Swatantrata Aandolan Ka Itihas
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्वतन्त्रता का महापर्व पीड़ा, यातना त्याग या बलिदान के बीहड़ मार्ग से होकर आया है। इस मार्ग पर लहूलुहान होती, मरती-खपती एक पूरी की पूरी पीढ़ी ने अपना जीवन काल गुजारा है। न्याय के अधिकार के लिए संघर्षरत पिछली पीढ़ी के साहब, ओज शक्ति और साथ ही उसकी पीड़ा, यातना त्याग और ज्ञान अपनी पूरी गरिमा के साथ नई पीढ़ी को होना चाहिए।
यह संघर्ष उस शक्ति से था जिनके राज्य में सूर्य कभी अस्त ही नहीं होता था। हम विजयी हुए, इस लिए कि पूरा भारत अपनी विभिन्न प्रतिरोधक शक्तियों के साथ उठ खड़ा हुआ। यह युद्ध एक साथ राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक सभी मंचों से लड़ा गया। अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए हमने अपनी बुराइयों तथा अपने लोगों से भी युद्ध किया।
इस पुस्तक के दादा जी यूँ तो काल्पनिक पात्र हैं, लेकिन यदि कहा जाए की राष्ट्रीय आन्दोलन की आत्मा को उनमें केन्द्रित किया गया है तो झूठ न होगा। उस दौर में अनेक ऐसे लोग थे जिन्होंने आन्दोलन के पीछे रहकर काम किया। साम्राज्य वाद की मार से बिखरे टूटे परिवार के सदस्यों को सहारा ही नहीं, उन्हें माता-पिता की कमी तक खलने नहीं दी। सांम्प्रदायिक दंगों तथा विभाजन के अवसर पर हरे थके बेसहारा लोगों की रक्षा की। अपने को अपने व्यक्तिगत सुख लाभ-हानि को भुलाकर पूरी तरह गाँधी वाद विचारधारा में डूब गए। मगर आज वे गुमनामी की दुनियाँ में खो गए हैं। ऐसी सभी पुण्य आत्माओं को दादा जी के रूप में याद किया गया है। दादा जी के सहारे इस इतिहास खण्ड को कथात्मक रूप दिया जा सका है। जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम से किशोर पाठकों की भावनात्मक लगाव उत्पन्न हो रहा हो। वे इस संघर्ष की गौरवमय कथा को जाने, स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करें और आज़ादी के वास्तविक मूल्यों को पहचानें।
किशोर पाठकों के लिए सरल-सहज भाषा-शैली में लिखी गई यह पुस्तक निश्चित ही चाव से पढ़ी जाएगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
यह संघर्ष उस शक्ति से था जिनके राज्य में सूर्य कभी अस्त ही नहीं होता था। हम विजयी हुए, इस लिए कि पूरा भारत अपनी विभिन्न प्रतिरोधक शक्तियों के साथ उठ खड़ा हुआ। यह युद्ध एक साथ राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक सभी मंचों से लड़ा गया। अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए हमने अपनी बुराइयों तथा अपने लोगों से भी युद्ध किया।
इस पुस्तक के दादा जी यूँ तो काल्पनिक पात्र हैं, लेकिन यदि कहा जाए की राष्ट्रीय आन्दोलन की आत्मा को उनमें केन्द्रित किया गया है तो झूठ न होगा। उस दौर में अनेक ऐसे लोग थे जिन्होंने आन्दोलन के पीछे रहकर काम किया। साम्राज्य वाद की मार से बिखरे टूटे परिवार के सदस्यों को सहारा ही नहीं, उन्हें माता-पिता की कमी तक खलने नहीं दी। सांम्प्रदायिक दंगों तथा विभाजन के अवसर पर हरे थके बेसहारा लोगों की रक्षा की। अपने को अपने व्यक्तिगत सुख लाभ-हानि को भुलाकर पूरी तरह गाँधी वाद विचारधारा में डूब गए। मगर आज वे गुमनामी की दुनियाँ में खो गए हैं। ऐसी सभी पुण्य आत्माओं को दादा जी के रूप में याद किया गया है। दादा जी के सहारे इस इतिहास खण्ड को कथात्मक रूप दिया जा सका है। जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम से किशोर पाठकों की भावनात्मक लगाव उत्पन्न हो रहा हो। वे इस संघर्ष की गौरवमय कथा को जाने, स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करें और आज़ादी के वास्तविक मूल्यों को पहचानें।
किशोर पाठकों के लिए सरल-सहज भाषा-शैली में लिखी गई यह पुस्तक निश्चित ही चाव से पढ़ी जाएगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
अपनी बात
स्वतन्त्रता का महापर्व पीड़ा, यातना, त्याग या बलिदान के बीहड़ मार्ग से होकर आया है। इस मार्ग पर लहूलुहान होती, मरती-खपती एक पूरी की पूरी पीढ़ी ने अपना जीवन काल गुजारा है। न्याय के अधिकार के लिए संघर्षरत पिछली पीढ़ी के साहब, ओज शक्ति और साथ ही उसकी पीड़ा, यातना त्याग और ज्ञान अपनी पूरी गरिमा के साथ नई पीढ़ी को होना चाहिए।
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का संघर्ष कोई मामूली संघर्ष नहीं था। यह संघर्ष उस शक्ति से था जिनके राज्य में सूर्य कभी अस्त ही नहीं होता था। इस लड़ाई को जीत लेना किसी एक व्यक्ति, किसी एक पार्टी, किसी एक सम्प्रदाय, किसी एक विचारधारा अथवा किसी एक कार्य-पद्धति से सम्भव नहीं था। हम विजयी हुए, इसलिए कि पूरा भारत अपनी विभिन्न प्रतिरोधक शक्तियों के साथ उठ खड़ा हुआ। इसीलिए हम देखते हैं कि इस संघर्ष में चरखे की गूँज के साथ पिस्तौल की दनदनाहट भी है। इसमें अन्न, जल त्यागकर मर जानेवाले निग्रही लोग हैं तो दुश्मन की खोपड़ी चूर कर बेधड़क फाँसी पर चढ़ जानेवाले लोग भी हैं। यह युद्ध एक साथ राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक सभी मंचों से लड़ा गया। अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए हमने अपनी बुराइयों तथा अपने लोगों से भी युद्ध किया। शायद ही किसी अन्य देश-जाति का स्वतन्त्रता संघर्ष इतने रंगों से सुसज्जित, इतना मुग्धकारी हो।
इस इतिहास को लिखते हुए मैंने ध्यान रखा कि स्वतन्त्रता की मूल धारा—कांग्रेस-के साथ ही अन्य सहयोगी धाराओं के भी समुचित स्थान मिले, उनकी उपेक्षा न हो। स्कूल ही उच्चतर कक्षाओं में पढ़ाई जानेवाली इतिहास की पुस्तकों में मैंने पाया कि उनमें राष्ट्रीय आन्दोलन का वर्णन कुछ चलताऊ तथा तिथि गिनाने तक ही सीमित है। कांग्रेस और लीग के अतिरिक्त अन्य धाराओं को अछूता ही छोड़ दिया जाता है। इस पुस्तक में आए कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य धाराओं के प्रसंग मैंने विभिन्न माध्यमों एवं स्रोतों से एकत्र कर संग्रहीत किए हैं।
इस पुस्तक के दादा जी यूँ तो काल्पनिक पात्र हैं, लेकिन यदि मैं कहूँ कि राष्ट्रीय आन्दोलन की आत्मा को मैंने उनमें केन्द्रित किया गया है तो झूठ न होगा। उस दौर में अनेक ऐसे लोग थे जिन्होंने आन्दोलन के पीछे रहकर काम किया। साम्राज्यवाद की मार से बिखरे टूटे परिवार के सदस्यों को सहारा ही नहीं, उन्हें माता-पिता की कमी तक खलने नहीं दी। सांम्प्रदायिक दंगों तथा विभाजन के अवसर पर हरे-थके बेसहारा लोगों की रक्षा की। अपने को, अपने व्यक्तिगत सुख लाभ-हानि को भुलाकर पूरी तरह गाँधीवादी विचारधारा में डूब गए। पूरी आस्था से अपने काम में लगे रहे। ऐसे लोग कम नहीं थे मगर आज वे गुमनामी की दुनिया में खो गए हैं। ऐसी सब पुण्यआत्माओं को मैंने दादा जी के रूप में याद किया है। दादा जी से सम्बन्धित अध्याय, ‘अन्तिम पत्र इतिहास के साथ जोड़ा तो नहीं जा सकता मगर उसके बिना इतिहास जरूर अधूरा रह जाता। दादा जी के सहारे ही मैं इस इतिहास खण्ड को कथात्मक रूप दे सकी हूं।
जरूरी नहीं कि नई पीढ़ियाँ तिथियों को ही जाने या रटें, जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से उनका भावनात्मक लगाव उत्पन्न हो। वे इस संघर्ष की गौरवमय कथा को जाने, स्वयं को गौरववान्वित अनुभव करें और आज़ादी के वास्तविक मूल्यों को पहचानें।
इस आन्दोलन में यह वर्ग, हर प्रान्त के लोगों ने भाग लिया। यह लिखी भी गई है सभी के लिए, इसीलिए इसके अभिव्यक्ति प्रवाह में जो भी शब्द सहजता से आ गए, उनका बेझिझक प्रयोग मैंने किया है। अब वे चाहें अंग्रेजी के ही शब्द क्यों न हों।
इन्हीं उद्देश्यों को सामने रखकर मैंने यह रचना की है। कहाँ तक सफल हुई हूँ, यह तो इसे पढ़नेवाला किशोर वर्ग ही बता सकता है।
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का संघर्ष कोई मामूली संघर्ष नहीं था। यह संघर्ष उस शक्ति से था जिनके राज्य में सूर्य कभी अस्त ही नहीं होता था। इस लड़ाई को जीत लेना किसी एक व्यक्ति, किसी एक पार्टी, किसी एक सम्प्रदाय, किसी एक विचारधारा अथवा किसी एक कार्य-पद्धति से सम्भव नहीं था। हम विजयी हुए, इसलिए कि पूरा भारत अपनी विभिन्न प्रतिरोधक शक्तियों के साथ उठ खड़ा हुआ। इसीलिए हम देखते हैं कि इस संघर्ष में चरखे की गूँज के साथ पिस्तौल की दनदनाहट भी है। इसमें अन्न, जल त्यागकर मर जानेवाले निग्रही लोग हैं तो दुश्मन की खोपड़ी चूर कर बेधड़क फाँसी पर चढ़ जानेवाले लोग भी हैं। यह युद्ध एक साथ राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक सभी मंचों से लड़ा गया। अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए हमने अपनी बुराइयों तथा अपने लोगों से भी युद्ध किया। शायद ही किसी अन्य देश-जाति का स्वतन्त्रता संघर्ष इतने रंगों से सुसज्जित, इतना मुग्धकारी हो।
इस इतिहास को लिखते हुए मैंने ध्यान रखा कि स्वतन्त्रता की मूल धारा—कांग्रेस-के साथ ही अन्य सहयोगी धाराओं के भी समुचित स्थान मिले, उनकी उपेक्षा न हो। स्कूल ही उच्चतर कक्षाओं में पढ़ाई जानेवाली इतिहास की पुस्तकों में मैंने पाया कि उनमें राष्ट्रीय आन्दोलन का वर्णन कुछ चलताऊ तथा तिथि गिनाने तक ही सीमित है। कांग्रेस और लीग के अतिरिक्त अन्य धाराओं को अछूता ही छोड़ दिया जाता है। इस पुस्तक में आए कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य धाराओं के प्रसंग मैंने विभिन्न माध्यमों एवं स्रोतों से एकत्र कर संग्रहीत किए हैं।
इस पुस्तक के दादा जी यूँ तो काल्पनिक पात्र हैं, लेकिन यदि मैं कहूँ कि राष्ट्रीय आन्दोलन की आत्मा को मैंने उनमें केन्द्रित किया गया है तो झूठ न होगा। उस दौर में अनेक ऐसे लोग थे जिन्होंने आन्दोलन के पीछे रहकर काम किया। साम्राज्यवाद की मार से बिखरे टूटे परिवार के सदस्यों को सहारा ही नहीं, उन्हें माता-पिता की कमी तक खलने नहीं दी। सांम्प्रदायिक दंगों तथा विभाजन के अवसर पर हरे-थके बेसहारा लोगों की रक्षा की। अपने को, अपने व्यक्तिगत सुख लाभ-हानि को भुलाकर पूरी तरह गाँधीवादी विचारधारा में डूब गए। पूरी आस्था से अपने काम में लगे रहे। ऐसे लोग कम नहीं थे मगर आज वे गुमनामी की दुनिया में खो गए हैं। ऐसी सब पुण्यआत्माओं को मैंने दादा जी के रूप में याद किया है। दादा जी से सम्बन्धित अध्याय, ‘अन्तिम पत्र इतिहास के साथ जोड़ा तो नहीं जा सकता मगर उसके बिना इतिहास जरूर अधूरा रह जाता। दादा जी के सहारे ही मैं इस इतिहास खण्ड को कथात्मक रूप दे सकी हूं।
जरूरी नहीं कि नई पीढ़ियाँ तिथियों को ही जाने या रटें, जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से उनका भावनात्मक लगाव उत्पन्न हो। वे इस संघर्ष की गौरवमय कथा को जाने, स्वयं को गौरववान्वित अनुभव करें और आज़ादी के वास्तविक मूल्यों को पहचानें।
इस आन्दोलन में यह वर्ग, हर प्रान्त के लोगों ने भाग लिया। यह लिखी भी गई है सभी के लिए, इसीलिए इसके अभिव्यक्ति प्रवाह में जो भी शब्द सहजता से आ गए, उनका बेझिझक प्रयोग मैंने किया है। अब वे चाहें अंग्रेजी के ही शब्द क्यों न हों।
इन्हीं उद्देश्यों को सामने रखकर मैंने यह रचना की है। कहाँ तक सफल हुई हूँ, यह तो इसे पढ़नेवाला किशोर वर्ग ही बता सकता है।
-शशिप्रभा श्रीवास्तव
स्तन्त्रता दिवस
राजू की आँखें जैसे ही खुलीं वह पलंग से उछलकर खड़ा हो गया। नींद की खुमारी में उसे ऐसा लगा जैसे उसे वे छोड़कर भइया और दीदी जा चुके हैं। घबराहट के मारे उसे रुलाई-सी आने लगी। उसे वे लोग छोड़ ही गए। कमरे के बाहर आकर उसने किचेन में झाँका। मनपसन्द सुगन्ध से किचेन महक रहा था। चलो देर नहीं हुई, वह जैसे ही बाथरूम की तरफ बढ़ा खुशी की बिजली उसके तन-मन में दौड़ गई। बाथरूम में दादा जी बड़े सधे गले से तुलसी का कोई पद गा रहे थे। वह दौड़कर बाथरूम तक पहुँचा, दरवाजे पर हाथ लगाया ही था कि दादा जी बाहर निकल आए। वे नहा चुके थे। उन्होंने हमेशा की तरह खादी के सफेद कपड़े पहन रखे थे। उनमें कोई परिवर्तन नहीं था। हमेशा की तरह स्वस्थ थे। बस, इन दो वर्षों में उनकी सारी की सारी बरौनियाँ सफेद हो गई थीं। सफेद कपड़े, सफेद बाल, सफेद बरौनियाँ और दो गहरी चमकीली आँखें।
राजू उनसे लिपट गया—‘‘आप कब आए ?’’
‘‘कल रात ही आया हूँ।’’
राजू ने मचलते हुए कहा, ‘‘आपने मुझे उसी समय जगया क्यों नहीं ?’’
‘‘रात बहुत हो चुकी थी बेटे।’’
‘‘अच्छा दादा जी मुझे तो अभी फटाफट तैयार होना है। स्कूल पहुँचना है, वहाँ से परेड ग्राउंड, फिर लौटकर लम्बी दौड़ में भाग लेना है। मालूम है न, आज पन्द्रह अगस्त है।’’
‘‘मालूम है। मुझे भी एक मीटिंग में जाना है।’’ दादा जी ने कहा।
तभी राजू की बड़ी बहन शीला और भाई प्रकाश आ पहुँचे। शीला तो अब भी जम्हाइयाँ ले रही थी।
‘‘यह क्या ? तुम लोगों स्कूल, कॉलेज नहीं जाना है ? आज पन्द्रह अगस्त है ना ?’’ दादा जी ने पूछा।
एक अच्छी-सी अँगड़ाई लेते हुए प्रकाश ने कहा, ‘‘ओह दादा जी आप भी....! क्या करना है जाकर। वही झंडारोहण, वही बेसुरा जन-गन-मन और वही घिसे-पिटे भाषण। बार-बार वही सुनते-सुनते ऊब-सी हो गई है।’’
‘‘और मुझे तो सब जबानी याद हो गया है—आपके ऊपर दोहरी जिम्मदारी है। आपको घर-बाहर दोनों सँभालना है। आप ही भावी नागरिकों की भावी माँ हैं।’’
‘‘दुत् नहीं सुननी मुझे मिल बाटलीवाली के बेतुकी बातें। मैं तो तीम बजे की शो में पिक्चर देखने जाना चाहूँगी, यदि मेरी प्यारी-प्यारी माता जी मान जाएँ तो।’’ शीला ने पूरी बात विथ-फुल एक्शन पेश की।
‘‘मगर बेटे आज स्वतन्त्रता दिवस है। यह हमारा राष्ट्रीय त्योहार है। कैसी-कैसी बातें करने लगे हो तुम लोग।’’ दादा जी ने हैरान होते हुए कहा —‘‘इसी झंडे, इसी जन-गन-गण-मन के लिए असंख्य लोगों ने कितना दुःख उठाया है, कितनी यातनाएँ सही हैं—तुम लोगों को इतिहास—कम-से-कम आजादी की लड़ाई का इतिहास तक नहीं पढ़ाया जाता ?’’
‘‘दादा जी मैं तो विज्ञान का विद्यार्थी हूँ। मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता। हाँ, मुझे तिरंगा झंगा बहुत प्यारा है। उसे कहीं उँचाई पर लहराते देख बड़ा गर्व होता है, मुझे अच्छा लगता है। मगर सच पूछिए तो मैं उसके इतिहास के बारे में कुछ नहीं जानता।’’ प्रकाश ने कहा।
‘‘मैं जानती हूँ इसके बारे में। महात्मा गांधी ने ऐसा जादू चलाया कि अंग्रेज चारो खाने चित्त हो गए। फिर उनके सहयोगी भी तो बहुत जोरदार थे, नेहरू, पटेल और बहुत सारे लोग। मेरी टीचर इतिहास बहुत अच्छा पढ़ाती हैं।’’ शीला ने कहा।
राजी की माँ ने नाश्ता लगा दिया था, मगर दादा जी का ध्यान उधर था ही नहीं। कुछ क्षणों तक तो चुपचाप खड़े रहे फिर बोले—‘‘तो तुम लोगों के ख्याल से यह सब बड़ा आसानी से हो गया...हमने माँगा और उन्होंने दे दिया।’’
तौलिया से मुँह पोंछते-पोंछते प्रकाश ने कहा—‘‘मैं बहुत प्रमाणित रूप से तो नहीं कह सकता मगर मुझे भी आश्चर्य होता है कि सोने की चिड़िया भारत को अंग्रेज इतनी आसानी से क्यों छोड़कर चले गए। देखिए न आज तो लोग एक कुर्सी तक मरते दम तक नहीं छोड़ना चाहते।’’
‘‘बात तो तुम ठीक ही कही रहे है....तुम्हें मालूम नहीं है न, कैसे-कैसे बलिदान लोगों ने किए हैं फिर किसी देश, वह भी भारत जैसे देश की आजादी किसी एक-दो के बलबूते की बात नहीं थी, और शीला यह कोई जादू नहीं था।
राजू की माँ ने कहा—‘‘बाबू जी, बच्चों का दोष क्या है ? इन्हें उस लम्बे, यातनापूर्ण और बहुआयामी संघर्ष के बारे में बताया ही नहीं गया है। खूनी संघर्ष से लेकर अहिंसात्मक शस्त्रों के प्रयोग हुए हैं। अच्छा अब नाश्ता कर लीजिए।’’
‘‘तुम ठीक कहती हो छोटी।’’ दादा जी ने जल्दी से चाय गटकते हुए कहा...।
‘‘दादा जी, आप मम्मी को छोटी मत कहा करिए। लगता है कि किसी छोटी-बच्ची को बुला रहे हैं। अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘बेटी तेरी मम्मी आज भी मेरे लिए वही छोटी-सी बच्ची है। मैंने इसे.....!’’ दादा जी ने बात अधूरी छोड़ दी।
राजू उनसे लिपट गया—‘‘आप कब आए ?’’
‘‘कल रात ही आया हूँ।’’
राजू ने मचलते हुए कहा, ‘‘आपने मुझे उसी समय जगया क्यों नहीं ?’’
‘‘रात बहुत हो चुकी थी बेटे।’’
‘‘अच्छा दादा जी मुझे तो अभी फटाफट तैयार होना है। स्कूल पहुँचना है, वहाँ से परेड ग्राउंड, फिर लौटकर लम्बी दौड़ में भाग लेना है। मालूम है न, आज पन्द्रह अगस्त है।’’
‘‘मालूम है। मुझे भी एक मीटिंग में जाना है।’’ दादा जी ने कहा।
तभी राजू की बड़ी बहन शीला और भाई प्रकाश आ पहुँचे। शीला तो अब भी जम्हाइयाँ ले रही थी।
‘‘यह क्या ? तुम लोगों स्कूल, कॉलेज नहीं जाना है ? आज पन्द्रह अगस्त है ना ?’’ दादा जी ने पूछा।
एक अच्छी-सी अँगड़ाई लेते हुए प्रकाश ने कहा, ‘‘ओह दादा जी आप भी....! क्या करना है जाकर। वही झंडारोहण, वही बेसुरा जन-गन-मन और वही घिसे-पिटे भाषण। बार-बार वही सुनते-सुनते ऊब-सी हो गई है।’’
‘‘और मुझे तो सब जबानी याद हो गया है—आपके ऊपर दोहरी जिम्मदारी है। आपको घर-बाहर दोनों सँभालना है। आप ही भावी नागरिकों की भावी माँ हैं।’’
‘‘दुत् नहीं सुननी मुझे मिल बाटलीवाली के बेतुकी बातें। मैं तो तीम बजे की शो में पिक्चर देखने जाना चाहूँगी, यदि मेरी प्यारी-प्यारी माता जी मान जाएँ तो।’’ शीला ने पूरी बात विथ-फुल एक्शन पेश की।
‘‘मगर बेटे आज स्वतन्त्रता दिवस है। यह हमारा राष्ट्रीय त्योहार है। कैसी-कैसी बातें करने लगे हो तुम लोग।’’ दादा जी ने हैरान होते हुए कहा —‘‘इसी झंडे, इसी जन-गन-गण-मन के लिए असंख्य लोगों ने कितना दुःख उठाया है, कितनी यातनाएँ सही हैं—तुम लोगों को इतिहास—कम-से-कम आजादी की लड़ाई का इतिहास तक नहीं पढ़ाया जाता ?’’
‘‘दादा जी मैं तो विज्ञान का विद्यार्थी हूँ। मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता। हाँ, मुझे तिरंगा झंगा बहुत प्यारा है। उसे कहीं उँचाई पर लहराते देख बड़ा गर्व होता है, मुझे अच्छा लगता है। मगर सच पूछिए तो मैं उसके इतिहास के बारे में कुछ नहीं जानता।’’ प्रकाश ने कहा।
‘‘मैं जानती हूँ इसके बारे में। महात्मा गांधी ने ऐसा जादू चलाया कि अंग्रेज चारो खाने चित्त हो गए। फिर उनके सहयोगी भी तो बहुत जोरदार थे, नेहरू, पटेल और बहुत सारे लोग। मेरी टीचर इतिहास बहुत अच्छा पढ़ाती हैं।’’ शीला ने कहा।
राजी की माँ ने नाश्ता लगा दिया था, मगर दादा जी का ध्यान उधर था ही नहीं। कुछ क्षणों तक तो चुपचाप खड़े रहे फिर बोले—‘‘तो तुम लोगों के ख्याल से यह सब बड़ा आसानी से हो गया...हमने माँगा और उन्होंने दे दिया।’’
तौलिया से मुँह पोंछते-पोंछते प्रकाश ने कहा—‘‘मैं बहुत प्रमाणित रूप से तो नहीं कह सकता मगर मुझे भी आश्चर्य होता है कि सोने की चिड़िया भारत को अंग्रेज इतनी आसानी से क्यों छोड़कर चले गए। देखिए न आज तो लोग एक कुर्सी तक मरते दम तक नहीं छोड़ना चाहते।’’
‘‘बात तो तुम ठीक ही कही रहे है....तुम्हें मालूम नहीं है न, कैसे-कैसे बलिदान लोगों ने किए हैं फिर किसी देश, वह भी भारत जैसे देश की आजादी किसी एक-दो के बलबूते की बात नहीं थी, और शीला यह कोई जादू नहीं था।
राजू की माँ ने कहा—‘‘बाबू जी, बच्चों का दोष क्या है ? इन्हें उस लम्बे, यातनापूर्ण और बहुआयामी संघर्ष के बारे में बताया ही नहीं गया है। खूनी संघर्ष से लेकर अहिंसात्मक शस्त्रों के प्रयोग हुए हैं। अच्छा अब नाश्ता कर लीजिए।’’
‘‘तुम ठीक कहती हो छोटी।’’ दादा जी ने जल्दी से चाय गटकते हुए कहा...।
‘‘दादा जी, आप मम्मी को छोटी मत कहा करिए। लगता है कि किसी छोटी-बच्ची को बुला रहे हैं। अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘बेटी तेरी मम्मी आज भी मेरे लिए वही छोटी-सी बच्ची है। मैंने इसे.....!’’ दादा जी ने बात अधूरी छोड़ दी।
|