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नायक खलनायक विदूषक

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :499
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2808
आईएसबीएन :81-7119-800-7

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मन्नू भंडारी की संपूर्ण कहानियाँ...

Nayak Khalnayak Vidushak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


कई बार ख्याल आता है कि यदि मेरी पहली कहानी बिना छपे ही लौट आती तो क्या लिखने का यह सिलसिला जारी रहता या वहीं समाप्त हो जाता...? क्योंकि पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो याद नहीं आता कि उस समय लिखने को लेकर बहुत जोश बेचैनी या बेताबी जैसा कुछ था। जोश का सिलसिला तो शुरू हुआ था कहानी के छपने, भैरवजी के प्रोत्साहन और पाठकों की प्रतिक्रिया से।

अपने भीतर ‘मैं’ के अनेक-अनेक बाहरी ‘मैं’ के साथ जुड़ते चले जाने की चाहना में मुझे कुछ हद तक इस प्रश्न का उत्तर भी मिला कि मैं क्यों लिखती हूँ ? जब से लिखना आरम्भ किया तब से न जाने कितनी बार इस प्रश्न का सामना हुआ, पर कभी भी कोई सन्तोषजनक उत्तर मैं अपने को नहीं दे पाई तो दूसरों को क्या देती ? इस सारी प्रक्रिया ने मुझे उत्तर के जिस सिरे पर ला खड़ा किया, वही एक मात्र या अन्तिम है, ऐसा दावा तो मैं आज भी नहीं कर सकती, लेकिन यह भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू तो है ही। किसी भी रचना के छपते ही इस इच्छा का जगना कि अधिक से अधिक लोग इसे पढ़ें केवल पढ़ें ही नहीं बल्कि इससे जुड़ें भी-संवेदना के स्तर पर उसके भागीदार भी बनें यानि की एक की कथा-व्यथा अनेक की बन सके, केवल मेरे ही क्यों, अधिकांश लेखकों के लिखने के मूल में एक और अनेक के बीच सेतु बनने की यह कामना ही निहित नहीं रहती ?

मैंने चाहे कहानियाँ लिखी हों या उपन्यास या नाटक-भाषा के मामले में शुरू से ही मेरा नजरिया एक जैसा रहा है। शुरू से ही मैं पारदर्शिता को कथा-भाषा की अनिवार्यता मानती आयी हूँ। भाषा ऐसी हो कि पाठक को सीधे कथा के साथ जोड़ दे...बीच में अवरोध का व्यवधान बनकर न खड़ी हो। कुछ लोगों की धारणा है कि ऐसी सहज-सरल बकौल उनके सपाट भाषा, गहन संवेदना, गूढ़ अर्थ और भावना के महीन से महीन रेशों को उजागर करने में अक्षम होती है। पर क्या जैनेन्द्रजी की भाषा शैली इस धारणा को ध्वस्त नहीं कर देती ? हाँ, इतना जरूर कहूँगी कि सरल भाषा लिखना ही सबसे कठिन काम होता है। इस कठिन काम को मैं पूरी तरह साध पाई, ऐसा दावा करने का दुस्साहस तो मैं कर ही नहीं सकती पर इतना जरूर कहूँगी कि प्रयत्न मेरा हमेशा इसी दिशा में रहा है।

जब अपनी सम्पूर्ण कहानियों को एक जिल्द में प्रस्तुत करने का प्रस्ताव आया तो मैंने अपनी कहानियों के रचनाक्रम में कोई उलट-फर नहीं किया। जिस क्रम में संकलन छपे थे, उनकी कहानियों को उसी क्रम में इसमें रखा-जिससे पाठक मेरी कथा यात्रा से गुजरते हुए मेरे रचना विकास को भी जान सकें।

नानी-नानी कहो कहानी
कैसा राजा, कैसा रानी ?
मायरा-माही सुनो कहानी
नहीं, सुनो नहीं, अब पढ़ो कहानी
और राजा-रानी की नहीं, नानी की कहानी।

बड़ी होकर तुम चाहे कुछ भी बन जाना पर मेरी इस एकमात्र विरासत को पढ़ना ज़रूर। इसी आग्रह के साथ मायरा-माही को बहुत-बहुत प्यार के साथ

-नानी

मेरी कथा-यात्रा

अपनी कथा-यात्रा के आरम्भिक बिन्दु की बात सोचते ही आँखों के आगे वह माहौल सजग हो जाता है जिसमें मैंने अपनी पहली कहानी लिखी थी। एम. ए. पास करते ही मैंने कलकत्ता के बालीगंज शिक्षा सदन में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया था। स्कूल के अतिरिक्त उन दिनों मैं कलकत्ते की प्रसिद्ध नाट्य-संस्था ‘अनामिका’ की गतिविधियों के साथ भी जुड़ी हुई थी। हिन्दी नाटकों के मंचन और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण अनामिका ने बहुत ख्याति अर्जित की थी और उसके कार्यक्रम बराबर चलते रहते थे। भाई-बहनों में जिसके भी घर रही वहाँ सुविधाएँ तो सब उपलब्ध थीं, जिम्मेदारी कोई नहीं इसलिए मन हमेशा कुछ-न-कुछ करने को छटपटाया करता था। मेरे कलकत्ता जाने के काफी पहले से श्री भँवरमल जी सिंधी के नेतृत्व में मारवाड़ियों के बीच समाज-सुधार का एक बड़ा क्रान्तिकारी आन्दोलन शुरू हुआ था जिसमें बड़ी बहन सुशीला काफी ख्याति अर्जित कर चुकी थी।
उसकी विभिन्न गतिविधियाँ अभी भी चलती रहती थीं यानी कि पूरे माहौल में एक जीवन्तता...कुछ विशिष्ट करने की ललक भरी सक्रियता। अगर कुछ नहीं थी तो साहित्यिक आबोहवा। यों पढ़ने का शौक घर में और मित्रों में सबको था...खूब पढ़ते भी थे, बहस-चर्चा भी होती थी, पर कुल मिलाकर वह मन-बहलाव और समय-गुज़ारू होती थी। ऐसे में बिना किसी की प्रेरणा और प्रोत्साहन के मैंने अपनी पहली कहानी ‘मैं हार गई’ कैसे लिखी, मैं खुद नहीं जानती। लिख तो ली पर समझ ही नहीं आया कि किससे इस पर सलाह और सुझाव माँगू। परिचय के दायरे में कोई था ही नहीं।

सेंगरजी (मोहन सिंह सेंगर) उस समय ‘नया समाज’ का सम्पादन कर रहे थे और उनकी अधिकतर शामें बहनजी-जीजाजी के साथ ही गुज़रती थीं। लेकिन जाने कैसा संकोच और दुविधा थी कि इस पर कभी बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। लेकिन लिखी हुई कहानी चैन भी नहीं लेने दे रही थी। आखिर सारे संकोच को दूर कर मैंने उसे ‘कहानी’ पत्रिका में भेज दिया श्यामू संन्यासी के पास और साँस रोककर उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी। कई दिन बीत गए पर उत्तर नहीं आया तो इतनी हिम्मत भी नहीं हुई कि रिमाइंडर भेजकर पूछ ही लूँ कि कहानी के बारे में उन्होंने क्या सोचा ! नहीं सोचा होता तो वे खुद ही जवाब देते। जिसे कूड़े की टोकरी में डाल दिया होगा उसके लिए कोई क्या जवाब देगा भला ? और मैं कहानी की बात को भूलने लगी...करीब-करीब भूल भी गई थी कि तभी भैरव प्रसाद गुप्त का उत्तर मिला-उत्तर क्या, प्रशंसा में लिपटी स्वीकृति मिली और अगले ही अंक में कहानी।

पत्रिका में छपी अपनी पहली कहानी को देखना भीतर तक थरथरा देनेवाले रोमांचक अनुभव से गुज़रना था। वैसा थ्रिल, वैसा रोमांच तो उसके बाद मैंने कभी महसूस ही नहीं किया, जबकि कहीं बड़े-बड़े और महत्त्वपूर्ण अवसर आए। अपनी कहानी पर बनी पहली फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ उसके ‘सिल्वर जुबली’ समारोह में शिरकत...‘धर्मयुग’ में धारावाहिक रूप में छपते समय उपन्यास ‘आपका बंटी’ पर पाठकों की गुदगुदाती व्यापक प्रतिक्रियाएँ...‘महाभोज’ का अविस्मरणीय मंचन और सभी अखबारों में उसकी ‘रिव्यूज’...लेकिन नहीं, वैसा अनुभव फिर कभी नहीं हुआ।
आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है कि कैसे कहानी जब तक पन्नों पर लिखी रही थी, न जाने कितने अगर-मगर, दुविधा-संकोच झिझक मन को घेरे रहे थे...विश्वास ही नहीं होता था जो कुछ लिखा है वह किसी लायक भी है, लेकिन छपकर आते ही मन आत्मविश्वास से भर उठा। मुझे लगने लगा जैसे मेरी कहानी ही नहीं, मैं स्वीकृत हुई हूँ, मेरा अपना वजूद स्वीकृत हुआ है-अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान बनता हुआ वजूद।

स्वीकृति की सान पर चढ़कर ही शायद आत्मविश्वास को ऐसी धार मिलती है।
कई बार खयाल आता कि यदि मेरी पहली कहानी बिना छपे ही लौट आती तो क्या लिखने का यह सिलसिला जारी रहता या वहीं समाप्त हो जाता...क्योंकि पीछे मुड़कर देखती हूँ तो याद नहीं आता कि उस समय लिखने को लेकर बहुत जोश, बेचैनी या बेताबी जैसा कुछ था। जोश का सिलसिला तो शुरू हुआ था कहानी के छपने, भैरवजी के प्रोत्साहन और पाठकों की प्रतिक्रिया से। पर वह भी मात्र जोश था...मन में घुमड़ती बातों को व्यक्त करने....कहानी में पिरोने की ललक से भरा हुआ। उसके पीछे कोई गम्भीर सोच, वैचारिकता या दायित्व-बोध जैसा तो शायद ही कुछ था।

 पर बिना किसी व्यवधान के दो-तीन कहानियाँ छपने और पाठकों की व्यापक प्रतिक्रिया (अधिकतम प्रशंसात्मक ही) मिलने का परिणाम यह हुआ कि अब बिना किसी झिझक-संकोच और थोड़े आत्मविश्वास के साथ कहानियाँ लिखने का सिलसिला शुरू हो गया। यहाँ एक बात ज़रूर कहना चाहूँगी कि कहानी पत्रिका में छपी शुरू की दो कहानियों के साथ मेरा चित्र नहीं छपा था और नाम स्पष्ट रूप से लिंग-बोधक नहीं था सो अधिकतर पत्र तो ‘प्रिय भाई’ सम्बोधन से ही आए...खूब हँसी आई, पर एक सन्तोष भी हुआ कि यह प्रशंसा लड़की होने के नाते रिआयती बिल्कुल नहीं है...विशुद्ध कहानी की है। चित्र छपने पर ही यह ग़लतफ़हमी दूर हुई थी। तब एक-एक बैठक में कहानियाँ लिखी थीं, बिल्कुल सहज भाव से। कलात्मक शिल्प बिम्ब प्रतीक, तराश-ये सारी बातें मेरी समझ के दायरे के बाहर थीं...दायरे में था तो उल्लास-भरा वह उत्साह और गहरी पहचानवाले वे पात्र, जिनके जीवन की व्यथा-विडम्बना मुझे लिखने के लिए प्रेरित करती थी और जिसे कहानी में पिरोकर उँड़ेल देने को मैं व्यग्र रहती थी। शुरू की कहानियाँ इसी आवेश में लिखी गई हैं, बल्कि कहूँ कि उगली गई हैं।

सात-आठ कहानियाँ लिख लेने के बाद मेरा परिचय राजेन्द्र यादव से हुआ और दो-चार मुलाकातों के बाद ही यह परिचय मित्रता में बदल गया, उस समय जिसका मुख्य आधार था लेखन। राजेन्द्र मेरी कहानियों को सुनते और उन पर सलाह-सुझाव देते पर मेरे गले उनकी कुछ बातें ही उतर पातीं, अधिकतर को पचा पाना तो मेरे बूते के बाहर था। मेरी कहानियाँ होती थीं-सीधी, सहज और पारदर्शी (चाहें तो सपाट और बचकानी के खाने में भी डाल सकते हैं) और राजेन्द्र के सुझाव होते थे बड़े पेंचदार और गुट्ठल। लेकिन मुझमें भी अब इतनी समझ तो जरूर आ गई थी कि मैं अपनी कहानियों पर उनसे जमकर बहस कर लेती थी। जो भी हो, राजेन्द्र के सुझाव हों या ये बहसें, इन्होंने मुझे कभी हताश नहीं किया बल्कि प्रोत्साहित ही किया और मैं अपनी समझ के हिसाब से कहानियाँ लिखती रही-छपती रही।

1957 ई. में ‘मैं हार गई’ नाम से ही राजकमल प्रकाशन से मेरा पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। ‘कहानी’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में अपनी पहली कहानी का छपना और राजकमल जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन से अपना पहला कहानी-संग्रह प्रकाशित होना-इस उपलब्धि का अहसास भी उस समय उतना नहीं हुआ था, पीछे मुड़कर देखने पर जितना आज लगता है। सन्’ 1957 में ही अमृतराय जी ने कुछ और लेखकों के सहयोग से इलाहाबाद में बहुत बड़े स्तर पर प्रगतिशील लेखकों का एक सम्मेलन आयोजित किया था जिसमें सभी पीढ़ियों के साहित्यकारों ने शिरकत की थी। उसका निमन्त्रण पाकर मैं तो बेहद पुलकित और उत्साहित, पर यह भी सच है कि यदि राजेन्द्र का साथ न मिलता तो अकेले जाने का साहस मैं शायद ही जुटा पाती। कहानियाँ लिखने, छपने और एक संग्रह आ जाने के बावजूद अपने को कहानीकारों में शामिल कर सकूँ..साहित्यकारों के ऐसे सम्मेलन में भाग ले सकूँ, ऐसा हौसला तो नहीं था।

 वहाँ पहली बार मोहन राकेश, कमलेश्वर, रेणु, अमरकान्त और नामवर जी से मुलाकात हुई थी। कमलेश्वर जी को उस आयोजन में भूत की तरह काम करते देखा था। महादेवी जी और हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के अद्भुत और अविस्मरणीय भाषण सुने। इन सब लोगों का जोश-खरोश देखा। अलग-अलग गोष्ठियों में इनकी बातें-बहसें सुनीं। लौटने के कुछ समय बाद राकेश जी व कमलेश्वर जी से पत्र-व्यवहार शुरू हो गया था। कमलेश्वर जी ने अपने नए-नए खोले-‘श्रमजीवी प्रकाशन’ के लिए पुस्तक माँगी तो तुरन्त उन्हें अपने दूसरे संकलन ‘तीन निगाहों की एक तसवीर’ की पांडुलिपि सौंप दी और 1958 ई. में मेरा दूसरा संकलन भी छप गया। इसके साथ ही मुझे लगा कि मैं इन लोगों की जमात में शामिल हो गई हूँ-मेरे भीतर एक नई दुनिया आकार लेने लगी, जिसके सम्बन्ध और सरोकार दूर-दूर तक फैले हुए थे।

राजेन्द्र की मित्रता धीरे-धीरे अब दूसरी दिशा में मुड़ गई जिसने हमें नवम्बर, 1959 में विवाह के मुहाने पर ला छोड़ा। पूरा माहौल ही बदल गया। एक ओर जहाँ पुस्तकें, पत्रिकाएँ, साहित्यकारों से मेल-मिलाप, बात बहस लिखने के लिए बहुत प्रेरक लग रहे थे, वहीं दूसरी ओर नौकरी के साथ घर-बाहर की सारी जिम्मेदारी-जिनसे आज तक मैं बिल्कुल मुक्त ही रही थी। राजेन्द्र के साथ सम्बन्धों का तालमेल, शादी के बाद जिसका रूप ही बदल गया था-बाधक भी लग रहे थे। जो भी हो, लिखने का क्रम जैसे-तैसे चल ही रहा था क्योंकि लिखना उन दिनों मेरे लिए इतना कष्टसाध्य नहीं था।

कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ में कुछ दिनों पहले एक प्रयोगात्मक उपन्यास छपा था-‘‘ग्यारह सपनों का देश’, जिसे दस लेखकों ने लिखा था और जो बुरी तरह फ्लॉप हुआ था। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन एक प्रस्ताव लेकर आए कि क्यों न मैं और राजेन्द्र मिलकर ‘ज्ञानोदय’ के लिए एक नया प्रयोगात्मक उपन्यास लिखें, जिसका एक अध्याय राजेन्द्र लिखेंगे तो दूसरा मैं, फिर तीसरा राजेन्द्र लिखेंगे। दोनों लेखक एक ही जगह हैं इसलिए कहानी को मनमाने ढंग से तोड़ने-मरोड़ने झटके देने की गुंजाइश नहीं रहेगी। बातचीत करके कथा की मोटी रूप-रेखा भी पहले से तय की जा सकती है। इस प्रयोग को लेकर वे काफी आश्वस्त थे...कुछ बात बहस के बाद राजेन्द्र भी आश्वस्त हो गए...दुविधा थी तो सिर्फ मेरे मन में। मैं नहीं जानती कि वह दुविधा प्रयोग को लेकर थी या कि आत्मविश्वासहीनता से उपजे अपने असमर्थताबोध को लेकर। जो भी हो, अन्ततः मैं भी तैयार हुई और जनवरी, 1961 से लेकर दिसम्बर, 1961 तक ‘ज्ञानोदय’ में ‘एक इंच मुस्कान’ नाम से हमारा प्रयोगात्मक उपन्यास धारावाहिक रूप से छपा। पहली किस्त लिखकर राजेन्द्र ने इसका आरम्भ किया था तो अन्तिम किस्त लिखकर मैंने इसका समापन।

पर इस पूरे साल में इस उपन्यास, की छह किस्तें लिखने और एक बच्चे को जन्म देने के अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं कर पाई। ये किस्तें भी मैंने कैसे लिखीं सो या तो मैं जानती हूँ या ‘ज्ञनोदय’ के सम्पादक-शरद देवड़ा। खैर, उपन्यास के बीच में ही बच्ची को जन्म देने के बावजूद जैसे-तैसे करके यह जिम्मेदारी तो मैंने निभा ही दी। सन्तोष था तो केवल इतना कि उपन्यास पर प्रतिक्रियाएँ, काफी अनुकूल मिल रही थीं। और पूरा होने पर इस प्रयोग को मात्र सफल ही नहीं माना गया, सराहा भी गया। और आज 40 साल बाद भी इससे मिलनेवाली रॉयल्टी बताती है कि अभी भी इसकी बिक्री ठीक-ठाक ही हो जाती है।

1962 ई. में भैरवप्रसाद गुप्त के ‘नई कहानियाँ’ से त्यागपत्र देने के बाद (कुछ साल पहले ही भैरव जी ‘कहानी’ पत्रिका से नई कहानियाँ में आ गए थे) मुझे ओम्-प्रकाश जी का एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था कि जब तक उन्हें कोई योग्य और सक्षम सम्पादक नहीं मिल जाता तब तक वे दो तीन अंकों का सम्पादन अतिथि सम्पादक से करवाएँगे और उनका अनुरोध था कि पहले अंक का सम्पादन मैं करूँ। दो संकलन छप जाने और कथाकारों की जमात में पूरी तरह स्वीकृत सम्मिलित कर लिए जाने के बाद भी एकाएक इस जिम्मेदारी को लेने का साहस मैं नहीं जुटा पा रही थी।

पता नहीं, सम्पादन मैं कर भी पाऊँगी कि नहीं...मेरे अनुरोध पर कोई कहानी भेजेगा कि नहीं...कहानियाँ आ भी गईं तो अच्छी कहानियों का चुनाव मैं सही ढंग से कर भी पाऊँगी कि नहीं...अनेक शंकाओं से ग्रस्त मेरे मन को स्वीकृति देने में थोड़ा समय लगा पर अन्ततः स्वीकृति दी और फिर दनादन सब लेखकों को कहानी भेजने के लिए पत्र लिखे। अधिकतर प्रमुख लेखकों की पहले सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ मिलीं और फिर धीरे-धीरे कहानियाँ आनी शुरू हुईं। कहानियां भी काफी अच्छे स्तर की आई थीं। मेरे हिसाब से राजेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानी ‘टूटना’ इसी अंक में प्रकाशित हुई थी। अंक अच्छा ही निकला था और इसने मेरे आत्मविश्वास को ही नहीं बढ़ाया बल्कि कहानी के प्रति मुझे कुछ अधिक गम्भीर, कुछ अधिक सचेत भी बनाया।

धीरे-धीरे अब यह समझ में आने लगा कि शीर्षक से लेकर जो कुछ कहना है, वहाँ तक की यात्रा, स्थितियों के अनेक पहलुओं और पात्रों के व्यक्तित्व की अनेक परतों को उनकी सारी बारीकियों के साथ पकड़कर उतने ही संयत, सुन्तलित और सांकेतिक ढंग से उजागर करना ही कहानी लिखना है। लेकिन इस समझ के साथ ही सारे संकट भी आ खड़े हुए। पहले पात्र मेरे साथ-साथ चलते थे पर बाद में तो जैसे सामने आकर खड़े हो जाते-चुनौती देते, ललकारते-से कि पकड़ो, मेरे व्यक्तित्व के किन पक्षों और पहलुओं को पकड़ सकती हो। पहले घटनाएँ अपने आप क्रम से जुड़ती चलती थीं...एक के बाद एक सहज, अनायास पर आज एक परत पकड़ो तो चार परतें और आ उघड़ती हैं-नई संवेदना, नई समझ, नए विश्लेषण की माँग करती हुई।

 अब इकहरे पात्रों की जगह अन्तर्द्वन्द्व में जीते पात्र ही आकर्षित करने लगे। विचारों और संस्कारों के द्वन्द्व के बीच अधर में लटकी ‘त्रिशंकु’ की माँ हो या मातृत्व और स्त्रीत्व के द्वन्द्व के त्रास को झेलती ‘आपका बंटी’ की शकुन। आदर्श और यथार्थ, स्वप्न और वास्तविकता के बीच टूटती चरमराती क्षय की कुंती हो या तीसरा हिस्सा के शेरा बाबू-ऐसे पात्रों के व्यक्तित्व को बिना भावुक हुए तटस्थ भाव से चित्रित करना केवल आकर्षक ही नहीं, चुनौतीपूर्ण भी लगने लगा और लेखन के लिए अनिवार्य भी लेकिन इस बोध ने लेखन को एक कष्टसाध्य कर्म तो बना ही दिया। अब जोश, उमंग और उत्साह से कहानियाँ ‘उगलने’ का सिलसिला बन्द हुआ...और उसकी जगह कहानियाँ ‘लिखने’ का सिलसिला आरम्भ हुआ जिसका आधार होता था-विचार, विवेक और अन्तर्दृष्टि। इसने कहानी लिखने की गति पर ऐसा अंकुश लगाया कि अब एक-एक बैठक में कहानी लिखना सम्भव ही नहीं रहा। कोई घटना, कोई चरित्र या कोई विचार मन को कहानी लिखने के लिए प्रेरित करता तो उस यथार्थ को सृजन की मंजिल तक पहुँचाने के लिए न जाने कितनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़तीं। छोटे-से दायरे के उस यथार्थ को किसी बड़े सन्दर्भ के साथ जोड़ने के लिए न जाने कितने मोड़ लेने पड़ते...मन की न जाने किन-किन भावनाओं को जगाना-सुलाना पड़ता...भाषा-शैली के प्रति भी कैसी सजगता रखनी पड़ती।

आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब मैंने पाया कि अपनी आरम्भिक कहानियाँ जिनमें से कुछ को मैंने एक-एक बैठक में ‘उगला’ था...जिनमें न भाषा का वैसा निखार है, न शैली की वह सजगता और न ही संवेदना की वह गहराई...उनके मूल में भी मेरे जाने-अनजाने रचना की प्रक्रिया तो यही काम कर रही थी। क्या यही कारण नहीं है कि कलकत्ता में रहते हुए सात-आठ साल होने के बावजूद जब मैंने लिखना शुरू किया तो मेरी आरम्भिक कहानियों के सारे पात्र अजमेर के उस ब्रह्मापुरी मोहल्ले से ही उभरकर सामने आए, जहाँ मैंने अपना बचपन और किशोरावस्था गुजारी थी ? ‘अकेली’ कहानी की सोमा बुआ, ‘नशा की आनन्दी, ‘मजबूरी’ की दादी जैसे करुण पात्र हों या फिर दीवार बच्चे और बारिश, की विद्रोही तेवरवाली नायिका-सब ब्रह्मपुरी के जीते जागते लोग हैं...जिन्हें मैंने मात्र देखा ही नहीं था, बल्कि जिनके साथ मैं कहीं गहरे से जुड़ी हुई थी। लिखने का सिलसिला शुरू होते ही नए सन्दर्भ और नए अर्थ लेकर ये सब अपनी पूरी जीवन्तता के साथ मेरे इर्द-गिर्द मँडराने लगे। सोफिया कॉलेज की एक सुनी हुई घटना कि कैसे एक नन ने क्लास में कीट्स की कोई कविता पढ़ाते हुए एक लड़की को बाँहों में भरकर चूम लिया ‘ईसा के घर इंसान’ में बदल गई थी, तो पड़ोस में रहनेवाले कवि सरसयोगी की रस ले लेकर सुनाई गई अपनी ही कथा कील और कसक में। स्वयं एक सफल जीवन जीने और सारे बच्चों को सही ढर्रे से लगा देने की परम तृप्ति से ओपप्रोत छत बनानेवाले’ के ताऊजी मेरे अविवाहित जीवन पर तरस खाते और पिताजी की जीवन-पद्धति की धज्जियाँ बिखेरते वैसे ही रौब-दाब और तेवर का साथ मेरे सामने आ खड़े हुए थे, जैसा मैंने उन्हें देखा था।

घटना और रचना के बीच अन्तराल का यह सिलसिला आगे भी चलता रहा और बाद में तो जैसे मेरे लेखन की अनिवार्यता बन गया। कोई भी घटना, पात्र, स्थिति या ‘आइडिया’ ‘क्लिक’ करते ही डायरी के पन्ने के साथ-साथ मन के किसी पन्ने पर भी अँक जाता है। थोड़ा समय गुजरने के बाद ‘रॉ-मैटीरियल’ के इस गोदामघर में से बहुत कुछ तो धुल-पुँछ जाता है, अप्रासंगिक और निरर्थक लगता है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी होता है जो समय के साथ-साथ भीतर और भीतर उतरता चलता है और उसमें पता नहीं कौन-से रसायन मिलते रहते हैं कि ‘वह’ धीरे-धीरे ‘मैं’ में तब्दील होने लगता है और फिर यह भीतरी ‘मैं’ बाहर के न जाने कितने अनेक ‘मैं’ के साथ जुड़ता चलता है...। ये सारे बाहरी ‘मैं’ उस भीतरी ‘मैं’ में निरन्तर कुछ न कुछ जोड़ते-घटाते चलते हैं। बाहर-भीतर की यह यात्रा...‘मैं’ और ‘वह’ के एक दूसरे में तब्दील होने की यह प्रक्रिया कब और कैसे घटित होती है, इसका कोई स्पष्ट बोध तो मुझे भी नहीं रहता। बोध तो उस समय होता है, जब अनेक ‘मैं’ का यह बोझ मेरी रचनात्मकता को बुरी तरह कुरेद-उकसाकर एक रचना को जन्म देता है। वह तैयार रचना अपने मूलरूप से (जिसका आधार कोई वास्तविक घटना या व्यक्ति ही होता है) इतनी भिन्न हो चुकी होती है कि कभी-कभी तो मेरे अपने लिए भी पहचानना मुश्किल हो जाता है। मूल घटना तो  अक्सर ‘स्टार्टिंग प्वाइंट’ भर का काम करती है।

समय के अन्तराल की यह अनिवार्यता एक स्तर पर मेरी सीमा भी हो सकती है। कानपुर में पंखे से लटककर तीन बहनों ने आत्महत्या कर ली...‘‘कैसी दिल दहला देनेवाली घटना और महिला होने के बावजूद तुम्हारी क़लम से एक कहानी तक नहीं फूटी...बिल्कुल असंवेदनशील हो तुम।’’ किसी ने बड़ी भर्त्सना की थी। आए दिन दिल दहला देनेवाली घटनाओं से अख़बार भरे रहते हैं...बहुत कुछ तो आँखों के नीचे भी होता रहता है, फिर भी कहानी नहीं लिखी जाती तो क्या यह मेरी सीमा नहीं है...? शायद हो। लेकिन कहानी को अख़बारी खबरों से अलगाकर रखना मेरी मजबूरी भी तो हो सकती है।
अपनी इस रचना-प्रक्रिया के दौरान कुछ बातें अनायास ही मेरे सामने उजागर होकर उभरीं। अपने भीतरी ‘मैं’ के अनेक-अनेक बाहरी ‘मैं’ के साथ जुड़ते चले जाने की चाहना में मुझे कुछ हद तक इस प्रश्न का उत्तर भी मिला कि मैं क्यों लिखती हूँ ? जब से लिखा आरम्भ किया, तब से न जाने कितनी बार इस प्रश्न का सामना हुआ, पर कभी भी कोई सन्तोषजनक उत्तर मैं अपने को नहीं दे पाई तो दूसरों को क्या देती ?

इस सारी प्रक्रिया ने मुझे उत्तर के जिस सिरे पर ला खड़ा किया, वही एकमात्र या अन्तिम है, ऐसा दावा तो मैं आज भी नहीं कर सकती, लेकिन यह भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू तो है ही। किसी भी रचना के छपते ही इस इच्छा का जगना कि अधिक से अधिक लोग इसे पढ़ें, केवल पढ़ें ही नहीं, बल्कि इससे जुड़ें भी संवेदना के स्तर पर उसके भागीदार भी बनें यानी कि एक की कथा-व्यथा अनेक की बन सके, बने...केवल मेरे ही क्यों, अधिकांश लेखकों के लिखने के मूल में एक और अनेक के बीच सेतु बनने की यह कामना ही निहित नहीं रहती ? हालाँकि यह भी जानती हूँ कि यह पाठक-पिपासा आपको आसानी से ‘लोकप्रिय साहित्य’, चाहें तो व्यावसायिक भी कह लें, के विवादास्पद मुहाने पर ले जाकर खड़ा कर सकती है।

 एक वर्ग है हमारे यहाँ पाठक-निरपेक्ष लेखकों का, जिसकी मान्यता है कि पाठकों की सीमित संख्या ही रचना की उत्कृष्टता का पैमाना है...हल्की और चलताऊ रचनाओं को ही बड़ा पाठक वर्ग मिलता है। इस दृष्टि से तो प्रेमचन्द की रचनाओं को सबसे पहले ख़ारिज कर देना चाहिए। उनकी लोकप्रियता, दूर दराज़ गाँवों तक फैला पसरा उनका व्यापक पाठक वर्ग, हर पीढ़ी के कथाकारों के एक बड़े समुदाय की उनके साथ जुड़ने की ललक-ये सब किस बात के सूचक हैं ? मैं नहीं सोचती कि लोकप्रियता कभी भी रचना का मानक बन सकती है। असली मानक तो होता है रचनाकार का दायित्व-बोध, उसके सरोकार, उसकी जीवन-दृष्टि और उसकी कलात्मक निपुणता। यहाँ कलात्मक निपुणता को मैं पूरे बलाघात के साथ ज़रूर रेखांकित करना चाहूँगी, क्योंकि यही आपके गहरे से गहरे यथार्थ-बोध को संवेदना के धरातल तक ले जाती है। आपके अनुभव को ‘रचना’ की ऊँचाइयों तल ले जाती है।

जो भी हो, मेरे अपने लिए पाठक की बहुत अहमियत है। वह पाठक कौन है, कैसा है, कहाँ है, इसका कोई अहसास रचना करते समय मुझे नहीं होता, न ही अदृश्य पाठक मेरे लेखन की दिशा निर्धारित करता है-बिल्कुल नहीं। उसकी भूमिका तो रचना छपने के बाद शुरू होती है। उसने रचना को कैसे ग्रहण किया....मेरे पात्रों के साथ, उसकी अपनी संवेदना के साथ उसकी संवेदना एकमेक हुई या नहीं, जिन स्थितियों और समस्याओं को मैंने उठाया, उन्होंने उसे झकझोरा या नहीं...कुछ सोचने को मजबूर किया या नहीं...इसे ही कसौटी मानती हूँ मैं अपनी रचना की सफलता सार्थकता की।
 

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