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नाटक-एकाँकी >> रुदाली

रुदाली

उषा गांगुली

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2812
आईएसबीएन :81-7119-767-1

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समाज के निम्नस्तर वर्ग में स्त्री-जीवन की एक लोमहर्षक विडम्बना पर आधारित नाटक...

Rudali

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘रुदाली’ बांग्ला की विख्यात लेखिका महाश्वेता देवी की एक प्रसिद्ध कहानी पर आधारित नाटक है। अनेक मंचों पर सफलतापूर्वक खेले जा चुके इस नाट्य रूपांतर की लोकप्रियता आज भी उतनी ही है।
नाटक का केन्द्रीय चरित्र सनीचरी है जिसे शनिवार के दिन पैदा होने के कारण यह नाम मिला है और इसके साथ मिली हैं कुछ सजाएँ-समाज मानता है कि वह असगुनी है और इसके लिए उसके परिवार में कोई नहीं बच पाया। एक-एक कर के सब काल की भेंट चढ़ गए।

लेकिन सनीचरी की आँखें कभी नम न हुईं। वह कभी नहीं रोई, जब बेटा मरा तब भी नहीं। लेकिन अंततः उसे रुदाली का काम करना पड़ता है, रुदाली यानी वह स्त्री जो भाड़े पर रोती है, मेहनताना लेकर मातम करती है।
एक पात्र के रूप में सनीचरी उस तबके का प्रतिनिधित्व करती है जिसके पास न चुनाव की स्वतंत्रता होती है, न निश्चिंत न होने के साधन, लेकिन वह कभी टूटती नहीं, उसकी जिजीविषा बराबर उसका साथ देती है। वह अपना सहारा खुद का बनती है, जो जाहिर है कि उसका अन्तिम विकल्प होता है।
समाज के निम्नवर्ग में स्त्री जीवन का एक लोमहर्षक विडम्बना को रेखांकित करता यह नाटक शिल्प के स्तर पर भी एक सम्पूर्ण नाट्य-कृति है।



रुदाली



सनीचरी का घर। स्टेज राइट में सनीचरी बैठी चक्की पीस रही है। स्टेज लेफ्ट सनीचरी का बीमार बेटा बुधुआ चारपाई पर लेटा हुआ है। बुधुआ का बेटा हरुआ चारपाई के नीचे पेटके बल लेटा खिलौने से खेल रहा है। सनीचरी की बूढ़ी सास सोमरी गुदड़ी से लिपटी सोई है।

सोमरी :रोटी दे। अरी ओ सनीचरी, रोटी दे न।

(सनीचरी चक्की चलाती रहती है। सोमरी धीरे-धीरे सोई हुई, सनीचरी की तरफ घूमती है।)

सोमरी : ससुरी तेरे कान में कीड़ा घुस गिया है का ?

(सनीचरी चक्की चलाती रहती है। बुधुआ खाँसता है, करवट बदलता है। सोमरी धीरे-धीरे उठकर बैठती है।

सोमरी : अरी ओ डाइन काहे भूखा मारती है ? रोटी दे न।
सनीचरी: परबतिया आएगी तो पकाएगी।
सोमरी : कब आएगी ?
सनीचरी : हमको नहीं मालूम।
सोमरी : आटा तो है, तू ही बना दे न।
सनीचरी : तो रोटी कउन पकाएगा ? दूसरे का आटा से इनको रोटी बना दें। पिसाई मिलेगा तो रोटी बनेगा।

(बुधुआ जोर-जोर से खाँसता है।)

सनीचरी: बुधुआ, अरे ओ बुधुआ। परबतिया आई नहीं अभी तक ?
बुधुआ : आ जाएगी, चिन्ता काहे करती है ?
सनीचरी : कितना मना किया हाट न हाट न भेजो, न भेजो। अब दिन भर मँडराती रहेगी।
बुधुआ : घर में बैठकर का करती ?

सनीचरी : काहे हम घर बैठकर चक्की नहीं चलाते, गोबर नहीं पाथते, जंगल से लकड़ी काटकर नहीं लाते ? ई कहो कि उसका दीदा ही नहीं लगता घर में।
बुधुआ : तू तो सब जानती है अम्मा। हाट जाती है, सब्जी से पैसे चुराकर अंट-संट खाती है।
सनीचरी : हाँ कह दे कह दे खाने को नहीं देते ?
बुधुआ : उसकी भूख बहुत बड़ी है, अम्मा।
 
(बुधुआ करवट बदलता है।)

सोमरी : न वो राँड़ आएगी न रोटी पकेगी।
(सनीचरी सोमरी को घूमकर कड़ी निगाहों से देखती है, फिर चक्की पीसने लग जाती है।)
बुधुआ : (खाँसते हुए) अम्मा, ओ अम्मा, परबतिया कह रही थी कि लछमन सिंह के यहाँ काम पर जाएगी।

(चक्की रुक जाती है।)

सनीचरी : (बुधुआ को देखकर) नाहीं।
बुधुआ : काहे ?
सनीचरी : हमसे पूछता है काहे ? जवान औरत जब लछमन सिंह के यहाँ काम पर जाती है, तो सीधे रंडी टोला में जा के बैठती है।

(बाहर से किसी बच्ची की आवाज सुनाई पड़ती है।)
 
बच्ची : चाची ओ चाची, चार कंडा लेई लें (सनीचरी जवाब नहीं देती। चक्की चलाती रहती है) अम्मा जलावन के लिए माँगी है।
सनीचरी : पिछले हफ्ता तुम्हारी अम्मा ने चार सेर चना पिसवाय लिया। पइसा दिया, न पिसाई, कंडा माँगने चली आई।
बुधुआ : दे दे न अम्मा।
जारे हरुआ गिनकर चार कंडा देई दे।
(बच्चा चारपाई के नीचे से निकलकर जाता है। गिनकर कंडे देता है। बच्ची हरुआ से उसके खिलौने छीनती है।)
हरुआ : देख ददिया, हमरा खिलौना छीनती है।
सनीचरी :भाग चोट्टी यहाँ से। जा रे हरुआ अपने बाप के पास बैठ।
हरुआ जाकर चारपाई पर बुधुआ के पास बैठता है।
सोमरी : अरे नासपीटी देगी नहीं कुछ।

बुधुआ : (जोर से खाँसते हुए) ए अम्मा दे न माई को कुछ।
सनीचरी: का दूँ ? तुम्हारी बहुरिया पसेरी भर रोटी पका के गई है जो परोस दूँ।
सोमरी : हरामजादी देखना तेरी लहास को गीदड़ खाएँगे।
सनीचरी : हाँ मैं हरामजादी हूँ, डाइन हूँ, मेरी लहास को गीदड़ खाएँगे-और कुछ बोलना है ?
सोमरी : हाँ बोलना है-रोटी दे।
सनीचरी : हाय मोरी मैया।

(अपना सिर चक्की की लकड़ी पर धरती है। फिर दुगने वेग से चक्की पीसती है। बुधुआ जोर-जोर से खाँसता है। सनीचरी उठकर बुधुआ को पानी पिलाती है।)

बुधुआ : (पानी पीकर) हे भगवान।
सनीचरी : भगवान होते तो तुम्हारी बीमारी हमको लग जाती।
बुधुआ : ऐसा काहे बोलती है, अम्मा। तू जिन्दा रहेगी तो हमरा बेटा जिन्दा रहेगा।
सनीचरी : और हम....।
सोमरी : तू सबको मारकर जिन्दा रहेगी डाइन। ससुर, जेठ, आदमी सबको डकारे बैठी है। अब बेटा को खाएगी।
सनीचरी : ज्यादा बकर-बकर मत करो।

(सनीचरी लोटा घड़े पर रखती है। वापस चक्की पर जाकर बैठती है।)

सोमरी : काहे न करें-सनीचर को जनम हुआ सनीचरी, खाएगी नहीं सबको।
सनीचरी : तू कौन सा सुख पा गई सोमरी ? तू तो सोमवार को पैदा हुई थी। अरे मंगली, बुधनी, बिसरी सबका हाल देख लिया हमने। हम से कोई नहीं पूछता कि खाया कि नहीं। दिन-भर खाऊँ-खाऊँ। जैसे बाप तुम्हरे सौ मन अनाज धर गए हैं। अब एक आवाज भी निकाली तो सीधे टेंटुआ दबा देंगे।

(सोमरी सनीचरी को देखती है। फिर धीरे-धीरे घूरकर सो जाती है। सनीचरी चक्की पीसने लगती है। हरुआ चारपाई पर बुधुआ के साथ खेलता है। परबतिया का प्रवेश। बच्चे को चारपाई पर बैठा देखती है। गुस्से में जाकर बच्चे को उठाकर जमीन पर पटकती है।)

परबतिया : बाप हो कि दुसमन ?
सनीचरी : का हुआ ?
परबतिया : का हुआ ? छूत का बीमारी और बच्चा को लगाए बैठे हो छाती से।
सनीचरी : इतना ही दरद है तो हाट में काहे मस्ता रही थी ? सारा घर भूखा बैठा है।
परबतिया : घर भर को खिलाने का ठेका लिया है का ? (टोकरी उठाकर रसोई की तरफ बढ़ती है)-तरकारी बेचने गए थे हाट माँ।
सनीचरी : तरकारी बेचने गई थी या...। ला पइसा दे।
परबतिया : पैसा देती है-लेओ दुई रुपइया।
सनीचरी : इतना बैगन, इतना मिर्चा और दुई रुपइया। ला देखें कुछ बच गिया है का ?

(सनीचरी टोकरी पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाती है। परबतिया टोकरी पीछे कर लेती है। दोनों में छीना-झपटी। टोकरी के भीतर से रंगीन चुटिया और चूड़ी निकलती है।)

सनीचरी : हाय हाय। घर भर भूखा बैठा रहे और महारानी सिंगार पिटार करें ? कहाँ से लाई ये चुटिया और चूड़ी ?
परबतिया ? बाजार से, अउर कहाँ से।
सनीचरी : पइसा कउन दिया। तरकारी का पइसा से खरीदा।
(बहू चुप)— बोलती काहे नहीं कउन पइसा दिया ?

(सनीचरी आगे बढ़कर परबतियाके बाल पकड़ती है।)

बुधुआ : छोड़ दे न अम्मा।
परबतिया (बाल छुड़ाकर) खबरदार जो हमको हाथ लगाया। दुई रोटी देने का हिम्मत, नहीं, साली बाल खींचती है।
सनीचरी : हजार बार खींचूँगी। मरद खटिया पर पड़ा है और साली को रंगीन चुटिया चाहिए।
परबतिया : तुमको मिर्चा काहे लगती है हमरे मरद की अम्मा। मरद...बड़ा आया मरद कहीं का। भर पेट खिला नहीं सकता, बनता है मरद का बच्चा।
सनीचरी : देख परबतिया, साफ-साफ बता दे, ई सब कउन दिया तुझको ?
परबतिया : कोई नहीं दिया। अपना कमाई से खरीदा। लछमन सिंह का लकड़ी चीरा-पइसा मिला, ओही पइसा से खरीदा।
सनीचरी : साली, फिर लछमन सिंह के हियाँ गई थी। हजार बार मना किया, उस शौतान के हियाँ मरने गई थी।
परबतियाँ: सैतान है तो का हुआ ? मरद तो है। इसकी तरह दिन भर खौ खौं तो नहीं करता।



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