स्वास्थ्य-चिकित्सा >> कार्यक्षमता के लिए आयुर्वेद और योग कार्यक्षमता के लिए आयुर्वेद और योगविनोद वर्मा
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विभिन्न भोज्य पदार्थो और मसालों से सन्तुलित करने की प्रविधियाँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
डॉ. विनोद वर्मा के वर्षों के शोध और परिश्रम का निष्कर्ष यह पुस्तक
स्वास्थ की देख भाल के लिए विरोधी उपायों और दूसरे स्वावलम्बी तरीकों के
विषयों में सम्पूर्ण जानकारी देती है। लेखिका के विदेशों के आयुर्वेद की
शिक्षा, आयुर्वेद के योग के लम्बे समय तक अध्ययन तथा अन्तराष्ट्रीय स्तर
पर अनुसन्धान अनुभव इस पुस्तक को महत्वपूर्ण कृति बनाते हैं।
दफ्तर में तनाव मुक्त वाता वरण कैसे बने, इसके लिए डॉ. विनोद वर्मा की पहली सलाह दैनिक योगाभ्यास है- एक ऐसा आसान सा व्यायाम जो आपके पूरे दिन से मात्र 16 मिनट चाहता है। आगे डॉ. वर्मा आयुर्वेद के आधार पर तीन मूलभूत व्यक्ति-प्रकारों पर प्रकाश डालती हैं, ताकि आप अपने सहकर्मियों का भली-भाँति अध्ययन कर सकें है। इस पुस्तक में आप अपने प्रकार को विभिन्न भोज्य पदार्थ और मसालों से सन्तुलित करने की प्रविधियाँ भी जानेगें। निःसन्देह, यह कोई भोजन निर्देशिका नहीं है, यह पुस्तक केवल आप को बताती है कि अपनी क्षमताओं के अधिकाधिक प्रयोग के लिए आप अपनी ऊर्जा का समुचित सन्तुलित कैसे प्राप्त करें। आयुर्वेद की नजर से देखें तो भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं है, वह आप की ऊर्जा के पुर्नसन्तुलन के लिए एक महत्वपूर्ण साधन भी है।
डॉ. विनोद वर्मा व्यावहारिक अध्यापिका हैं। वे दुनियाँ के कई हिस्सों में पढ़ाती रही हैं। अनेक भाषाओं में उनकी पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित व चर्चित हो चुके हैं। इसके अलावा उनके पास अनुभवों का खजाना है और अत्यन्त तनाव कारी व्यस्तता के साथ एक स्वस्थ जीवन-शैली के निर्वाह की कला भी। जिस पाँच हजार साल पुरानी जीवन पद्धति की वे शिक्षा देते हैं, उसे वे अन्य असंख्य लोगों के साथ-साथ अपने ऊपर भी सफलतापूर्वक आजमा चुकी हैं। क्यों न भी आजमाएँ ? यदि आप कार्य तत्पर प्रकृति के व्यक्ति हैं तो इस पुस्तक का अध्ययन आपको हर प्रकार से लाभान्वित करेगा।
दफ्तर में तनाव मुक्त वाता वरण कैसे बने, इसके लिए डॉ. विनोद वर्मा की पहली सलाह दैनिक योगाभ्यास है- एक ऐसा आसान सा व्यायाम जो आपके पूरे दिन से मात्र 16 मिनट चाहता है। आगे डॉ. वर्मा आयुर्वेद के आधार पर तीन मूलभूत व्यक्ति-प्रकारों पर प्रकाश डालती हैं, ताकि आप अपने सहकर्मियों का भली-भाँति अध्ययन कर सकें है। इस पुस्तक में आप अपने प्रकार को विभिन्न भोज्य पदार्थ और मसालों से सन्तुलित करने की प्रविधियाँ भी जानेगें। निःसन्देह, यह कोई भोजन निर्देशिका नहीं है, यह पुस्तक केवल आप को बताती है कि अपनी क्षमताओं के अधिकाधिक प्रयोग के लिए आप अपनी ऊर्जा का समुचित सन्तुलित कैसे प्राप्त करें। आयुर्वेद की नजर से देखें तो भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं है, वह आप की ऊर्जा के पुर्नसन्तुलन के लिए एक महत्वपूर्ण साधन भी है।
डॉ. विनोद वर्मा व्यावहारिक अध्यापिका हैं। वे दुनियाँ के कई हिस्सों में पढ़ाती रही हैं। अनेक भाषाओं में उनकी पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित व चर्चित हो चुके हैं। इसके अलावा उनके पास अनुभवों का खजाना है और अत्यन्त तनाव कारी व्यस्तता के साथ एक स्वस्थ जीवन-शैली के निर्वाह की कला भी। जिस पाँच हजार साल पुरानी जीवन पद्धति की वे शिक्षा देते हैं, उसे वे अन्य असंख्य लोगों के साथ-साथ अपने ऊपर भी सफलतापूर्वक आजमा चुकी हैं। क्यों न भी आजमाएँ ? यदि आप कार्य तत्पर प्रकृति के व्यक्ति हैं तो इस पुस्तक का अध्ययन आपको हर प्रकार से लाभान्वित करेगा।
हिन्दी संस्करण की भूमिका
आयुर्वेद का विस्तार आज विश्व-भर में हो रहा है। यह हम भारतवासियों के लिए
एक अत्यन्त गर्व का विषय है। इसके साथ-साथ इस तथ्य की भी अवहेलना नहीं की
जा सकती कि हमारे शहरों में यह पुराना स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान-विज्ञान
लुप्त होता जा रहा है। अनेक बार कुछ ‘उच्च श्रेणी’ के
पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करने वाले दिल्ली के लोगों ने मुझसे पूछा,
‘‘आपका अर्थ आयुर्वेद से यह है कि आप हरबल मैडिसिन के
बारे में पढ़ाती हैं ?’’
आयुर्वेद वह ज्ञान और विज्ञान है जिसका जीवन के साथ सम्बन्ध है। पंचभूत (आकाश, वायु, अग्नि, पानी, धरती) जो यह सारे ब्रह्माण्ड को बनाते हैं, वह ही शरीर की रचना करते हैं। आत्मा की उपस्थिति से शरीर चेतन होता है। इस चेतन शरीर के संचालन के लिए पंचभूत शरीर में वात, पित्त और कफ का रूप ले लेते हैं। इसके अतिरिक्त शरीर में मन और बुद्धि है जिसका त्रिरूप सत्व, रजस और तमस है। इन छह तत्त्वों में सन्तुलन बनाए रखना ही स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य शारीरिक तथा मानसिक सन्तुलन होता है। स्वास्थ्य अपने कार्य, जीवन, घरेलू जीवन, सामाजिक जीवन तथा आध्यात्मिक जीवन में सन्तुष्टि का नाम है। असन्तुष्टि रोगों की जड़ होती है।
‘हर्बल मैडिसिन’ यानी जड़ी-बूटियों द्वारा रोगों का उपचार, एक ज्ञान है, विज्ञान नहीं है। नीम के काढ़े से बुखार उतर जाएगा। किन्तु शरीर में वात बढ़ जाएगी, दर्द होगा, गला सूखेगा, अनिद्रा भी हो सकती है। हमारे आयुर्वेद के ज्ञाता नीम का काढ़ा गुड़ तथा अजवायन के साथ देंगे ताकि शारीरिक सन्तुलन बना रहे।
जैसा कि मैंने ऊपर कहा, शारीरिक स्तर पर रोग उपचार के अतिरिक्त, आयुर्वेद में जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर ध्यान दिया जाता है। आयुर्वेद हमें सुचारू तथा सन्तुष्टिमय जीवन जीने के विभिन्न ढंग बताता है। आयुर्वेद के इन्हीं पहलुओं में से एक है कार्यक्षमता, सुगमता और कार्य से सन्तुष्टि की प्राप्ति है।
हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य-स्थल पर या कार्य में 16 जाग्रत घंटों में से कम-से-कम आधा समय बिताता है। कार्य की क्षमता को बढ़ाकर, उसमें सुगमता लाकर तथा वहां प्रसन्नचित रहकर (जो कि अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी है) हम अपना जीवन का स्तर बदल सकते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार, मनुष्य भिन्न-भिन्न प्रकृति के होते हैं। मनुष्य की प्रकृति उसके शारीरिक और मानसिक भावों का सूचक होती है। इस प्रकृति ज्ञान पर आधारित हम कार्य-स्थल पर भिन्न-भिन्न व्यक्ति के परस्पर मेल-जोल करने की व्यवस्था कर सकते हैं। हम लोगों को उनकी प्रकृति के अनुसार कार्य वितरण कर सकते हैं।
आयुर्वेद तथा योग के साधारण तरीकों द्वारा प्रतिदिन कुछ मिनट अपनी स्वास्थ्य रक्षा तथा शक्तिवर्द्धन के लिए लगाकर हम कई घंटों की बचत कर सकते हैं। भयानक बीमारियों से भी अधिक कार्यक्षमता कम करने वाली वह स्थिति है जिसमें लोग थके-माँदे रहते हैं, उनमें शक्ति और बल की कमी होती है और वह इन सबके कारणों से भी अनभिज्ञ होते हैं।
मेरी इस पुस्तक का ध्येय आयुर्वेद का सुनहरा युग फिर से लाना है जिससे प्रत्येक मनुष्य को व्यक्तिगत स्तर पर लाभ हो सके तथा समाज और मनुष्य जाति की भलाई हो सके।
यह पुस्तक जर्मन में दो वर्ष पूर्व तथा अंग्रेजी में अमेरिका से इस वर्ष (1999) में प्रकाशित हुई है। अंग्रेजी में इसका नाम है, ‘‘Sixteen Minutes to a better 9 to 5’’-यह भारत में उपलब्ध है।
पाठकों से निवेदन है कि वे अपने सुझाव तथा अनुभव लिखते रहें।
19 अगस्त, 1999
आयुर्वेद वह ज्ञान और विज्ञान है जिसका जीवन के साथ सम्बन्ध है। पंचभूत (आकाश, वायु, अग्नि, पानी, धरती) जो यह सारे ब्रह्माण्ड को बनाते हैं, वह ही शरीर की रचना करते हैं। आत्मा की उपस्थिति से शरीर चेतन होता है। इस चेतन शरीर के संचालन के लिए पंचभूत शरीर में वात, पित्त और कफ का रूप ले लेते हैं। इसके अतिरिक्त शरीर में मन और बुद्धि है जिसका त्रिरूप सत्व, रजस और तमस है। इन छह तत्त्वों में सन्तुलन बनाए रखना ही स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य शारीरिक तथा मानसिक सन्तुलन होता है। स्वास्थ्य अपने कार्य, जीवन, घरेलू जीवन, सामाजिक जीवन तथा आध्यात्मिक जीवन में सन्तुष्टि का नाम है। असन्तुष्टि रोगों की जड़ होती है।
‘हर्बल मैडिसिन’ यानी जड़ी-बूटियों द्वारा रोगों का उपचार, एक ज्ञान है, विज्ञान नहीं है। नीम के काढ़े से बुखार उतर जाएगा। किन्तु शरीर में वात बढ़ जाएगी, दर्द होगा, गला सूखेगा, अनिद्रा भी हो सकती है। हमारे आयुर्वेद के ज्ञाता नीम का काढ़ा गुड़ तथा अजवायन के साथ देंगे ताकि शारीरिक सन्तुलन बना रहे।
जैसा कि मैंने ऊपर कहा, शारीरिक स्तर पर रोग उपचार के अतिरिक्त, आयुर्वेद में जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर ध्यान दिया जाता है। आयुर्वेद हमें सुचारू तथा सन्तुष्टिमय जीवन जीने के विभिन्न ढंग बताता है। आयुर्वेद के इन्हीं पहलुओं में से एक है कार्यक्षमता, सुगमता और कार्य से सन्तुष्टि की प्राप्ति है।
हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य-स्थल पर या कार्य में 16 जाग्रत घंटों में से कम-से-कम आधा समय बिताता है। कार्य की क्षमता को बढ़ाकर, उसमें सुगमता लाकर तथा वहां प्रसन्नचित रहकर (जो कि अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी है) हम अपना जीवन का स्तर बदल सकते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार, मनुष्य भिन्न-भिन्न प्रकृति के होते हैं। मनुष्य की प्रकृति उसके शारीरिक और मानसिक भावों का सूचक होती है। इस प्रकृति ज्ञान पर आधारित हम कार्य-स्थल पर भिन्न-भिन्न व्यक्ति के परस्पर मेल-जोल करने की व्यवस्था कर सकते हैं। हम लोगों को उनकी प्रकृति के अनुसार कार्य वितरण कर सकते हैं।
आयुर्वेद तथा योग के साधारण तरीकों द्वारा प्रतिदिन कुछ मिनट अपनी स्वास्थ्य रक्षा तथा शक्तिवर्द्धन के लिए लगाकर हम कई घंटों की बचत कर सकते हैं। भयानक बीमारियों से भी अधिक कार्यक्षमता कम करने वाली वह स्थिति है जिसमें लोग थके-माँदे रहते हैं, उनमें शक्ति और बल की कमी होती है और वह इन सबके कारणों से भी अनभिज्ञ होते हैं।
मेरी इस पुस्तक का ध्येय आयुर्वेद का सुनहरा युग फिर से लाना है जिससे प्रत्येक मनुष्य को व्यक्तिगत स्तर पर लाभ हो सके तथा समाज और मनुष्य जाति की भलाई हो सके।
यह पुस्तक जर्मन में दो वर्ष पूर्व तथा अंग्रेजी में अमेरिका से इस वर्ष (1999) में प्रकाशित हुई है। अंग्रेजी में इसका नाम है, ‘‘Sixteen Minutes to a better 9 to 5’’-यह भारत में उपलब्ध है।
पाठकों से निवेदन है कि वे अपने सुझाव तथा अनुभव लिखते रहें।
19 अगस्त, 1999
विनोद शर्मा
1
स्वास्थ्य: भीतर से बाहर की ओर यात्रा
दैनिक जीवन में प्रायोगिक पक्षों को कार्यान्वित करने से पहले आयुर्वेद के
बुनियादी दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है। जीवन के प्रति हमारा आधुनिक
पश्चिमी दृष्टिकोण विखंडित है; हमने मानव-अस्तित्व के विभिन्न पक्षों को
अलग-अलग खाँचों में विभाजित किया हुआ है। अब हम जीवन और स्वास्थ्य के
समग्र दृष्टिकोण को देखेंगे, क्योंकि आयुर्वेदिक पद्धति का आधार यही है।
स्वास्थ्य के नियम
स्वास्थ्य के नियम आधारभूत ब्रह्मांडीय एकता पर निर्भर है। ब्रह्मांड एक
सक्रिय इकाई है, जहाँ प्रत्येक वस्तु निरन्तर परिवर्तित होती रहती है; कुछ
भी अकारण और अकस्मात् नहीं होता, और प्रत्येक कार्य का प्रयोजन और
उद्देश्य हुआ करता है। स्वास्थ्य को व्यक्ति के स्व और उसके परिवेश से
तालमेल के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। विकृति या रोग होने के कारण
व्यक्ति के स्व का ब्रह्मांड के नियमों से ताल-मेल न होना है। आप एक
व्यक्ति के तौर पर, इन परिवर्तनशील ब्रह्मांड का हिस्सा हैं, और बेहतर
स्वास्थ्य बनाए रखने के क्रम में, आपको ब्रह्मांड के लय के साथ संगति
बिठाने का प्रयास करना होगा। साधारण शब्दों में, आपको जीवन का ऐसा मार्ग
अपनाना चाहिए, जिसका ब्रह्मांड के आधारभूत नियमों से तालमेल हो। आप, एक
व्यक्ति के तौर पर, एक अविभाज्य इकाई हैं, जिसे छोटे-मोटे हिस्सों में
नहीं बाँटा जा सकता, और न ही ब्रह्मांड से अलग एक स्वतंत्र इकाई के रूप
में देखा जा सकता है।
स्वास्थ्य की देखभाल का आधुनिक दृष्टिकोण अलग-अलग नियमों पर आधारित है, और यह आयुर्वेद के समग्र दृष्टिकोण के विपरीत है, जो कि पूरी तरह से विभाजित है। मानव शरीर की तुलना एक ऐसी मशीन के रूप में की गई है जिसके अलग-अलग भागों का विश्लेषण किया जा सकता है। रोग को शरीर रूपी मशीन के किसी पुरजे में खराबी के तौर पर देखा जाता है। देह की विभिन्न प्रक्रियाओं को जैविकीय और आणविक स्तरों पर समझा जाता है, और उपचार के लिए, देह और मानस को दो अलग-अलग सत्ता के रूप में देखा जाता है। प्रकृति को विकृति में परिवर्तित करने में संयोग का महत्त्वपूर्ण हाथ है।
पश्चिम की आधुनिक चिकित्सा पद्धति के अनुसार, सभी मनुष्य एक समान समझे जाते हैं। आयुर्वेद के मतानुसार, शेष प्रकृति के समान मनुष्य भी नित्य-परिवर्तनशील, सक्रिय प्राणी है। वे अपने मूलभूत गठन या प्रकृति में (जिसका अर्थ शारीरिक प्रतिक्रियाएँ और व्यक्तित्व है) अलग-अलग होते हैं।
स्वास्थ्य की आयुर्वेद सम्मत अवधारणा बहुत व्यापक है। यह सम्भव है कि आप स्वयं को स्वस्थ समझते हों, क्योंकि आपका शारीरिक रचनातन्त्र ठीक ढंग से कार्य करता है, फिर भी आप विकृति की अवस्था में हो सकते हैं अगर आप असन्तुष्ट हों, शीघ्र क्रोधित हो जाते हों, चिड़चिड़ापन या बेचैनी महसूस करते हों, गहरी नींद न ले पाते हों, आसानी से फारिग न हो पाते हों, उबासियाँ बहुत आती हों, या लगातार हिचकियाँ आती हो, इत्यादि।
हाल ही के कुछ वर्षों में हमारे भूमण्डल से जुडी कुछ विध्वंसक घटनाओं ने हमें आधुनिक विज्ञान के खंडित या अपूर्ण दृष्टिकोण पर ध्यान देने को विवश कर दिया है। ओजोन की परत में छिद्र, चेरनोबिल की आणविक दुर्घटना, और खाड़ी युद्ध ने हमें महसूस करा दिया है कि इन भूमण्डलीय घटनाओं का दुष्प्रभाव कहाँ तक हो सकता है। इन घटनाओं का मनुष्य के स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है और इसका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों पर पड़ेगा।
ब्रह्मांडीय वास्तविकता की कुंडली के रूप में कल्पना करें। हमारा भौतिक अस्तित्व इस कुंडलाकार चक्र का अन्तर्तम भाग है।2 इसके बाद हमारा निकटतम वातावरण आता है, जैसे परिवार और घनिष्ठ मित्र। फिर हमारी सामाजिक परिस्थितियाँ, हमारा कार्य-स्थल और बाह्य संसार से हमारा प्रतिदिन का लेन-देन आता है। इसके ठीक बाद हमारा विस्तृत वातावरण जैसे देश और भूमण्डलीय वातावरण आता है। और अन्तत: ब्रह्मांडीय वातावरण आता है। इस प्रकार वास्तविकता की अनेक परतें जो परस्पर संयुक्त, एक-दूसरे से सम्बन्धित और स्वतन्त्र हैं, आपस में खुलती हैं।
मानव देह की प्रत्येक कोशिका अपने आपमें एक संसार है। यह बनाने, रचना करने, पचा सकने और नष्ट करने जैसा बहुत कुछ कर सकती है। कोशिकाएँ मिलकर एक अंग विशेष की रचना करती हैं। एक अंगविशेष में विद्यमान कोशिकाएँ परस्पर सहयोग और तालमेल के साथ एक उद्देश्य पूर्ति के लिए कार्य करती हैं। देह के विभिन्न अंग परस्पर तालमेल रखते हुए सभी कार्य करते हैं। प्रत्येक लघु संगठन एक बड़े संगठन के भीतर होता है, फिर भी बड़ा छोटे को नहीं जोड़ता। इसके बजाए, बड़ा छोटे के भीतर से उभरता है, या छोटा एक कुंडली बनाता हुआ बड़े संगठन में परिवर्तित हो जाता है। इस तरह से सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय वास्तविकता का निर्माण होता है। छोटा, बड़ा और फिर उससे बड़ा सब परस्पर एक ऐसी संगति में सम्बद्ध होते हैं कि किसी एक में आया व्यवधान सभी में व्यवधान उत्पन्न कर देता है।
अब हम देखेंगे कि इस सम्पूर्ण अनुशासित और तालमेल युक्त तन्त्र में रोग कैसे उत्पन्न हो जाता है। स्वास्थ्य के सन्दर्भ में, हमारी भौतिक देह एक ऐसा संगठन है जो सृजन और विनाश की प्राकृतिक शक्तियों के मध्य एक सुनिश्चित क्रम और सन्तुलन में ढली है। जब यह सन्तुलन बिगड़ता है, तब इस कुंडली की सामान्य लय बिगड़ जाती है। इससे बहुत से उपतन्त्र विकसित होने लगते हैं जो कि एक उथल-पुथल पैदा करती है, क्योंकि यह उपतन्त्र ब्रह्मांडीय संगठन के साथ ताल-मेल नहीं बिठा पाते। यदि इस उथल-पुथल पर आरम्भ में ही ध्यान न दिया जाए, तो यह उपतन्त्र बढ़ते ही जाते हैं, और हमारे भौतिक संगठन के अस्तित्व के समक्ष चुनौती खड़ी कर देते हैं। देह की ऊर्जा और क्रियाएँ इन उपतन्त्रों को पोसने में लग जाती हैं और धीरे-धीरे समूचा अस्तित्व ब्रह्मांड की लय के बरक्स बेताला हो जाता है। यह और कुछ नहीं एक भयानक रोग है।
आयुर्वेद, या स्वास्थ्य-सुरक्षा के अन्य वास्तविक सम्पूर्ण सिद्धान्त का कर्तव्य है, देह का प्राकृतिक सन्तुलन बनाए रखना और शेष विश्व से उसका ताल-मेल बनाना। रोग की अवस्था में, इसका कर्तव्य उपतन्त्रों के विकास को रोकने के लिए शीघ्र हस्तक्षेप करना और देह के सन्तुलन को पुन: संचित करना है।
प्रारम्भिक अवस्था में रोग सम्बन्धी तत्त्व अस्थायी होते हैं और साधारण अभ्यास से प्राकृतिक सन्तुलन को फिर से कायम किया जा सकता है। आयुर्वेद में स्वास्थ्य की अवस्था को प्रकृति (प्रकृति अथवा मानवीय गठन में प्राकृतिक सामंजस्य) और अस्वास्थ्य या रोग की अवस्था को विकृति (प्राकृतिक सामंजस्य से बिगाड़) कहा जाता है। चिकित्सक का कार्य रोगात्मक चक्र में हस्तक्षेप करके प्राकृतिक सन्तुलन को कायम करना और उचित आहार और औषधि की सहायता से स्वास्थ्य प्रक्रिया को दुबारा शुरू करना है। औषधि का कार्य खोए हुए सन्तुलन को फिर से प्राप्त करने के लिए प्रकृति की सहायता करना है।3 आयुर्वेदिक मनीषियों के अनुसार उपचार स्वयं प्रकृति से प्रभावित होता है, चिकित्सक और औषधि इस प्रक्रिया में सहायता-भर करते हैं। उदाहरण के लिए, एक मनुष्य जो फिसलकर गिर जाता है, सम्भव है कि कुछ समय बाद वह स्वयं उठ खड़ा हो, लेकिन उसे किसी का सहारा मिल जाए तो वह न्यूनतम कष्ट झेलकर शीघ्र ही उठ खड़ा होगा।4
1. चरक संहिता, सूत्रस्थान, XI, 4-5
2. आयुर्वेदिक या भारतीय परम्परा के सन्दर्भ में, भौतिक अस्तित्व में मानस और देह दोनों आते हैं। वास्तव में, इसकी पहचान ‘आत्मा’ से अलग की जाती है, जो कि ऊर्जा है, और चेतना का कारक है। देह और मानस को एक-दूसरे से अलग नहीं देखा जाता क्योंकि सभी दैहिक और मानसिक क्रियाएँ एक-दूसरे से तालमेल रखती हैं, और परस्पर सम्बन्धित और स्वतन्त्र होती हैं।
3. पी.वी शर्मा (1994) आयुर्वेद मूव्स विद नेचर : नमह (न्यू अप्रोचेज़ टू मेडिसिन एण्ड हैल्थ), खण्ड 1, अंक 2 (पांडिचेरी : श्री अरविन्द सोसायटी)
4. चरक संहिता, सूत्रस्थान, X, 5
स्वास्थ्य की देखभाल का आधुनिक दृष्टिकोण अलग-अलग नियमों पर आधारित है, और यह आयुर्वेद के समग्र दृष्टिकोण के विपरीत है, जो कि पूरी तरह से विभाजित है। मानव शरीर की तुलना एक ऐसी मशीन के रूप में की गई है जिसके अलग-अलग भागों का विश्लेषण किया जा सकता है। रोग को शरीर रूपी मशीन के किसी पुरजे में खराबी के तौर पर देखा जाता है। देह की विभिन्न प्रक्रियाओं को जैविकीय और आणविक स्तरों पर समझा जाता है, और उपचार के लिए, देह और मानस को दो अलग-अलग सत्ता के रूप में देखा जाता है। प्रकृति को विकृति में परिवर्तित करने में संयोग का महत्त्वपूर्ण हाथ है।
पश्चिम की आधुनिक चिकित्सा पद्धति के अनुसार, सभी मनुष्य एक समान समझे जाते हैं। आयुर्वेद के मतानुसार, शेष प्रकृति के समान मनुष्य भी नित्य-परिवर्तनशील, सक्रिय प्राणी है। वे अपने मूलभूत गठन या प्रकृति में (जिसका अर्थ शारीरिक प्रतिक्रियाएँ और व्यक्तित्व है) अलग-अलग होते हैं।
स्वास्थ्य की आयुर्वेद सम्मत अवधारणा बहुत व्यापक है। यह सम्भव है कि आप स्वयं को स्वस्थ समझते हों, क्योंकि आपका शारीरिक रचनातन्त्र ठीक ढंग से कार्य करता है, फिर भी आप विकृति की अवस्था में हो सकते हैं अगर आप असन्तुष्ट हों, शीघ्र क्रोधित हो जाते हों, चिड़चिड़ापन या बेचैनी महसूस करते हों, गहरी नींद न ले पाते हों, आसानी से फारिग न हो पाते हों, उबासियाँ बहुत आती हों, या लगातार हिचकियाँ आती हो, इत्यादि।
हाल ही के कुछ वर्षों में हमारे भूमण्डल से जुडी कुछ विध्वंसक घटनाओं ने हमें आधुनिक विज्ञान के खंडित या अपूर्ण दृष्टिकोण पर ध्यान देने को विवश कर दिया है। ओजोन की परत में छिद्र, चेरनोबिल की आणविक दुर्घटना, और खाड़ी युद्ध ने हमें महसूस करा दिया है कि इन भूमण्डलीय घटनाओं का दुष्प्रभाव कहाँ तक हो सकता है। इन घटनाओं का मनुष्य के स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है और इसका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों पर पड़ेगा।
ब्रह्मांडीय वास्तविकता की कुंडली के रूप में कल्पना करें। हमारा भौतिक अस्तित्व इस कुंडलाकार चक्र का अन्तर्तम भाग है।2 इसके बाद हमारा निकटतम वातावरण आता है, जैसे परिवार और घनिष्ठ मित्र। फिर हमारी सामाजिक परिस्थितियाँ, हमारा कार्य-स्थल और बाह्य संसार से हमारा प्रतिदिन का लेन-देन आता है। इसके ठीक बाद हमारा विस्तृत वातावरण जैसे देश और भूमण्डलीय वातावरण आता है। और अन्तत: ब्रह्मांडीय वातावरण आता है। इस प्रकार वास्तविकता की अनेक परतें जो परस्पर संयुक्त, एक-दूसरे से सम्बन्धित और स्वतन्त्र हैं, आपस में खुलती हैं।
मानव देह की प्रत्येक कोशिका अपने आपमें एक संसार है। यह बनाने, रचना करने, पचा सकने और नष्ट करने जैसा बहुत कुछ कर सकती है। कोशिकाएँ मिलकर एक अंग विशेष की रचना करती हैं। एक अंगविशेष में विद्यमान कोशिकाएँ परस्पर सहयोग और तालमेल के साथ एक उद्देश्य पूर्ति के लिए कार्य करती हैं। देह के विभिन्न अंग परस्पर तालमेल रखते हुए सभी कार्य करते हैं। प्रत्येक लघु संगठन एक बड़े संगठन के भीतर होता है, फिर भी बड़ा छोटे को नहीं जोड़ता। इसके बजाए, बड़ा छोटे के भीतर से उभरता है, या छोटा एक कुंडली बनाता हुआ बड़े संगठन में परिवर्तित हो जाता है। इस तरह से सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय वास्तविकता का निर्माण होता है। छोटा, बड़ा और फिर उससे बड़ा सब परस्पर एक ऐसी संगति में सम्बद्ध होते हैं कि किसी एक में आया व्यवधान सभी में व्यवधान उत्पन्न कर देता है।
अब हम देखेंगे कि इस सम्पूर्ण अनुशासित और तालमेल युक्त तन्त्र में रोग कैसे उत्पन्न हो जाता है। स्वास्थ्य के सन्दर्भ में, हमारी भौतिक देह एक ऐसा संगठन है जो सृजन और विनाश की प्राकृतिक शक्तियों के मध्य एक सुनिश्चित क्रम और सन्तुलन में ढली है। जब यह सन्तुलन बिगड़ता है, तब इस कुंडली की सामान्य लय बिगड़ जाती है। इससे बहुत से उपतन्त्र विकसित होने लगते हैं जो कि एक उथल-पुथल पैदा करती है, क्योंकि यह उपतन्त्र ब्रह्मांडीय संगठन के साथ ताल-मेल नहीं बिठा पाते। यदि इस उथल-पुथल पर आरम्भ में ही ध्यान न दिया जाए, तो यह उपतन्त्र बढ़ते ही जाते हैं, और हमारे भौतिक संगठन के अस्तित्व के समक्ष चुनौती खड़ी कर देते हैं। देह की ऊर्जा और क्रियाएँ इन उपतन्त्रों को पोसने में लग जाती हैं और धीरे-धीरे समूचा अस्तित्व ब्रह्मांड की लय के बरक्स बेताला हो जाता है। यह और कुछ नहीं एक भयानक रोग है।
आयुर्वेद, या स्वास्थ्य-सुरक्षा के अन्य वास्तविक सम्पूर्ण सिद्धान्त का कर्तव्य है, देह का प्राकृतिक सन्तुलन बनाए रखना और शेष विश्व से उसका ताल-मेल बनाना। रोग की अवस्था में, इसका कर्तव्य उपतन्त्रों के विकास को रोकने के लिए शीघ्र हस्तक्षेप करना और देह के सन्तुलन को पुन: संचित करना है।
प्रारम्भिक अवस्था में रोग सम्बन्धी तत्त्व अस्थायी होते हैं और साधारण अभ्यास से प्राकृतिक सन्तुलन को फिर से कायम किया जा सकता है। आयुर्वेद में स्वास्थ्य की अवस्था को प्रकृति (प्रकृति अथवा मानवीय गठन में प्राकृतिक सामंजस्य) और अस्वास्थ्य या रोग की अवस्था को विकृति (प्राकृतिक सामंजस्य से बिगाड़) कहा जाता है। चिकित्सक का कार्य रोगात्मक चक्र में हस्तक्षेप करके प्राकृतिक सन्तुलन को कायम करना और उचित आहार और औषधि की सहायता से स्वास्थ्य प्रक्रिया को दुबारा शुरू करना है। औषधि का कार्य खोए हुए सन्तुलन को फिर से प्राप्त करने के लिए प्रकृति की सहायता करना है।3 आयुर्वेदिक मनीषियों के अनुसार उपचार स्वयं प्रकृति से प्रभावित होता है, चिकित्सक और औषधि इस प्रक्रिया में सहायता-भर करते हैं। उदाहरण के लिए, एक मनुष्य जो फिसलकर गिर जाता है, सम्भव है कि कुछ समय बाद वह स्वयं उठ खड़ा हो, लेकिन उसे किसी का सहारा मिल जाए तो वह न्यूनतम कष्ट झेलकर शीघ्र ही उठ खड़ा होगा।4
1. चरक संहिता, सूत्रस्थान, XI, 4-5
2. आयुर्वेदिक या भारतीय परम्परा के सन्दर्भ में, भौतिक अस्तित्व में मानस और देह दोनों आते हैं। वास्तव में, इसकी पहचान ‘आत्मा’ से अलग की जाती है, जो कि ऊर्जा है, और चेतना का कारक है। देह और मानस को एक-दूसरे से अलग नहीं देखा जाता क्योंकि सभी दैहिक और मानसिक क्रियाएँ एक-दूसरे से तालमेल रखती हैं, और परस्पर सम्बन्धित और स्वतन्त्र होती हैं।
3. पी.वी शर्मा (1994) आयुर्वेद मूव्स विद नेचर : नमह (न्यू अप्रोचेज़ टू मेडिसिन एण्ड हैल्थ), खण्ड 1, अंक 2 (पांडिचेरी : श्री अरविन्द सोसायटी)
4. चरक संहिता, सूत्रस्थान, X, 5
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