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जीवनी/आत्मकथा >> महाराजा सूरजमल

महाराजा सूरजमल

नटवर सिंह

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2822
आईएसबीएन :9788183610575

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महाराजा सूरजमल की जीवनी और उनका इतिहास....

Maharaja Surajmal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

18वीं सदी में जब मुगलसराय पतन की ओर था, मराठों, सिखों और जाटों ने न केवल अपनी-अपनी प्रभावशाली राजसत्ता स्थापित कर ली थी, बल्कि दिल्ली सल्तनत को एक तरह से घेर लिया था। उन दिनों इन रियासतों में कुछ ऐसे शासक पैदा हुए जिन्होंने अपनी बहादुरी तथा राजनय के बल पर न केवल उस समय की सियासत, बल्कि समाज पर भी गहरा असर डाला। भरतपुर के जाट नरेश महाराजा सूरजमल इनमें अव्वल थे।

महज 56 वर्ष के जीवन काल में इन्होंने आगरा और हरियाणा पर विजय प्राप्त करके अपने राज्य का विस्तार ही नहीं किया बल्कि प्रशासनिक ढाँचे में भी उल्लेखनीय बदलाव किये। जाट समुदाय में आज भी उनका नाम बहुत गौरव और आदर के साथ लिया जाता है।
विद्वान राजनेता कुँवर नटवर सिंह ने प्रामाणिक सूचनाओं और दस्तावेज़ों को आधार बनाकर महाराजा सूरजमल की सियासत और संघर्ष की महागाथा लिखी है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो चुकी इस पुस्तक का यह अनुवाद हिन्दी के पाठकों के सामने उनके प्रेरणादायी व्यक्तित्व को रखने का अपनी तरह का पहला उपक्रम है।

भारतीय राज्यव्यवस्था में सूरजमल का योगदान सैद्धान्तिक या बौद्धिक नहीं, अपितु रचनात्मक तथा व्यवहारिक था। जाट-राष्ट्र का सृजन एवं पोषण एक आश्चर्यजनक सीमा तक इस असाधारण योग्य पुरुष का ही कार्य था। मुसलमानों, मराठों या राजपूतों से गठबन्धन का शिकार हुए बिना ही उसने अपने युग पर एक जादू-सा फेर दिया था। राजनीतिक तथा सैनिक दृष्टि से वह शायद ही कभी पथभ्रान्त हुआ हो। कई बार उसके हाथ में काम के पत्ते नहीं होते थे फिर भी गलत या कमजोर चाल नहीं चलता था। नवजात जाट राज्य की रक्षा करने के लिए उसे सुरक्षित बचाये रखने के लिए साहस तथा सूझबूझ के उत्कृष्टतम गुणों की आवश्यकता थी। उसने न केवल उन दोनों लक्ष्यों को सिद्ध कर लिया, अपितु उस चिरव्यवस्था के काल में अपने लोगों को सुव्यवस्था और जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा से सुनिश्चित तथा अति अकांक्षित वरदान देने में भी सफल रहा है। उसने जाटों को प्रतिष्ठा तथा स्वाभिमान प्रदान किया। इस पुरुष की बहुमुखी प्रतिभा तथा अतिमानवीय शक्ति ने उन पर गहरा प्रभाव डाला है। विस्मय एवं सराहना के साथ वे उसे एक के बाद एक सफलता प्राप्त करते, संग्राम छेड़ते, घेरे डालते और जीवन के सन्ध्या काल में पुनः संचित शक्ति एवं शान्ति के साथ उभरते देखते रहे।

 

इसी पुस्तक से


मेरी पत्नी हेम, हमारे पुत्र जगत, पुत्री ऋतु और उनकी नानी महारानी
महेन्द्र कौर पाटियाला को सप्रेम अर्पित।


परिस्थितियाँ ! परिस्थितियों को तो मैं बनाता हूँ

 

-नैपोलियन

 

‘‘ज्ञान का बोया मैंने बीज साथ उनके थे जो कि महान,
स्वयं अपने हाथों से और बढ़ाया उसे खापाकर जान,
और फल है केवल यह जो कि मुझे इससे हो पाया प्राप्त-
यहां मैं आया जल की भाँति, और जाता हूँ वायु समान’’

 

-उमर खैयाम की रूबाइयाँ


आमुख

 


मैं भरतपुर का हूँ अतः यह अनिवार्य ही था कि बचपन से ही महाराजा सूरजमल का नाम मेरे कानों  में पड़ता रहे। मेरे जीवन के पहले छह वर्ष ऐतिहासिक नगर डीग में उन उद्यान-प्रासादों में व्यतीत हुए जिनकी कल्पना ठाकुर बदन सिंह ने की थी और जिनका निर्माण उनके पुत्र महाराजा सूरजमल के हाथों पूरा हुआ। उसके बाद भरतपुर चले आये, जहाँ का विख्यात और अपने समय का अजेय दुर्ग सारे शहर की शान था। इसे देखकर अतीत के गौरव और निर्मल कीर्ति का स्मरण हो आता था। इसी भरतपुर में तो सन् 1805 में लॉर्ड लेक का ‘‘सारा मान मिट्टी में मिल गया था।’’

मेरी माँ मुझे सुनाया करती थीं कि भरत के सर्वप्रमुख जाट-राज्य भरतपुर के राजघराने में किस तरह सत्रहवीं शताब्दी के अन्त और अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में राजमार्गों की लूट के जरिए अपनी दौलत इकट्ठी की थी। दिल्ली आगरा का राजमार्ग जाट
-प्रदेश से होकर गुज़रता था। मालदार मुग़ल काफ़िलों पर निःशंक होकर ग़ज़ब की हिम्मत से छापे मारे  जाते थे और उन्हें लूट लिया जाता था। इसमें  जोखिम बहुत था, लेकिन वैसी ही प्राप्ति भी थी। मेरा स्वाभिमान ब़ढता गया और साथ ही कौतूहल भी।
 
परन्तु जब मैंने जाट-जाति के इस महानतम सेनापति और राजमर्मज्ञ के विषय में अपनी जिज्ञासा पूरी करनी चाही, तो मुझे पता चला कि इस सम्बन्ध में परिपुष्ट तथ्य मिलने मुश्किल हैं। राजपूतों को कर्नल टॉड मिल गया। मराठों को ग्रांट डफ़, और सिखों को कनिंघम, परन्तु जाटों का कोई नामलेवा ही नहीं। सन् 1925 में जाकर कहीं प्रो. के. आर. कानूनगों की पुस्तक  ‘हिस्ट्री ऑफ़ द जाट्स’ (जाटों का इतिहास) प्रकाशित हुई। इस विषय पर अब तक की यह सबसे प्रमाणिक पुस्तक है; यह विद्वत्तापूर्ण तो है, परन्तु प्रेरणामय रचना नहीं। न जाने क्यों महाराजा सूरजमल जीवनी-लेखकों की पकड़ में नहीं आए। यद्यपि उनकी मृत्यु 1763 में हो गई थी। फिर भी अंग्रेजी में  प्रकाशित होनेवाली उनकी ‘जीवनी यही है। ऐसा लगता है। मानो  कीर्ति ने कुछ अनिच्छापूर्वक ही उनका वरण किया हो। यों न जाने कितनी महत्त्वपूर्ण वर्षगाँठे मनाई जाती रहती हैं। परन्तु उनकी 200 वीं पुण्यतिथी निकल गई और उस पर किसी का ध्यान तक न गया। दिल्ली का भाग्य एक से अधिक बार उनकी मुट्ठी में रहा, लेकिन भारत की राजधानी में उनके नाम की कोई सड़क नहीं है; किसी सार्वजनिक उद्यान में उनकी कोई प्रतिमा नहीं है। ‘महाराजा सूरजमल एजुकेशन सोसाइटी’ (महाराजा सूरजमल स्मारक शिक्षा-संस्था) को बने अभी दस बरस हुए। सूरजमल का डाक- टिकट जारी होना भी अभी शेष है।

कवि सूदन के ‘सुजान-चरित्र’ का अंग्रेजी अनुवाद अभी होना है। उसकी पुरातन लय और अठारहवीं शताब्दीं की हिन्दी को समझाना भी हर किसी के लिए आसान नहीं। इसमें उन सात संग्रामों का सजीव वर्णन है, जिसमें उस जाट-राजा ने विजय प्राप्त की थी। केवल उसके प्रताप के कारण ही इन युद्धों की  योजना तथा सम्मिलित कार्यवाही सम्भव हो सकी। परन्तु सूदन का काव्य एकाएक बीच में ही सन् 1753 पर पहुँचकर रुक जाता है।

फ़ादर फ्रांस्वा ग्ज़ाविए वैंदेल भारत में सन् 1751 से 1803 तक और भरतपुर में सन् 1764 से 1768 तक रहा था। वह कुछ अप्रामाणिक-सा व्यक्ति था, जो राजा का ईश्वर से भी अधिक आदर करता था। उसकी पुस्तक ‘मेम्वार द ल’ इंदोस्तान’ (हिन्दुस्तान के संस्मरण) अत्यन्त मनोरंजक और रोचक कृति है; यह कहीं बहुत बढ़िया और कहीं बहुत घटिया है। इसमें तथ्यों को मनमाने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा भी गया है। यद्यपि वह सूरजमल के पुत्र जवाहरसिंह का आश्रित रहा था, परन्तु उसमें तदनुरूप कृतज्ञता दृष्टिगोचर नहीं होती। फिर भी वैंदेल में अन्तर्दृष्टि की झलकियाँ हैं, जो ज्ञानवर्द्धक एवं उपयोगी हैं इतिहास-विषयक निर्णय सदा निर्दोष नहीं होता। समकालीन घटनाओं का उसका आकलन अतिरंजित और साथ ही पूर्वाग्रहग्रस्त भी होता है। जाट उसे बहुत पसन्द नहीं थे फिर भी उसकी पुस्तक पठनीय अवश्य है।

 अनेक फ़ारसी पांडुलिपियों, पत्रों और प्रलेखों का आज तक अँग्रेज़ी में अनुवाद नहीं हुआ है। मुझे फारसी नहीं आती और मैं उनका उपयोग नहीं कर पाया। इनमें से कुछ का उल्लेख एक अत्यंन्त मूल्यवान पुस्तक ‘पार्शियन लिटरेचर’ (फ़ारसी साहित्य) में है; सी.ए. स्टोरी द्वारा लिखित यह पुस्तक जीवनीपरक ग्रन्थ सूचियों का पर्यवलोकन है, जिसे सन् 1939 में ल्यूसैक ऐंड कम्पनी, लन्दन द्वारा प्रकाशित किया गया है।

सर जदुनाथ सरकार की महान एवं चिरस्थायी कृति ‘डाउनफ़ॉल ऑफ द मुग़ल ऐम्पायर’ (मुग़ल साम्राज्य का पतन) से सूरजमल के नाम और उसकी उपलब्धियों का लोगों को कुछ अधिक परिचय मिला।
सर जदुनाथ सरकार ने कठोर एवं सुदीर्घ परिश्रम द्वारा यह प्रतिपादित किया कि सूरजमल एक साधारण व्यक्ति था। जिसने हमारे इतिहास के एक लज्जास्पद युग का पुनरुद्वार किया। सर जदुनाथ सरकार का यह प्रयत्न विफल नहीं रहा। उन्होंने ही उन ‘अख़बारात’ का अध्ययन किया, जिनमें वे पत्र दिये गए हैं जिन्हें जयपुर के राजाओं को दिल्ली के मुगल दरबार में स्थित उनके प्रतिनिधियों ने भेजा था। इन जाटों को ‘जाट-ए-बदज़ात’ कहा गया है। जयपुर का राजवंश अपने पूर्वी सीमान्त पर ऐसे दिलेर लोगों को उभरते देखकर खुश नहीं हो सकता था। यदि जाटों का अभ्युदय न हुआ होता, तो जयपुर का राज्य यमुना नदी तक फैल गया होता।

सर जदुनाथ और प्रो. कानूनगो ने फ़ारसी तथा मराठी अभिलेखों को पढ़ा और उनका सदुपयोग किया। परन्तु खेदजनक तथ्य यह है कि सूरजमल के इतिवृत्त अब तक भी अत्यल्प हैं। उनके वंशजों द्वारा दी हुई मौखिक जानकारी कभी-कभी विचित्र-सी लगती है जिसका ऐतिहासिक मूल्य सन्दिग्ध है। सूरजमल के घर-बार की दिनचर्या-विषयक कोई अभिलेख अभी तक प्रकाश में नहीं आया। महत्वपूर्ण तथा अत्यावश्यक तफ़सीलें ग़ायब हैं। उनका जन्म किस वर्ष में हुआ और उनकी मृत्यु किस प्रकार हुई यह विषय भी विवादास्पद-सा है। अधिकतर लोग सन् 1707 में उनका जन्म मानते हैं, परन्तु कहीं-कहीं 1706 का भी उल्लेख मिलता है। उनका जन्म  कहाँ हुआ था ? सिनसिनी में, थूण या डीग में ? किसी को इसकी ठीक-ठीक जानकारी नहीं; यहाँ तक की अध्यावसायी ठाकुर गंगासिंह को भी इस बात की जानकारी नहीं; यहाँ तक कि अध्यवसायी ठाकुर गंगासिंह को भी नहीं, जिनकी पुस्तक ‘यदुवंश’ जानकारी की खान है। हो सकता है। कि उपेन्द्रनाथ शर्मा भविष्य में कभी इन तथ्यों पर अधिक प्रकाश डाल सकें। अभी उनके ग्रन्थ ‘ए न्यू हिस्ट्री ऑफ़ जाट्स’ (जाटों का नया इतिहास) का केवल प्रथम खंड ही प्रकाशित हुआ है। यह कृति श्रम-साधना और कठोर परिश्रम का उत्कृष्ट उदारण है; यह बात अगल है कि इतिहास के शोध-प्रबन्ध की दृष्टि से से उतनी निरपेक्ष नहीं। उनकी विशद सहायक ग्रन्थ-सूची से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने किसी भी स्रोत को बिना निचोड़े नहीं छोड़ा है। उनके ग्रन्थ का प्रथम खंड सन् 1721 में ठाकुर चूड़ामानसिंह की मृत्यु तक के घटनाचक्रों तक ही सीमित है।

भारत एक मौखिक समाज रहा है और हमारा इतिहास निरपेक्ष अन्तःकरण न दिन-वार का ध्यान रखता है, न समय-काल का। महाराजा सूरजमल के आरम्भिक जीवन के विषय में भी अनुमान का ही सहारा लेना पड़ता है। ऐसा नहीं लगता कि उनके पिता बदनसिंह ने अपनी ढेर सारी सन्तानों की शिक्षा के लिए कोई ख़ास प्रयत्न किया होगा। अकबर महान की भाँति सूरजमल भी लगभग निरक्षर ही थे। इस मामले में अनेक यशस्वी पुरुष उसके साथी हैं। अल्फ्रैड महान ने चालीस वर्ष की आयु में स्वयं पढ़ना सीखा था। शार्लमेन ‘‘पढ़ तो लेता था, परन्तु लिखना उसे कभी नहीं आया।’’ अठारहवीं शताब्दी के  भारतीय राजाओं के लिए अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का कोई कारण था ही नहीं। आख़िर ब्राह्मण थे किसलिए ? संसार के प्रचीनतम बौद्धिक दिग्गज, राजाओं, सामन्तों और अभिजात वर्ग के लिए लिखने-पढ़ने के तथा तत्सम्बन्धी बौद्धिक कार्य करते थे।

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