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बदलते हालात में

चन्द्रकान्ता

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2835
आईएसबीएन :81-7055-960-x

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बदलते हालात में कहानी थोथे राजनैतिक आश्वासनों और जमीनी सच्चाइयों बीच, बेअंत दूरियों का आकलन करती, दंश भरे तीखे प्रश्न उठाती है।

Badalte Haalaat mein a hindi book by Chandrakanta - बदलते हालात में - चन्द्रकान्ता

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ये कहानी दोतरफा खुलने वाली वो खिड़कियाँ हैं, जहाँ अक्सर, समय की चुनौतियाँ और सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था का गुट्ठिल संजाल है, और दूसरी तरफ मनुष्य की आकांक्षाएँ, स्वप्न और स्मृतियाँ। दोनों के घात-प्रतिघात से उत्पन्न संघर्ष, छीलन और तनाव से भरे प्रश्न हैं।

बदलते हालात में कहानी थोथे राजनैतिक आश्वासनों और जमीनी सच्चाइयों बीच, बेअंत दूरियों का आकलन करती, दंश भरे तीखे प्रश्न उठाती है। तो ‘नेपथ्य कथा’ अपनी जमीन, अपने परिजन से कटने, और पीछे छूटे हुओं के उदास अकेलेपन की कहानी है जो युवा पीढ़ी की महात्वाकांक्षाओं और विदेश आगमन के मोह से प्रारम्भ होकर अकेलेपन पर खत्म होती है। अकेलेपन को नियति मानने वालों के दिमाग पर दस्तक देती यह कहानी, हमें अपने किये धरे पर सोचने को उकसाती है कि अपनी बोयी फसल हमें ही काटनी है।

समय के क्रूर यथार्थ और मनुष्य की उम्मीदों स्वप्नों और स्मृतियों के घात-प्रतिघात से जन्मी यह कहानियाँ जहाँ हमें मानवीय त्रासदियों के बीच खड़ी रहती हैं वहीं इच्छाशक्ति, और आस्था की संघें ढूँढती मानवीयता की पक्षधर ये कहानियाँ, मनुष्य-विरोधी तंत्र को कठघरे में खड़ा करती हैं।


बदलते हालात में



पता नहीं यह यात्रा जरूरी थी या गैर जरूरी !
यों सलाह-मशविरा देने वालों के अपने-अपने कचोटते अनुभव थे। भगाते चोर की लँगोटी ही सही वाली मुद्रा में अधिकांश ने ‘घर’ जाने की सलाह दी, तो दूसरे सिरे की अनिश्चिताओं, आतंक और आशंकाओं के साये में वहाँ तक पहुँचने का यह मुहिम भरा अभियान खासा व्यर्थ लगा। एक बार जीवन के ऊपर मृत्यु का दर्शन भी हावी हो गया। छोड़ो झंझट, जब सब खत्म ही हो गया तो छायाओं के पीछे भागने में क्या तुक ? यह भी सोचा कि आखिर खाली हाथ आए हैं, जाना भी खाली हाथ ही है।
लेकिन उम्र के आखिरी सिरे पर इन्तजार करती माँ बोधिसत्व की मुद्रा में भी अपने ‘छूटे हुए’ के लिए अशान्त थी। ‘घर वंदहय घर सासा’ वाले अपने तकियाकलाम को हर आते-जाते के आगे दुहराने वाली माँ, यों अब घर पुराण भूलने की कोशिश में ज्यादा सुनती और कम बोलती है, पर हिदायतियों-सलाहकारों की भीड़ में जो दो-चार वाक्य उन्होंने बोले, वे खासे असरदार रहे।

-हाँऽऽऽ बच्चों ! तुम सही कर रहे हो, हम ही बेवकूफ निकले।
-बेटी ! अभी तो मेरे नाखूनों से घर की रेत मिट्टी निकली नहीं...
-मुझे क्या सँजोया बटोरा साथ ले जाना था...?
यानी के तुम्हीं लोगों के लिए तो उम्र भर खटते रहे। लम्बी साँसें ऐसी छुतहा कि लाख चाहो पर बचना मुश्किल है। फिर अपने असल पश्मीने के जामावार शाल बादामी बौरों वाले सिल्क कार्पेट, पुश्तैनी बर्तन भाँड़े, कण्डाल, देगचियाँ समावार। उस पर छोटा-सा गझिन वाक्य-‘तुम्हारे बाबूजी कोई सेठ साहूकार तो नहीं थे।’
वह तो जाने दो, लेकिन पुरखों की थाती, जन्म नाल गढ़ी धरती का अपना दुकड़ा घर की रसो के बाहर लगी ‘काकपट्टी !’ जिस पर वे रोज गरम भात और पानी की कटोरियाँ रखती थीं, कौव्वों, चिड़ियों के लिए। पाँखी आकर उन्हें ढूँढ़ते होंगे, कहाँ खो गए घर के लोग।

कोई पूछे, भला पक्षियों को क्या पड़ी कि तुम्हें याद करें तो माँ उसाँस भरती-‘वे हमारे पुरखे हैं बच्चों, पाँखियों की शक्ल में आते हैं। हमारा सुखसान पूछने। तुम लोग क्या जानो !’
माँ के विश्वासों पर टिप्पणी किए बिना भी यह अन्दाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि आतंकवाद से जुड़ी लूटपाट और चोरी चकारी भरा पूरा घर खाली हो गया होगा। जमीन का टुकड़ा भले वहीं हो, राख मिट्टी बनी जन्मनाल भी। शायद पुरखों की कोई निशानी, कोई महक भर बची हो किसी कोने-अँतरे में।
अजय, उमा को ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं, पिछले छः वर्षों में जितना कुछ घटा है वादी में, उससे उम्मीद रखना महज भावुकता ही हो सकती थी। लेकिन फिर भी वे जाने को तैयार हो गए, वहीं, जहाँ डर कुण्डली मारे बैठा था। शायद किसी दरो दीवार के पीछे लुकी-छिपी दरार में उनका बचपन दबा दुबका बैठा हो। यौवन की कोई हवस, कोई हादसा, किसी बुखारचे, बरामदे या एटिक में साँस ले रहा हो। एक बार देख तो लो।
ऐसे ही कई जाने-अनजाने कारणों ने अजय उमा को जम्मू कश्मीर की चक्करदार यात्रा पर धकेल दिया।

जम्मू से अजय का दोस्त अशोक भी साथ हो लिया, यह कहकर कि तुम लोग तो अब अपनी गली-मोहल्ले के लिए परदेशी हो गए हो। वहाँ तुम्हें पहचानेगा कौन ? कर्णनगर में यों भी अब इक्का-दुक्का ‘बटा’ ही रहता है।
तीस वर्ष ! सचमुच एक अरसा हो गया। इस बीच साल-दो साल में एकाध महीने के लिए जाते भी तो विजिटर की तरह। कभी पहलगाम-गुलमर्ग, कभी यूसमर्ग-अहरबल। जो समय बचता; वह आते-जाते समय नाते-रिश्तेदारों का आतिथ्य स्वीकारते गुजर जाता।
लेकिन इतने वर्ष बाद भी जेहन में जो रुका-ठहरा है, उसे महज भावुकता कहकर परे भी नहीं किया जा सकता।
दरअसल अशोक के साथ चलने के दूसरे कारण थे, जो वह उन्हें बताना नहीं चाहता था। पिछले छः एक वर्षों में घर की टूट-फूट के अलावा भी काफी कुछ पराया हो गया था। एक बार जो घर से निकले या निकाले गए, उनका लौटना उपद्रवियों को मंजूर नहीं था। अशोक उन्हें सम्भावित खतरों से बचाना चाहता था। वह अपनी रिश्ते की बहन बबली को भूला नहीं था, जो कुछ जरूरी सामान लेने घर गई और वापस लौटने से पहले आतंकवादियों की गोली का शिकार हो गई थी।

रास्ते भर अशोक भूमिकाएँ बाँधता रहा। छः एक वर्षों से महज कुछेक ताले पड़ा खाली घर, जो उस वक्त नए पुराने फर्नीचर पुश्तैनी विरासतों और घरेलू सामान से ठूसमठूस अटा पड़ा था। उसमें बाकी क्या बचा होगा ? जबकि जम्मू में ही उसने बता दिया था कि वहाँ कुछ लोग रह रहे हैं। यानी ताले-शाले टूट चुके हैं और लूट-खसोट मच चुकी है।
कुद, बटोत, रामबन, रामसू। एक-एक पहाड़ी पड़ाव आकर निकलते गए। जाने पहचाने रास्ते। लगा, अभी-अभी तो इधर से गुजरे थे हम। रामबन के पंजाबी होटल में, राजमा भात परोसते मुन्ना सरदार से खूब बातें हुईं, उसके चेहरे पर समय ने झुर्रियों के जाल बिछाने शुरू कर दिए थे, मगर आत्मीयता ज्यों की त्यों। भर-भर कड़छियाँ राजमा परोसता वह अफसोस करता रहा कि अब मिलिट्री कनवायों और ट्रकों के अलावा देशी-विदेशी टूरिस्ट दिखाई नहीं पड़ते। हँसते चमकते चेहरे और हसीन बुलबुलें तो ख्वाब ही हो गईं।
अजय-उमा को वादी में नौकरी कहाँ मिली ? आजीविका के लिए वृहद राष्ट्र के एक कोने से दूसरे कोने तक भटकते रहे। मन कहीं टिका नहीं। सोचते रहे कि रिटायरमेंट के बाद घर लौटेंगे, अपनों के बीच। घर आकर कोई पूछता, क्या तुम्हारे लिए यहाँ भात नहीं था ? तो वे हँसकर उत्तर देते-‘आप लोगों ने ही तो निकाल दिया।’
माँ-पापा वर्ष के दस महीने घर द्वार से ही चिपके रहे। चिल्लयकलान के दो एक बर्फीले महीनों में बच्चों के पास दिल्ली, बम्बई आते रहे पर मन तो वहीं कर्णनगर के घर दर्रो दीवारों और आँगन में खड़े लम्बे सफेदों की ऊँची फुनगियों के आसपास डोला करता। हरदम लौटने की बेताबी।

‘‘वहाँ बाथरूम का पलस्तर उखड़ गया है। फ्लश खराब पड़ा है, नाथ जी ने कहा है इस बार निशात बाग से गुलाब की कटिंग ले आऊँगा। अब्दुल माली उसका दोस्त है न ? पिछले साल जो सेब के पेड़ तुमने देखे, वे भी उसी ने शालामार से लाकर दिए थे। अंबरी सेब की वैसी किस्में यहाँ कहाँ ?’’
जितने दिन माँ-पापा बहू-बेटे के साथ रहते, घर के साथ वहाँ के फल-फूल किचन गार्डन की लौकी, बैंगन, निका-निका सोंचल का साग भी उनके साथ रहा करते। कुछ भी पकाकर खिलाओ पर वह स्वाद कहाँ से लाओगे। स्वाद तो आबोहवा में होता है बेटा। जाहिर है उसे यहाँ नहीं ला सकते।’
नाशरी नाले के पास पहाड़ों से रिड़के ढोक पत्थर और मलबे बीच पर्वतीय नाले बह-बह सड़क खासी फिसलनी बना गए थे। सड़क की एक तरफ बुलडोजर मलबा हटा रहा था। ड्राइवर के एहतियात बरतने पर भी कार जरा बाईं झुकी तो तीनों जनों ने घबराकर सीट के हत्थे कसकर जकड़ लिए। झुकाव जरा सा ज्यादा होता तो गहरे खड्ड में गिरकर रामनाम सत्त हो जाता।

अजय का चेहरा भय से सफेद पड़ गया, ‘‘जाने इस नाशरी नाले में कितने लोग दफन हो गए हैं ? अँधेरी रातों में उनकी रूहें यहाँ आवाजाही ही करती होंगी।’’
ड्राइवर सड़क पर आँखें जमाए सपाट स्वर में बोल रहा था-‘‘आए दिन हादसे होते हैं साहब। भुरभुरे पहाड़ों से पक्षियाँ (मलबा) लुढ़कती ही रहती है। ऊपर से गिरते पहाड़ी नालों से रपटने का डर भी लगा रहता है....’’
क्रेन के पास घुटनों तक फिरन पहने कुछ कश्मीरी मजदूर तसले-बेलचे लिए खड़े थे। उमा ने गाड़ी का शीशा उतारकर उन्हें देखा। इनमें कौन आतंकवादी हो सकता है ? लेकिन उनके चेहरों पर धूल और दारिद्रय की मिट्टी चढ़ी हुई थी। वे सड़क पर झण्डे की तरह गड़े नजर आ रहे थे और हवा से उनके फिरन फरफरा रहे थे।
उनकी आँखों में कौतुक था।
-ऐसे क्यों देख रहे हैं ?

-आजकल इधर टूरिस्ट नहीं आते न।
‘‘हम टूरिस्ट नहीं हैं।’’ उमा को टूरिस्ट कहलाना अच्छा नहीं लगा। याद आए वे चार विदेशी टूरिस्ट जो कई महीनों से आतंकवादियों के कब्जे में हैं। पता नहीं किस हाल में होंगे ? होंगे भी या नहीं। दूरदर्शन पर बयान देते उस आतंकवादी का मासूम चेहरा आँखों के आगे खिंच गया जिसने कहा था-‘हम जेहाद के लिए कुछ भी कर सकते हैं।’
लेकिन लोगों का कहना है कि अब हालात बदल रहे हैं।
-हाँ ! लोग तंग तो आ गए हैं खून खराबे से। उनका भी कम नुकसान नहीं हुआ। यह भ्रम भी टूट रहा है कि बन्दूक हर मसला हल कर सकती है।
अशोक जम्मू-कश्मीर सरकार की नौकरी में है। छः महीने जम्मू छः महीने कश्मीर में रहता है। हालात से वाकिफ है।
बनिहाल की घुमावदार चढ़ाइयों पर ऊपर और ऊपर चढ़ती ट्रकें, जीपें नजरों के आगे छोटी से छोटी होती पहाड़ों के पीछे ओझल हो रही हैं, और थोड़ी ही देर में ऊपरली सड़क पर नमूदार हो जाती हैं। लेकिन कोई चहकती आवाज, कोई खिलखिलाता चेहरा नजर नहीं आता।

ऐसी उदास यात्रा उमा ने पहले कभी नहीं की। जब भी इधर से गुजरती, हँसता-गाता काफिला साथ चला करता। एक बार जाने कहाँ से कश्मीर देखने आया एक सत्ताइस अट्ठाइस वर्ष का युवक उमा के पीछे पड़ गया। यही बनिहाल की घुमावदार चढ़ाई थी, पहाड़ों पर खड़े चीड़ देवदारों को वह मुग्ध होकर सराहता रहा। दूर पर्वत पर बैठे माचिस के डिब्बों से दिखते गूजर कोठे प्यासी आँखों देखकर उमा से पूछा-‘‘आपका मन नहीं करता शहर के शोर-शराबे से दूर, उस कोठे में रहने के लिए ?’’

उमा हँस पडी थी-‘‘उन लोगों की जिन्दगी बड़ी बीहड़ होती है।’’
‘‘हाँ, पर कितनी शान्त।’’ युवक पहली बार ही कांक्रीट के जंगलों से दूर पहाड़ों का रूप रंग देख रहा था। बौराना शायद स्वाभाविक था।
जवाहर टनल पर बस से उतर कर वह दूरबीन से पीर पाँचाल की बर्फ ढकी चोटियाँ देखता रहा। खुशी से उसकी चीख निकल गई थी-‘‘वाऊ ! हाउ ब्यटीफुल। मारवलस। पहाड़ पर बर्फ की चित्रकारी। लगता है चित्रकार ने नीले हरे पहाड़ों पर कूची फेर दी है। उधर ऊँची चोटियों पर बर्फ के सोफे, इधर झरनों की शक्ल में बह-बह जाती बर्फ ! निकोलई रोरिक की एक पेंटिंग है-हिमालय की महान आत्मा हू-ब-हू ऐसी ही।’’
उमा जब हूँ हाँ के अलावा किसी अन्तरंग संवाद में शामिल नहीं हुई तो युवक का चेहरा लटक गया। बस में बैठते ही उसने उमा के ऐन कान के पास मुँह लाकर गालिब का शेर गुनगुना दिया था-

यह रब वह न समझे थे न समझेंगे मेरी बात
दे उनके दिल और न दे मुझको जुबां और....।

जवाहर टनल पर अच्छा-खासा सैनिक जमावड़ा था। पहरे में कोई ढील नहीं। उन्हें कार से उतरने का कड़ा आदेश मिला। अटैची, बैग बुकचे खोले खँगोले गए। उमा तनी अकड़ी सड़क किनारे खड़ी रही।
अशोक ने ध्यान बँटाना चाहा, ‘‘हम छोटे थे तो लखनपुर चैकपोस्ट पर सामान की तलाशी ली जाती थी। मुझे याद नहीं पर माँ कहा करती है। उस समय जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश करने के लिए परमिट लेना पड़ता था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी की बलि के बाद वह परमिट सिस्टम और तलाशियाँ बन्द कर दी गई थीं।’’
‘‘हाँ ! अब यह तलाशी। जाने कितने बलियों के बाद बन्द होगी।’’
‘‘यह जरूरी है बहन।’’ टनल के पास खड़ा एक ऑफिसरनुमा सैनिक उमा के तेवर देखकर पास आया, ‘‘आए दिन विस्फोट होते रहते हैं। हम लोग रिस्क नहीं ले सकते।’’
‘‘ठीक है हम जानते हैं, थैंक यू।’’ अशोक ने एक ही साँस में तीन वाक्य उगले और चुप हो गया। हर अप्रिय स्थिति के लिए तैयार लगता है। अजय कहता है, वह आतंकवादियों से दोस्ती रखता है। अशोक कुछ नहीं कहता। आतंक के बीच जीने का सलीका सीख गया है।

टनल के पीछे खड़े सिर उठाए पहाड़ बर्फ के भार से दबे-दबे लग रहे थे। बादलों की हल्की परत के नीचे मैला सूरज मलमल के थान के बीच झाँकने लगा है। पीली धूल पहाड़ी रास्तों के बीच बर्फीली हवाओं के डर से इधर-उधर दुबक रही है। टनल के बीच पानी के परनाले बह रहे हैं। छपाक छप्प की आवाज़ों के बीच फव्वारे उछालती कार सुरंग पारकर बाहर आई तो ठण्डी हवाएँ चुभने लगीं। ऊँचाई से वादी मलगजी कुहरे में लिपटी रहस्य के आवरण में ढकी नजर आई। पानी के सैलाब में डूबे का विस्तार धीरे-धीरे खुलने लगा तो गर्म कपड़ों के बीच ठण्ड घुसकर रीढ़ की हड्डी कँपाने लगी।
अक्टूबर में इतनी ठण्ड। गर्मी की छुट्टियों में उमा घर आती तो यहाँ से वादी पहाड़ों के चौकस पहरे बीच हरियाये आलम में मुग्ध, झीलों-झरनों से बतियाती नजर आती। ऊपर मुण्डा, लोअर मुण्डा के घुमावों से नीचे उतर काजीगुंड पहुँचते ही लम्बे सफेदों की कचारें बाँहें फैलाकर आगोश में लेने दौड़ आती हवाओं में कमलतालों, खलिहानों और वनस्पतियों की मिली जुली गन्ध के साथ धान रोपती औरतों के सामूहिक लयबद्ध स्वर दूर तक पीछा करते, ‘थलि वोवमय ब्योलिए, कलि दामा चेतमो !’’

आज वन मैनाएँ भी खामोश थीं। खेत सूने, सड़क की दोनों ओर सीमेण्ट की बोरियाँ और उनकी आड़ में खड़े कन्धों पर गन सँभाले सैनिक जगह-जगह तैनात थे। नए ढंग का स्वागत।
लाल चौक के पास ड्राइवर अड़ गया, ‘‘साहब ! आप यहाँ से दूसरा इन्तजाम करें। मैं लाल चौक नहीं जाऊँगा। उधर खतरा है।’’ अजय उमा ने एक-दूसरे की ओर बेबसी से देखा। इतनी दूर आकर लौट जाएँ तो आने का मतलब ही क्या हुआ। अशोक ड्राइवर को मनाने लगा, ‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं भाई, अब हालात बदल गए हैं।’’
‘‘सो तो हम भी अखबारों में पढ़ते हैं। पर उधर आतंकवादियों का कानून चलता है। किसी ने गोली वोली चलाई तो ? नहीं साहब। मैं बाल बच्चे वाला हूँ।’’
अशोक ने लाल चौक पर खड़े सिपाही से सलाह की, जाना ठीक रहेगा ? बुत की तरह बेहरकत खड़े सिपाही ने पलकें पट-पटाकर उन्हें देखा। अकड़ी कमर को थोड़ा झुकाकर उन्हें सुना और ‘ओके’ कर दिया।

ड्राइवर ने घिया-तोरी बना चेहरा लिए, वेमन से इगनिशन ऑन कर दिया। एक्सलरेटर पर पैर इतनी जोर से दबाया कि गाड़ी ने हाई जम्प मारी। तीनों जने सीटों से उछलकर गाड़ी की छत से टकराए।

बाहर सड़के सूनी थीं। बुझी-बुझी बेरौनक चुप्पी के बीच उन्होंने अमीराकदल का पुल पार किया। दो-एक दुकानों पर फिरन, फरकोट, शॉल, कैप लटक रहे थे। एक दुकानदार बेंत की टोकरियों, कांगड़ियों की धूल कपड़े से फटक कर झाड़ रहा था।

नुमाइश की सड़क से होते हुए पुराना शाली स्टोर पीछे छोड़ा तो कर्णनगर का एरिया फोकस में आ गया। आगे विशाल चिनारों से ढकी श्मशान भूमि का खुला फाटक नजर आया। फाटक के अन्दर जगह-जगह जलाई गई लाशों के स्थान पर काले चकते उभर आए थे जिन पर सूखे पत्ते चक्करघिन्नी खा रहे थे। इधर मृतक के अन्तिम संस्कार के बाद जगह लीप पोत कर साफ की जाती है। फिर धूप-दीप जला अन्न, पुष्प, दूध, दही आदि अर्पण करने का विधान है लगता है सैनिकों द्वारा लाशों का दाह-संस्कार हुआ है। काले चकत्ते लावारिसों की कहानी सुना रहे हैं। अपनों के हाथ नहीं लगे।
उमा के भीतर लम्बा उच्छ्वास उमड़ा और टुकड़ों में बँटकर बाहर आ गया, ‘‘इधर माँ शिव मन्दिर में जल चढ़ाया करती थीं। हम टोकते, इतने सारे मन्दिर हैं शहर में, तुम जलती लाशों के बीच उधर क्यों जाती हो। तुम्हें डर नहीं लगता ?’’
‘‘डर कैसा ?’’ माँ सचमुच नहीं डरती थी। ‘‘मंगलकारी शिव का स्थान है। यहाँ उनसे तुम सबका मंगल माँगने जाती हूँ।
हवा में वैराग्य की गन्ध बढ़ती जा रही थी।

जल्दी ही घर दृष्टि के दायरे में आ गया, बंगले में ऊपरी तिकोन गेबल, काँच जड़े बुखारचे। उमा के सीने में दो चार धड़कने एक साथ उछल पड़ीं-‘‘वह। वह रहा हमारा घर।’’
‘‘हाँऽऽऽ।’’ सफेदों के झुरमुट के पीछे दिखती गेबल कलौंछ खा गई थी। अशोक ने कहा, ‘‘ऊपरी मंजिल में आग लगी थी, पर जल्दी ही काबू कर ली गई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। घर अन्श्योर्ड है। क्षतिपूर्ति हो जाएगी।’’
क्षतिपूर्ति।’’ उमा के माथे की शिराएँ हल्के से काँपीं।

‘‘इधर गुलाबों की बाड़ रहा करती थी। गुच्छा-गुच्छा फूल दीवारें लाँघ बाहर झाँका करते। पड़ोसिन दर काकी मन्दिर के बहाने टोकरी भर फूल तोड़ती तो मुझे बुरा लगता।’’ पर माँ हँसकर कहती, ‘‘तोड़ने दो बेटी। भगवान के लिए ले जा रही है। दो दिन में कलियाँ फूट आएँगी तो फिर दीवार गुलाबों से ढक जाएगी...’’
‘‘तुम फूलदान, जग और गिलासों में गुलाब सजाकर सारा घर महका देतीं।’’ अजय भी उमा की तरह पीछे लौट गया था।
‘‘उधर चाँदमारी के मैदान में विजयदशमी के दिन रावण जलता था न ? हनुमान की पूँछ में आग लगाकर कागज की लंका को मिनटों में भस्म कर दिया जाता। याद है एक बार मैं पूँछ लगाकर हनुमान बना तो पापा ने कितनी पिटाई कर दी थी।’’
‘‘बस ! बस ! इधर गाड़ी रोक दो।’’ ड्राइवर ने मलबे के ढेर के पास गाड़ी रोक दी। अशोक ने दरवाजा खोलकर अगुआनी की, ‘‘आ जाओ।’’

टूटी दीवार में बनाए दरवाजेनुमा छेद के पास उमा ठिठक गई।
‘‘गेट तो उधर था।’’
‘‘हाँ हाँ। आ जाओ।’’ अशोक ने दुहराया।
अहाते में घुसते ही धक्का लगा। इधर नफासत से कटा-छँटा लान पसरा रहता था। अब पीली घास के अवशेषों के बीच जगह-जगह मिट्टी के खड्डे और नजर आ रहे हैं। दीवार के साथ काँटों की बाड़ उग आई है। गेट की तरफ बने हौज में खुला नल झर झर बहा जा रहा है और आसपास कीचड़ का तालाब बजबजा रहा है। यहाँ-वहाँ कटे पेड़ों के ठूँठ देख उमा की आँखें दुखने लगीं-‘‘इधर अंबरी सेब के पेड़ थे न ? उधर बबूगोशा और गिलास। वह भी काट डाले ?’’

पिछवाड़े खर-पतवार के बीच सरो का पेड़ पीले पत्ते लिए अब गिरा तब गिरा की मुद्रा में झुका हुआ खड़ा था।
ये हरा मोरपंखी पेड़ पीला कैसे पड़ा ?
कोई रोग लगा होगा। देखने वाला कौन था यहाँ वही विरागी स्वर।
उमा की हिम्मत पस्त हुई जा रही थी। बरामदे की सीढियों का सीमेण्ट उखड़ गया था। जालीदार दीवार की ईंटें खिसक आई थीं...
अशोक ने बाँह थामकर सहारा दिया। घर के दरवाजे पर हल्की सी दस्तक देते ही काँच की खिड़की खुली और सीकचों के पीछे गोल टोपी वाला झुर्रीदार चेहरा उझक आया।
‘‘कुछ कुछ ?’’ कौन है ?

‘‘हम हैं घर वाले।’’ घर वाले’ शब्द फुसफुसाहट में फिसलता जान पड़ा कहीं कोई सुन न ले।
भीतर एक मोतबर आदमी अधमैले पट्टू का फिरन पहने नंगी टाँगों, दरवाजा खोलकर सामने खड़ा हो गया। अशोक ने उमा-अजय का परिचय कराया-‘‘घरवाले हैं। अपना घरबार देखने आए हैं। माँ बीमार है। वह नहीं आ पाई।’’
‘‘हाँ हाँ ! कहता बुजुर्ग सिर हिलाता एक तरफ हट गया, ‘‘आओ, अन्दर आओ, तुम्हारा घर है भाया।’’
बुजुर्ग बिना पूछे अपनी दास्तान सुनाने लगा।
‘‘हमारा तो सब कुछ लुट गया। दहशतगर्दों ने उधर चरारे शरीफ में घर-दुकान सब जला डाला। खाक पर बैठ गए...।’’
अजय-उमा चौतरफ नजरें फिरा घर का पिटा हुलिया देखते रहे। यह उन्हीं का घर है क्या ?
‘आपलोग इधर कैसे आए ? यहाँ तो ताले लगे थे।’’ अजय की आवाज़ अबूझ गुस्से से थरथराने लगी थी।

बूढ़े के हाथ विवश मुद्राओं में हिलने लगे। भूरी आँखों में बेचारगी उझक आई, ‘‘खुदा जानता है भाया, हमने कोई ताला नहीं तोड़ा। घर खुला था, हमें बताया गया खाली घर है, रहो जब तक सरकार कुछ इन्तजाम करे...।’’ कॉरीडर में आवाजाही करते उसने याचना सी करते हाथ जोड़ दिया-हम चले जाएँगे, उधर कुछ जुगाड़ हो जाए, बस। अपना घर बार छोड़ पराई जगह दिल कहाँ लगता है। हम तो गाँव जवार के लोग..।’’

उमा कभी ड्राइंगरूम रह चुके कमरे की दहलीज पर खड़ी जख्मी फर्श और कीलें ठुकी दीवारें देखती रही।

इस दाईं ओर की दावार पर क्रिस्टल बल्बों के ऐन नीचे माँ पापा की जवानी में खिंची तस्वीर टँगी रहती थी, जो कहीं नजर नहीं आई। उसमें पापा गणतन्त्र दिवस के किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में कलाकारों को सम्बोधित कर रहे थे। बगल में बैठी माँ गर्व से तनी महीन-महीन मुस्करा रही थी। तस्वीर की जगह ठुकी कीलों जख्मों के बीच फ्रेम की चौकोर जगह का निशान भर रह गया है। दीवारों पर मेखें ठोंक कर कमरे के आरपार बनी अलगनी पर अधमैले गूदड़ रजाई, फिरन आदि इत्यादि लटक रहे हैं। कोने में फर्श पर किरासिन स्टोव के पास अल्युमिनियम के दो-तीन कलौंछ खाए पतीले, प्याले, चिमटे तवा, हाँडी और अंगड़-खंगड़ सामान बिखरा पड़ा है।
उमा को लगा कमरे में आक्सीजन नहीं है। यह लम्बी-चौड़ी खिड़कियों वाला घूपीला घर एक अँधेरी खोह में बदल गया है। गर्दन मोड़कर फ्रेंच विण्डो पर अधमैली चादर टाँग दी गई है जिससे शीशे से छनकर कमरे में झाँकता उजास अधबीच ही घुटकर रह गया है, कमरे की दीवारें और नक्काशीदार लकड़ी की छत कलौंछ से पुत गई है।




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