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आधी दुनिया

रश्मि गौड़

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2850
आईएसबीएन :81-88140-61-9

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नव रंगों में रची ये कहानियाँ अपनी कारूणिकता, मार्मिकता व रोचकता से पाठकों को एक नई दृष्टि देती हैं...

Aadhi Duniya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत कहानी संग्रह की कहानियों में जीवन के विभिन्न रंग दृष्टि गत होते हैं। आधी दुनिया में रचना की समाज-सेवा की लगन, एक मजबूर औरत की अर्थी उठाने का दर्द उन समाज-सेवी संस्थानों पर व्यंग्य है, जो एक विशेष अभिजात्य वर्ग की महिलाओं के लिए केवल फैशन परेड और विदेशियों के घूमने का साधन बनी हुई हैं। जहाँ कान खिचाई में बच्चे बहादुरी का मीठा फल चख पाएगें वही लगन में विपरीत परिस्थितियों में भी लक्ष्य प्रप्ति का संकल्प। घोसला में टूटते समाज में एकाकीपन का दर्द है तो औलाद में अपने वतन में बसने की हौंस। इस प्रकार, नव रंगों में रची ये कहानियाँ अपनी कारूणिकता, मार्मिकता व रोचकता से पाठकों को एक नई दृष्टि देती हैं।

भूमिका

श्री आनंद प्रकाश जैन की पुत्री हूँ और ईश्वर की अनुकंपा कि विज्ञान की छात्रा होने के बावजूद अपनी टूटी-फूटी भाषा में कुछ लिख पाई। पापा सीधे टाइपराइटर पर साहित्य-सृजन करते थे। घर में हम तीन बहनें कितना भी ऊधम मचा रही हों, रेडियो पूरे जोर से चल रहा हो या उनका नाती कंधे पर चढ़ा बैठा हो, पापा का टाइपराइटर अबाध गति से चलता रहता, झमाझम साहित्य की बारिश होती रहती। उन्हें जितना जिंदगी ने दिया, उससे ज्यादा साहित्य के रूप में वे समाज को देकर गए हैं।
एक लेखक होने के लिए भाषा सुदृढ़ होनी चाहिए, परंतु संवेदनशील होना पहली आवश्यकता है। यह मन की संवेदना ही तो है, जो हर सूक्ष्म भावना को भोगती है, उसे महसूस करती है। सूक्ष्म भावनाओं के बिना मनुष्य अधूरा है। वह इंसान ही क्या जो चेहरा देखकर मन में उमड़ती-घुमड़ती घटा की नरमी न भाँप सके।

आगरा में हमारे आँगन में एक मोर रोज सुबह आया करता था और मक्खन लगी ब्रेड खाता था। अगर हमने बगैर मक्खन लगी ब्रेड डाल दी तो जनाब इंतजार करते कि शायद गलती से डाली है और फिर भी अगर हमने अपनी गलती नहीं सुधारी तो नाराजगी के साथ सीढ़ियों के सहारे ऊपर चला जाता। उस मोर की भावना का आदर कर हम उसे रोज मक्खन लगी रोटी समय से डालते।
हमारे चारों ओर जो घटित हो रहा है, उसमें सैकड़ों कहानियाँ छिपी हुई हैं, बस उनका विश्लेषण कर थोड़े रंग घटाने-बढ़ाने पड़ते हैं, एक सूत्र में पिरोकर कहानी के रूप में प्रस्तुत करना होता है, भावनाओं के सागर में उतरना पड़ता है, जिसका आनंद अकथनीय है।

कहावत है-हर पुरुष की कामयाबी में एक स्त्री का हाथ होता है। उसी प्रकार से यह भी सच है कि अगर मेरा यह प्रयास सार्थक हुआ है तो उसके पीछे मेरे पति का प्रोत्साहन भी है। श्रीयुत शिव खेड़ा ने एक किस्सा सुनाया था कि ईश्वर ने जब सफलता की सीढ़ी का निर्माण किया तो बड़े असमंजस में पड़ गए कि कहाँ छिपाऊँ। अगर मनुष्य के हाथ लग गई तो दुरुपयोग होने की संभावना अधिक है। अंत में ईश्वर ने उसे छिपाने की उपुयक्त जगह खोज ही ली। उसे मनुष्य के मन में छिपा दिया। अतः मेरी कोशिश सफलता की सीढ़ी खोजने की है और इसी कोशिश का परिणाम इस कहानी-संग्रह के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

प्रयास है कि प्रत्येक कहानी आपके मन के किसी कोने को छुए, आनंदित करे, जहाँ सोचने पर मजबूर करे वहाँ गुदगुदाए भी। आज भी भारतवर्ष में बच्चियों को भ्रूण अवस्था में मारा जाता है। गाँवों में, कस्बों व शहरों में अभी भी स्त्रियाँ प्रताड़ित की जाती हैं। ‘आधी दुनिया’ में हमारे समाज के सभी वर्गों की महिलाओं की खुशियों को, मनोवेदनाओं को, उनके संशय को आयाम देने की कोशिश की है।
आशा है, आप सराहेंगे।
-रश्मि गौड़

प्रतिवेदन

‘ट्रिन-ट्रिन !’ टेलीफोन की घंटी घनघना उठी। टी.वी. पर पावरफुल टॉक देख रही नीति ने बड़े बे-मन से फोन उठाया। दूसरी ओर से संदीप बोल रहा था।
‘‘हेलो नीतू, कैसी हो ?’’ संदीप ने पूछा।
‘‘ठीक हूँ, क्या अभी-अभी पहुँचे ?’’ नीति बोली।
‘हाँ, बस होटल में चेक-इन किया है।’’ संदीप ने कहा, ‘‘बड़ी अनमनी सी लग रही हो !’’
‘‘नहीं तो, ऐसे ही, टी.वी. पर टॉक आ रही है, वही सुन रही हूँ।’’
‘‘क्यों, घर पर कोई नहीं है क्या ?’’ संदीप ने पूछा।
‘‘नहीं, मम्मी-पापा पार्टी में गए हुए हैं और प्रतीक पिक्चर देखने।’’ नीति ने बताया।
‘‘तो फिर घर में कौन बात कर रहा है ?’’
‘‘बताया ना, टी.वी. पर टॉक चल रही है।’’ नीति झुँझलाई।
‘‘हैं, बुद्धू मत बनाओ मुझे, जरा टी.वी. ऑफ करो।’’ संदीप की आवाज में वही चिर-परिचित शक हिलोरें लेने लगा।
नीति क्रोधाभिभूत हो गई-‘‘ व्हाट डू यू मीन-मैंने किसी को बुला रखा है अपने पास ?’’
‘‘मैंने ये कब कहा, क्या तुम मेरे संतोष के लिए टी.वी. का स्विच ऑफ एंड ऑन नहीं कर सकतीं।’’ संदीप की आवाज तल्ख हो गई थी।

नीति का मन किया कि उसे कह दे कि वह भाड़ में जाए, परंतु पता नहीं क्यों, नीति संदीप से बहुत घबराने लगी थी। संदीप से सगाई हुए छह महीने बीते होंगे, परंतु ये छह महीने कहाँ तो लड़कियों के मीठे सपने की तरह बीत जाते हैं, कहाँ नीति को छह सदियों की भाँति लग रहे थे !
जब नीति-संदीप की सगाई हुई तो नीति की खुशी का पारावार न था। मध्य वर्गीय परिवार में पली लड़की, हालाँकि शिक्षा में पिता ने कोई कसर न छोड़ी थी, परंतु लेट-नाइट पार्टीज या लड़कों के साथ घुलना-मिलना आदि सब मना था। सिनेमा दिखाने मम्मी-पापा साथ ले जाते। घर में प्रेम-भाव और आपसी समझ बहुत थी, किसी भी विषय पर खूब बहस होती, आपस में वाद-विवाद तो अकसर होता। नीति अपनी सारी बातें मम्मी को बता देती। अब नीति चौबीस साल की हो गई थी। दो-तीन साल से लड़के देख रहे थे, पर बात बन ही नहीं रही थी। दहेज की माँग व लिस्ट देख-देखकर उनका खून खौल जाता। तभी संदीप के माता-पिता से वर्माजी के यहाँ एक पार्टी में मुलाकात हुई। बात घूम-फिरकर दहेज के दानव पर आ टिकी। बातों-बातों में पता चल गया कि वे बड़े उदार विचारवाले हैं और दहेज के कतई खिलाफ हैं। उन्होंने अपने बड़े-लड़के की शादी में व अपनी लड़की की शादी में न तो दहेज लिया और न ही दिया।
खैर, बाद में वर्माजी के द्वारा नीति के रिश्ते की बात संदीप से चलाई गई। लड़की देखने के बाद वे राजी हो गए। संदीप ने केवल 101 रूपए पर टीका लिया और सायों के अनुसार छह महीने के बाद की शादी तय हुई। संदीप एक तो खूब लंबा, गोरा और सुंदर लड़का, दूसरे बीस हजार रूपए प्रति माह पर एक प्राइवेट फर्म में नौकरी-इस पर नीति फूली न समाई। घर में सब बहुत खुश। पापा-मम्मी ने तय किया कि भले ही लड़के वाले दहेज न लें, वे बहुत सुंदर ढंग से शादी करेंगे। बाजार से बढ़िया साड़ियाँ, गहनों की खरीदारी शुरू हो गई।

संदीप जब उसे देखने आया था तो नीति ने तभी बता दिया था कि उसकी नजर चूँकि कमजोर है, अतः वह कॉन्टेक्ट लेंस पहनती है। जहाँ संदीप सुंदर था वहीं नीति औसत में गिनी जाती। सज-धजकर तो बहुत अच्छी लगती, लेकिन साधारण सा नाक-नक्श था। फिर भी संदीप व उसके घरवालों ने उसे पसंद कर लिया।
संदीप ने कहा, ‘‘अब हम-तुम अकसर मिला करेंगे, जिससे एक-दूसरे को जान पाएँ।’’
मम्मी ने तो यह बात तुरंत मान ली, पर पापा थोड़े हिचकिचाए। मम्मी ने समझाया कि अब जमाना बदल गया है, जरूरी है कि ये दोनों एक-दूसरे को जानें। कोई बच्चे थोड़े ही ना हैं, नीति समझदार है और संदीप भी सुलझा हुआ लगता है। खैर, उन्हें मिलने की इजाजत मिल गई। पहली बार नीति ब्यूटी पार्लर गई। फेशियल, ब्लीचिंग कराकर आई। हलका सा मेकअप कर गुलाबी सूट में बड़ी प्यारी लग रही थी। संदीप तो एकबारगी चौंक ही गया, बोला, ‘‘अरे, बड़ी सजी-धजी हो, इतनी रौनक कैसे आ गई तुम्हारे चेहरे पर !’’
नीति शरमा गई। संदीप उसे अपने बारे में बताने लगा-उसे क्या पसंद है, क्या नहीं, उसके लंबे ऑफिस ऑवर्स, कितना व्यस्त रहता है आदि। पता नहीं क्यों, नीति को लगा कि संदीप बहुत ही ‘सेल्फ सेंटर्ड’ है। उसने न तो अपने माता-पिता, न ही अपने भाई-भाभी और बहन के बारे में कुछ बताया, बस अपना ही बखान करता रहा। नीति ज्यादातर चुप रही। फिर संदीप बोला, ‘‘अरे मैं अपने बारे में ही बोल रहा हूँ, तुम भी कुछ बताओ न !’’
‘‘मैं क्या बताऊँ, अभी मैंने इंटीरियर डेकोरेशन का एक वर्ष का डिप्लोमा किया है। सोचती हूँ, एक-दो कॉन्ट्रैक्ट कहीं मिल जाएँ तो थोड़ा अनुभव भी हो जाएगा।’’ नीति बोली।
‘‘क्या कह रही हो ? यू मीन, तुम जॉब करोगी ?’’ संदीप चौंका।

‘‘तो क्या हुआ, आप तो सुबह जाकर रात को आया करोगे, मैं भी पार्ट टाइम जॉब कर लूँ तो क्या बुरा है !’’ नीति ने अपना तर्क प्रस्तुत किया।
‘‘देखो नीति, तुम्हें क्या जरूरत है इधर-उधर भटकने की, तुम्हें जो कुछ चाहिए मैं लाकर दूँगा।’’ संदीप जोर देकर बोला।
उस समय नीति ने चुप रहना बेहतर समझा। वे लोग थोड़ा घूमे-फिरे, प्रगति मैदान में पुस्तक प्रदर्शनी देखी और अपनी मोटर साइकिल पर संदीप ने उसे घर छोड़ा।
मम्मी ने नीति का मन टटोलना चाहा, परंतु नीति से कुछ खास प्रतिक्रिया न पाकर संतुष्ट हो गईं कि लड़का ठीक है। लगभग रोज ही संदीप हाल-चाल जानने के लिए फोन अवश्य करता। इसी बीच नीति को अपने सीनियर श्री सक्सेना के साथ इंटीरियर डेकोरेशन का कॉन्ट्रैक्ट मिल गया। इन्हीं के साथ मिलकर काम करना था। नीति ने डिजाइनिंग आदि शुरू कर दी, पहली बार प्रेक्टिकली काम करना था, थ्योरी और प्रैक्टिकल में बहुत फर्क होता है। अपनी डिजाइंस को साकार होते देखना कितना सुखद होगा ! संदीप को तो मानो वह भूल ही गई। मौके का जायजा लेना, किस तरह से किस कोने को सजाना है, बस यही धुन सी सवार हो गई। संदीप के तो रोज ही फोन आते, परंतु नीति के घर पर न होने की बात सुनकर वह बस हाल-चाल पूछकर फोन रख देता।
एक दिन नीति साइट पर थी। उसके सीनियर श्री सक्सेना उसे कुछ समझा रहे थे कि संदीप वहीं आ धमका। नीति चौंक गई, बोली, ‘‘क्या हुआ, आप यहाँ ?’’ संदीप कुछ गुस्से में था, बोला, ‘‘घर पर तो अब आप होतीं नहीं, सोचा यहीं मिल लें।’’

‘‘सबकुछ ठीक तो है !’’ नीति समझ ही न पाई कि माजरा क्या है। फिर अपने बॉस से क्षमा माँगकर वह संदीप को अलग ले आई। संदीप का मुँह गुस्से से लाल था-‘‘तो तुम अपने मन की ही चलाओगी ?’’
‘‘अरे नहीं, ये तो सिर्फ थोड़े अनुभव के लिए कर रही हूँ। इट इज टेंपरेरी।’’
‘‘किस चीज का अनुभव करना चाहती हो तुम ?’’ संदीप की बात सुनकर नीति तिलमिला गई। उसकी आँखों में आँसू आ गए। आँख में कॉन्टेक्ट लेंस होने के कारण वह खुलकर आँख पोंछ भी न पा रही थी, सो भागकर अपनी केबिन में गई और उन्हें निकालकर आँखों को पोंछा। शीशे से देखा कि संदीप वहीं आ रहा है। संदीप ने उसका चेहरा अपने हाथों में लिया, बोला, ‘‘जानेमन, आय एम सॉरी, तुम्हें बुरा लग गया। वह यू नो, जब तुम्हें उस कलूटे के साथ देखा तो मैं बस जलकर रह गया। मुझे लगता है कि तुम बस मेरी हो, मेरे अलावा तुम्हें न कोई देखे, न बात करे। तुम्हें रानी की तरह रखूँ मैं।’’
नीति को कुछ समझ नहीं आया कि वह कैसे इस प्रेमी के निवेदन का प्रतिवेदन करे। खैर, अब वह एकचित्त होकर कुछ न कर पाएगी, सो अपने बॉस से क्षमा माँगकर संदीप के साथ चल दी। रास्ते भर संदीप उसे खुश करने का प्रयत्न करता रहा। निरुला में खाना खिलाया, एंपोरियम से चाँदी का फोटो-फ्रेम दिलाया कि उसमें दोनों अपना युगल फोटो लगाएँगे; परंतु नीति के ‘शादी के बाद’ फोटो लगाने की बात सुनकर चुप हो गया।
नीति जब घर पहुँची तो बहुत बेचैन थी। इस प्रकार का शहजादा तो उसने न चाहा था, जो उसे सारी दुनिया की नजरों से बचाकर रानी बनाकर रखे। बड़ी प्रैक्टिकल लड़की थी वह। इस बार उसने सारी बातें मम्मी को बताईं।
मम्मी बोलीं,‘‘बिटिया, हो सकता है वह न चाहता हो कि तू जॉब करे। रहने दे, क्या फर्क पड़ता है, खूब अच्छा कमाता है, माँ-बाप का अपना घर है, मत कर जॉब।’’

चूँकि कॉन्ट्रैक्ट का कमिटमेंट था, सो नीति को पूरा करना ही था। उसने संदीप को फोन पर अपनी मजबूरी बताई तो संदीप बोला, ‘‘इसे जल्दी-से-जल्दी निपटा दो और सुनो, तुम कॉन्टेक्ट लेंस पहनती ही क्यों हो ? अब तो हमारी सगाई हो गई है, तुम्हें अपनी सुंदरता किसी को दिखाने की क्या जरूरत ! चश्मा ही पहना करो, तब वह ज्यादा ठीक है।’’
अगले दिन जब नीति साइट पर जा रही थी तो मम्मी चौंक पड़ीं,
‘‘यह क्या, इतने गंदे कपड़े क्यों पहने हैं ? वह नया आसमानी सूट पहनो न, और ये चश्मा लगाकर मुंशी क्यों बनी हुई हो ?’’
‘‘ओह मम्मी, कॉन्टेक्ट लेंस से थोड़ी दिक्कत होती है !’’ और सूट बदलने की बात टालकर नीति साइट पर जाने के लिए करने पापा के साथ निकल गई। पापा उसे छोड़ते हुए ऑफिस चले गए।
इस रविवार को उसकी सहेली रीमा का जन्मदिन था। दिन में उसने अपनी आठ-दस सहेलियों का लंच रखा था, फिर तीन से छह पिक्चर का। रात होने से पहले घर आना था, सो छह बजे तक सब लड़कियाँ अपने-अपने घर पहुँच जातीं। नीति ने बहुत उत्साह से साड़ी पहनकर हलकी सी ज्वैलरी पहनी और बारह बजे ही घर से निकल पड़ी। सवा बारह बजे संदीप ने फोन किया। अपने साथ कहीं ले जाने का इरादा था।
मम्मी ने बताया, ‘‘वह अपनी सहेली के यहाँ गई है, शाम तक लौटेगी।’’
संदीप बेचैन हो गया, ‘‘क्या आंटी, वह मुझे रिंग नहीं कर सकती थी, कैसे गई है ?’’
‘‘ऑटो में गई है, बेटा। आजकल की लड़की है, स्मार्ट है, कोई हम साथ-साथ पिछलग्गू बने थोड़े ही घूमेंगे।’’ मम्मी भी चकित थीं।
‘‘ओहो आंटी, प्लीज, उसकी सहेली का फोन नबंर देना।’’
मम्मी ने फोन नंबर दे दिया।

जब तक नीति रीमा के घर पहुँचती संदीप के दो फोन आ चुके थे। सब सहेलियाँ चुटकी लेने के मूड में थीं।
रीमा ने कहा, ‘‘लो भाई, अपनी अनारकली आ गई। तुम्हारे सलीम के दो फोन आ चुके हैं।’’
नीति इससे पहले उसे विश कर पाती कि टेलीफोन की घंटी बज उठी, सबने उसे इशारा किया। जैसे ही उसने फोन उठाकर हैलो कहा, संदीप की झल्लाई आवाज सुनाई दी-‘‘तो पहुँच गईं आप, इतनी देर कहाँ लगा दी ?’’
‘‘वह मैं रीमा के लिए फूलों का बुके बनवा रही थी।’’ नीति ने मानो सफाई दी।
‘‘कौन-कौन हैं वहाँ पार्टी में ?’’ संदीप ने शक्की लहजे में पूछा।
‘‘सारी कॉलेजवाली सहेलियाँ हैं हम।’’ नीति बोली।
‘‘आर यू श्योर ?’’ संदीप ने हार नहीं मानी।
‘‘यस, आय एम श्योर।’’ कहकर नीति ने फोन रख दिया। नीति का मूड बहुत उखड़ चुका था, पर चेहरे पर शांतिवाला भाव लाकर उसने रीमा को गले लगाकर विश किया, फूल आदि प्रेजेंट किया। सब सहेलियाँ हँसी-मजाक में लग गईं। चाहकर भी नीति संदीप को दिमाग से न निकाल पाई। सबने उसका ये अनमनापन महसूस किया। जब वह सिनेमा हॉ़ल से निकल रही थी तो उसको लगा, जैसे उसको कोई छुपकर देख रहा है। वह झटके से मुड़ी तो कोई नहीं था। वह ऑटो रिक्शा स्टैंड पर जाने लगी तो उसे संदीप की मोटर साइकिल नजर आई। वह चुपचाप ऑटो में बैठकर सहेलियों से विदा ले घर चली आई।
घर आकर वह मम्मी के कंधे से लगकर फूट-फूटकर रोने लगी। मम्मी समझ रही थीं, क्योंकि संदीप ने मम्मी से पिक्चर हॉ़ल व पिक्चर का पता लगा लिया था। नीति शांत हुई तो मम्मी-पापा के साथ बैठी।
मम्मी बोलीं, ‘‘अब तो ‘टू मच’ हो गया, चाहे नीति जीवन भर क्वारी रहे, ये शादी नहीं होगी।’’
पापा सकपका गए। ‘‘क्या कह रही हो ? ऐसा घर, ऐसा शानदार लड़का कहाँ मिलेगा ? थोड़ी इनसिक्योरिटी है उसे, वह शादी के बाद ठीक हो जाएगी, तब तो तू चौबीस घंटे उसकी नजरों के सामने रहेगी, बोर होकर खुद ही भेजा करेगा।’’ पापा थोड़ा हलका वातावरण बनाना चाहते थे।

‘‘और पापा, अगर भगवान् न करे मुझे आपकी या मम्मी की तीमारदारी के लिए कभी आना पड़े या अपने किसी और परिजन के दुःख में जाना पड़े, तब क्या होगा ?’’ नीति ने पूछा
‘‘कुछ नहीं होगा बेटा, ये ट्रांजिशन पीरियड है, इसमें लड़के थोड़ा कन्फ्यूज होते हैं, वह थोड़ा ओवरप्रोटैक्टिव है बस।’’
‘‘देखिए जी, भगवान् ने हम पर उपकार किया, जो ये छह महीने मिल गए हमें। अब फूँक-फूँककर कदम रखना होगा, कहीं ऐसा न हो, लड़की बरबाद हो जाए। पता नहीं क्या घुट्टी दी है, सारे दिन फोन पर ही बैठा रहता है।’’ मम्मी बड़बड़ाईं।
‘‘अच्छा, मैं शर्माजी से बात करता हूँ।’’
‘‘नहीं, पहले अपना तय कर लें क्या करना है। वहाँ से बात करके क्या पता लगेगा, वह अपने मुँह से अपने बेटे की बुराई थोड़े ही न करेंगे।’’
‘‘अच्छा, शादी को अभी महीना भर है, देखते हैं।’’ कहकर पापा ने टाल दिया। वे इतना बढ़िया लड़का हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे।
घर में सभी ने नीति के व्यवहार में शुष्कता महसूस की। यूँ ही फेड सूट पहने रहती, नाक पर चश्मा धरा रहता। ज्यों-ज्यों शादी के दिन नजदीक आ रहे थे, वह गुमसुम-सी रहने लगी। अब तो पापा भी चिंतित से होने लगे। फोन की घंटी बजते ही चौंक पड़ती, प्रतीक से न कभी झगड़ा, न वह पहले जैसी मान-मनौवल।
इस बार तो हद ही हो गई। ज्यों ही मम्मी-पापा खाने से लौटे, नीति का चेहरा फक सफदे देखकर चिंता में पड़ गए। मम्मी ने प्यार से पूछा,
‘‘बेटा, कोई आया तो नहीं ?’’
‘‘नहीं मम्मी।’’ नीति मानो खोई हुई थी। हमेशा मम्मी-पापा बाहर जाते तो नीति कपड़े वगैरह समेटकर, घर सँवारकर, सबकुछ तैयार रखती कि मम्मी थकी हुई आएँगी, परंतु आज सारा घर यूँ ही पड़ा हुआ था, पलंग की चादरें भी न सँवारी गई थीं।

मम्मी ने जल्दी-जल्दी घर सँवारा। आते समय नीति के लिए आइसक्रीम ले आए थे, वह भी नीति ने फ्रिज में रख दी। मम्मी जल्दी ही बिस्तर पर लेट गईं, नीति को पास बुलाया, पुचकारकर अपने पास लिटा लिया, बोलीं, ‘‘बेटी, कुछ बात तो जरूर है, अपनी मम्मी को नहीं बताएगी ?’’
बस फिर क्या था। नीति के सब्र का बाँध टूट गया। उसने टी.वी. ऑन-ऑफ करने की सारी बातें बता दीं। उन्होंने दो टूक पूछा, ‘‘बेटी, अब बता, अभी भी तू इस शक्की के पल्ले बँधना चाहती है ? मुझे ‘हाँ’ या ‘ना’ में जवाब दे।’’
‘‘पर मम्मी वह कहता है कि वह मर जाएगा मेरे बगैर, पता नहीं कैसी अजीब-अजीब सी बातें करता है।’’ नीति समझ नहीं पा रही थी।
‘‘कोई नहीं मरा करता और ऐसे लड़के तो बिलकुल नहीं। कल तेरे पापा और मैं रिश्ता वापस करके आएँगे। और बेटी, तू अपने इंटीरियर डेकोरेशन के प्रोजेक्ट पर मेहनत से काम कर।’’
नीति तो अपने माता-पिता की सूझ-बूझ व आपसी समझ होने के कारण बच गई; परंतु यही संदीप अपनी पत्नी को, जिसे ‘चट मँगनी पट ब्याह’ करके लाया था, सिगरेट से जला-जलाकर तड़पाता है और लगभग कैद कर रखा है घर में। इधर, नीति ने हाथ आए प्रोजेक्ट पर जमकर मेहनत की और कैरियर में एक मुकाम हासिल कर अपने ही साथ के एक आर्किटेक्ट से शादी कर ली। दोनों एक-दूसरे के पूरक बन जिंदगी में आगे बढ़ रहे हैं।

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