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जीना है हर पल

मंगला केवले

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2852
आईएसबीएन :81-88139-35-1

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लेखक ने एक कर्मयोगी के जीवन-संघर्षों और देश व समाज के प्रति उनकी असाधारण सोच को बहुत ही मार्मिकता से कलमबद्ध किया है...

jeena hai har pal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


हम डॉ. की हठ की कहानी के साथ सूखे कुरते की कहानी सुनने में रम गए थे। सचमुच हमारे घर में हर खुशी और आनन्द की बाहर आयी थी। डॉ. मुझसे सदैव कहते थे, ‘मंगल’ घर में प्रवेश करते ही पत्नी और बच्चों के खुशी दमकते चेहरे, घर में धीमें स्वर में गूँजता मधुर संगीत तथा हरदम दिखाई देने वाले अनेक विषयों तथा ज्ञान से भरपूर ग्रंथ- इनके अलावा जिन्दगी में और क्या खुशी हो सकती है? यही वजह थी कि पत्नी और बच्चों के साथ छोटी-छोटी यात्राएँ करना, छोटी-छोटी बातों में भी उन्हें शामिल करना, उनका सम्मान करना, मधुर संगीत सुनना, विभिन्न विषयों से संम्बंधित ग्रंथ-सम्पति इकठ्ठा करना आदि बातों में डॉ. व्यस्त रहते थे।

 ‘बचपन में मैंने पैसे कमाने के लिए आवंछित लोगों के कपडों पर भी इस्तिरी की। लेकिन अब बचत, घर की खुशी-संतुष्टि के लिए मैं अपनी पत्नी और बच्चों के कपड़ों को क्यों नहीं इस्तिरी करूँ? अपने पिता को यों इस्तिरी करते हुए देखकर बच्चों के मन में भी अपना काम खुद करने की भावना उदित हो, यह भी उनका उद्देश्य होता था। ‘अपने ही घर की खुशी बढ़ाने के लिए जितना संभव हो उतना काम करने में क्या हर्ज है?’ यह कहते हुए डॉक्टर ने पूरे सप्ताह का इस्तिरी करने का काम पूरा किया।

प्रस्तावना


चर्मकार समाज का एक युवक प्रतिदिन सड़क के किनारे बैठकर बूट पॉलिश करता है। तरह-तरह की नौकरियाणँ करता है, चौराहों और रेवले स्टेशनों पर छोटा-मोटा सामान बेचकर पैसे कमाता है। इस पैसे से वह अपना पेट पालने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई का खर्च भी उठता है। यह क्रम वर्षों जारी रहता है। जीवन में कदम-कदम पर असीमित कष्ट और संघषों का झंझावात, लेकिन यह कुछ युवक हार नहीं मानता। झंझावातों को झेलते हुए और दृढ़ निश्चय के साथ चुनौतियों का डटकर मुकाबला करते हुए यह युवक एक दिन डॉक्टर बन जाता है-डॉ. यशवंत केवळे ! जिंदगी में एक मुकाम हासिल किया, वह भी अपनी योग्यता और प्रतिभा के बलबूते। किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया, न ही कोई शॉर्टकट रास्ता अपनाया। दलित समाज में पैदा अवश्य हुआ और जीवन में अनेक बार शेष समाज की संकीर्ण मानसिकता का सामना भी किया, किंतु मन में तनिक भी दलित भाव नहीं; आरक्षण कता लाभ उठाने की प्रवृत्ति भी नहीं। अपनी योग्यता पर पूरा विश्वास।

वास्तव में डॉ. यशवंत केवळे का यह जीवन-संघर्ष किसी महापुरुष के जीवन से कम प्रेरणादायी नहीं है। जीवन के हर कदम पर संघर्ष और असीमित कष्टों को सहते हुए भी वह डॉक्टर बने, लेकिन हृदय में तनिक भी अहंकार भाव नहीं। वह अपनी सफलता का पूरा श्रेय समाज को देते हैं। समाज के प्रति पूर्ण कृतज्ञता का भाव। एक साधारण व्यक्ति होते हुए भी समाज के प्रति असाधारण दृष्टिकोण। ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। यद्यपि डॉ. केवळे किसी समाज सुधार आंदोलन से नहीं जुड़े थे, लेकिन फिर भी समाज-परिवर्तन के प्रति उनका एक निश्चित मत था, ‘यह हमारा समाज है। हम इसी में पैदा हुए और इसी ने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया। मुझे जीवन में जो भी यश मिला है, उसका श्रेय इसी समाज को जाता है।’ यह थी उनकी असाधारण सोच, समाज-बोध की अद्भुत मिसाल। ऐसे कर्मयोगी को ‘silent revolutionary’ कहना ही उचित होगा। इसके जीवन का प्रत्येक पल प्रेरणादायी है। इस पुस्तक में श्रीमति मंगला केवळे ने इस revolutionary के जीवन-संघर्षों और देश व समाज के प्रति उनकी असाधारण सोच को बहुत ही मार्मिकता से कलमबद्ध किया है, जिससे प्रत्येक पीढ़ी के व्यक्ति को अपने जीवन के संघर्षों का मुकाबला करने की प्रेरणा मिलती हैं।

-शेषाद्रि चारी

मनोगत



एक स्कूटर दुर्घटना में जब डॉ. केवळे का निधन हुआ तो पूरे घर का वातावरण ही बदल गया। मेरा मन स्वयं को विधवा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। मैं रोए जा रही थी। बहुत कुछ तत्त्वज्ञान समझाकर लोग मुझे शांत करने का प्रयास कर रहे थे; लेकिन मै उन लोगों से पूछती थी, ‘आप मुझे क्या तत्त्वज्ञान सिखा रहे हैं ? उन्होंने बूट पॉलिश की, पैसे कमाने के लिए तरह-तरह के काम धंधे किए, अनेक प्रकार की नौकरियाँ कीं। ये सब करके वे डॉक्टर बने। उन्होंने कला की उपासना की और अहंकारशून्य जीवन जिया। उन्हें इस समाज और निसर्ग से प्रेम का संबंध बनाना था और एक अच्छे व्यक्ति का आदर्श प्रस्तुत करना था। मेरे प्रिय जीवन-साथी से परमेश्वर ऐसा व्यवहार नहीं कर सकते। परमेश्वर क्रूर नहीं है। वह तो बड़ा दयालु है।’

इस प्रकार दिन गुजरते गए।
डॉ. केवळे शौकिया तौर पर ‘महाराष्ट्र टाइम्स’, ‘लोकसत्ता’, ‘लोकप्रभा’, ‘सकाल’ और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् ‘लोकसत्ता’ के वरिष्ठ सहायक संपादक श्री सुभाष सोनावाणे ने झंझावात हमेशा के लिए बुझ गया’ नामक शीर्षक से अपने पत्र में एक लेख प्रकाशित किया। वास्तव में डॉ. केवळे को अपने बारे में लिखना पसंद नहीं था। वे कहते थे, ‘मैं डॉक्टर बन गया और भी कैसे बना, यह खुलकर लिखने या कहने की मेरी इच्छा नहीं है। मैंने प्रयत्न किया अपने लिए, पसंतु महापुरुषों ने कष्ट सहे समाज के लिए। सतत अभ्यास करने के कारण मैं कितना सामान्य हूँ, यह मुझे ज्ञात है।’ यह कहकर वे लिखने से मना कर देते थे। परंतु मैंने आग्रह करके उनके अपने संघर्षमय जीवन के बारे में डायरी लिखने के लिए बाध्य किया। ‘नीता और निनाद के लिए ही सही, आप लिखिए।’ ऐसा उनसे कहती थी।
उनकी मृत्यु के एक महीने पश्चात् भी लोगों का आना-जाना लगा रहा। उनके बारे में लिखने के लिए लोगों ने मुझसे बहुत आग्रह किया। नौकरी के साथ-साथ अकेले ही घर-परिवार भी सँभालना था। इसलिए काम का बहुत दबाव था। काम का दबाव थोड़ा कम होने के बाद मैंने सोचा कि एक व्यक्ति के नाते उनमें बहुत से गुण-अवगुण रहे होंगे। कम-से-कम मेरे बच्चों को तो उनके बारे में कुछ पता चले, यह सोचकर मैंने लिखने का फैसला किया।

मैंने उनका संपूर्ण साहित्य एकत्रित किया। उसके बाद सगे-संबंधियों, मित्रों और शुभचिंतकों से प्राप्त जानकारी तथा संस्मरण, उनके द्वारा लिखी डायरी, प्रवास वर्णन रोजाना का हिसाब-किताब, उनके द्वारा अनेक विषयों पर लिखे लेख, पुरानी चिट्ठियाँ, फोटो एलबम और मेरी स्वयं की लिखी डायरी-इन सबको आधार बनाकर मैंने यह कथा लिखनी प्रारंभ की। बस या रेल में यात्रा करते हुए जब कभी मुझे डॉक्टर साहब के बारे में कोई खास प्रसंग याद आता था तो मैं उसे तुरंत किसी कागज पर लिख लेती थी। लिखते समय जब मुझे डॉक्टर की याद आती तो मैं मानसिक रूप से बहुत विचलित महसूस करती। कभी लिखा ही नहीं, इसलिए लिखने की आदत ही नहीं। लिखने का तरीका भी पता नहीं। इसलिए लिखते समय मुझे बहुत परेशानी हुई। फिर भी जैसे-तैसे मैंने उनके बारे में कुछ लिख लिया।

आखिर, उनकी मृत्यु के डेढ़ दो वर्ष पश्चात् मैंने उनकी जीवन-कथा लिख डाली। इस कहानी में कल्पना पर आधारित कुछ नहीं है। जो लिखा है वह सब सत्य है, मेरी समझ के मुताबिक है। जैसे-जैसे घटनाएँ घटीं, उसी क्रम में उन्हें लिख दिया और उनके सही व्यक्तित्व का दरशाने का प्रयास किया। इसलिए मेरे सास-ससुर, जेठ-ननद, माँ-बाप और सगे-संबंधी कोई गलतफहमी न पालें। इस पुस्तक के द्वारा किसी को प्रताड़ित या बदनाम करने की मेरी इच्छा नहीं है। मेरी ससुराल और मायकेवालों के कारण ही हम दोनों का व्यक्तित्व बना, हमने यह दुनिया जानी और दुःखों को सहन करने की शक्ति प्राप्त की। इसलिए उन सबके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करती हूँ।

जिन लोगों ने मुझे उनके बारे में जानकारी दी,संस्मरण बताए व चिट्ठियाँ दीं, मैं जहाँ नौकरी करती हूँ उस बैंक ऑफ महाराष्ट्र ने मुझे यह कथा प्रकाशित करने की अनुमति दी, अत मैं उनके सहयोग के लिए हृदय से आभारी हूँ।
इस पुस्तक के अनेक विषयों का उल्लेख है; परंतु जो विशेष बात उभरकर आती है, वह है डॉ. केवळे के दृढ़ निश्चय शिक्षण और आदर्श जीवन जीने के लिए उनका संघर्ष। उनके जीवन-आदर्श समाज के हर वर्ग तक पहुँचें और समाज-परिवर्तन के अनेक कारणों में से यह पुस्तक भी एक कारण बने-इसी आकांक्षा से मैंने इस कौंटुंबिक कथा को प्रकाशित करने की अनुमति दी।

किसी एक परिवार में प्रतिदिन घटनेवाली अनेक प्रिय-अप्रिय घटनाओं का भी इस कथा में उल्लेख है; परंतु यह कोई ‘सास-बहू’ की कथा नहीं है। सामान्य घटनाओं के प्रति भी डॉ. केवळे का जो असामान्य दृष्टिकोण था, उसके प्रति भी मैं ध्यान आकर्षित करना चाहती हूँ। डॉ. केवळे वैसे समाज-परिवर्तन के किसी आंदोलन से नहीं जुड़े थे, परंतु समाज-परिवर्तन के प्रति उनका एक निश्चित मत था। वे कहते थे, ‘यह हमारा समाज है। हम इसी में पैदा हुए और इसी ने हमें पाला-पोसा। इसलिए मुझे जो यश मिला है, उसका बहुत बड़ा श्रेय इसी समाज को जाता है।’ यही समाज-बोध उनके जीवन का आधार बना।’ भले ही हमारे जीवन में कितने ही दुःख और दरिद्रता हो, पर हमारे जीवन का प्रत्येक पल और प्रत्येक क्षण निसर्ग और समाज के प्रति कृतज्ञता है।’

इस कहानी के हिंदी अनुवाद में श्रीमती सुलभा कोरे और श्री यदुनाथ चौबे ने जो योगदान दिया, उसके लिए मैं हृदय से आभारी हूँ। साथ ही ‘ऑर्गेनाजर’ के संपादक भी शेषाद्रि चारी के सहयोग के लिए मैं विशेष आभार व्यक्त करती हूँ।
अंत में परमेश्वर से मेरी विनती है, ‘हे परमेश्वर ! मेरे शेष जीवन  में मुझे कितने भी कष्ट दे, परंतु मुझसे सभी अच्छे काम करवाना। कौटुंबिक और सामाजिक कर्तव्य निभाने के लिए मुझे शक्ति दे तथा सारा समाज सुखी और आनंदित रहे।’


-मंगला यशवंत केवळे


जीना है हर पल



8 सितंबर, 1971, शनिवार की साँझ मैं ऑफिस से घर आई तो दरवाजे पर बाट जोहती मेरी माँ खड़ी दिखीं। मुझे देखते ही वह बोलीं, ‘‘अरी, तुझे देखने एक डॉक्टर आए हैं। देर तक तेरी राह देखकर वे अपने मित्रों के साथ पीछे की चाल में अपने किसी दोस्त के यहाँ गए हैं।’’ माँ की बात पूरी हुई कि इतने में ही पीछे से किसी के आने की आहट हुई। माँ ने झट कहा, ‘‘अरी, वहीं डॉक्टर।’’ हम माँ-बेटी दोनों हड़बड़ा उठीं। कंधे पर बैग लटकाए पसीने से तर-ब-तर चेहरा लिये मैं तो मन-ही-मन बुदबुदा पड़ी, ‘नाम लेते-न-लेते तुरंत वह डॉक्टर दरवाजे पर हाजिर। सौ वर्ष की उम्र तो भोगेगा ही यह डॉक्टर !’

डॉक्टर और उनकी मित्र मंडली-बलभीम बाधमारे, कौस्तुभ सुले और नारायण परेदशी घर में आ पधारे। घर में आये मेहमानों को बैठाने के लिए लोहे के चद्दर की एक पुरानी खाट हमारे पास हमेशा तैयार रहती थी। मेरे जन्म के समय यानी माँ की प्रथम प्रसूति के समय उनके पिताजी बड़े हौसले से इसे ले आए थे। घर में और सामान न होने के कारण एकमात्र यह खाट ही हमारी शान की चीज थी। डॉक्टर और उनके दोस्त इस पर विराजमान हो गए। कंधे पर झूलते हुए बैग को उन्हीं के सामने उतारकर एक खूँटी पर उसे टाँगती हुई मैं दरवाजे की चौखट के पास खड़ी हो गई। माँ ने भी स्टोव पर चाय चढ़ा दी और मेरे पास आकर खड़ी हो गईं। थोड़ी देर तक चुप्पी छाई रही, किसी ने कोई बात न की, सिर्फ स्टोव की आवाज शांति को भंग कर रही थी।
बाघमारे व परदेशी मेरे पुराने जाने-पहचाने थे। उन्होंने ही बातचीत की शुरुआत की। वे कहने लगे, ‘‘ये हैं हमारे मित्र डॉ. यशवंत केवले। विछले साल ही के.ई.एम. अस्पताल से डॉक्टर बनकर निकले हैं। इंटर्नशिप करने के बाद मुंबई महापालिका में लग गए हैं।’’
धीरे-धीरे बातचीत का सिलसिला बढ़ा। सवाल पूछे जाने लगे। डॉक्टर और मैंने परस्पर एक-दूसरे का संक्षिप्त परिचय। प्राप्त कर लिया। चायपान हो गया। मेहमान विदा होने  लगे तो माँ उन्हें छोड़ने के कारण बाघमारे और परदेशी ने डॉक्टर से मेरे बारे में पहले ही बहुत कुछ बता दिया था। डॉक्टर के नजरिए से उनका आज का कार्यक्रम सिर्फ ‘लड़की देखना’ था। वह भी पूरा हो गया।

माँ मेहमानों को विदा कर वापस आ गईं और बड़ी खुशी से मुझसे कहने लगीं,‘‘अरी, मंगल डॉक्टर ने तुझे पसंद कर लिया है और हामी भी भर दी है। अब हमें सिर्फ अपनी पसंदगी बतानी है। वैसे तो यह लड़का मुझे ठीक लगा है, तो भी हम डॉक्टर के बारे में पूरी जानकारी हासिल करेंगे। तुम दोनों की जोड़ी खूब जँचेगी।‘हाँ’ कर देने में कोई हर्ज नहीं है।’’
हम जहाँ रहते थे, उस चाल में पहले से ही रह लक्ष्मण कवड़े और बलभीम बाधमारे से डॉक्टर के बारे में बहुत सी जानकारी मिली। बूट-पॉलिश और दूसरे छोटे-मोटे काम करके पेट पालनेवाले डॉक्टर यशवंत केवले किस तरह डॉक्टर बन गए, छानबीन करके माँ ने इस इतिहास का पता लगाया। माँ ने डॉक्टर की गरीबी का स्वरूप मेरे सामने स्पष्ट रूप से खड़ा कर दिया। डॉक्टर के माता-पिता भी मेरा और रहन-सहन देख गए। कुल मिलाकर उन्हें भी यह रिश्ता पसंद आया।
हृदय में महान् संकल्प धारण कर दुष्कर कष्ट सहते हुए डॉक्टर बनने की बात से मेरे मन में अचरज भरी उत्सुकता जगी। मैंने भी अपनी ओर से हामी भर दी। रिश्ता तय होने तक का समस्त कार्यक्रम दोनों परिवारों की ओर से निश्चित किया गया। लेन-देन, शादी का खर्च मान-सम्मान तथा दूसरे अतिरिक्त खर्चे भी तय कर लिये गए। परंतु डॉक्टर की माँ ने बतौर दहेज के चालीस हजार रुपयों की माँग करके सबको पसोपेश में डाल दिया। दहेज का यह मामला सुलझाए नहीं सुलझ पा रहा था। आखिर में इधर-उधर के अनेक संबंधियों ने सास को समझाकर इसका समाधान कराया। हमारी तरफ के लोगों ने इस छुटकारे से राहत की साँस ली।

अंत में विवाह की तिथि सुनिश्चित हो गई। 9 दिसंबर, 1971 को मँगनी भी हो गई और एक-दूसरे को जानने-सुनने के मकसद से हमारा मिलना-जुलना शुरू हो गया। इसी मिलने-जुलने के दरमियान हमने अपनी-अपनी राम कहानी से एक दूसरे को परिचित कराना शुरू किया।
मँगनी के बाद हम पहली बार मंत्रालय के सामनेवाले बाग में मिले। डॉक्टर हाथ में एक मोटी सी फाइल थामे बाग के करीबवाले बस स्टॉप पर तयशुदा समय पर खड़े थे। बाद में हम दोनों बाग में जाकर बैठ गए। डॉक्टर ने फाइल खोली, अनेक जगहों पर अपने किए गए कार्यों की प्रवीणता से प्राप्त प्रमाणपत्र मुझे दिखाने लगे। मैं विस्मय-विमुग्ध हो उठी। अपना पेट भरने के लिए अनेक प्रकार के कार्यों में लगे होने पर भी इस तरह की प्रवीणता प्राप्त करके डॉक्टरी की शिक्षा ग्रहण कर लेने की बात से मैं उत्सुक होने के साथ ही भावाभिभूत भी हो उठी। विवाह पक्का होने के ऐन वक्त पर मैंने ये सारी बातें सुन रखी थीं; लेकिन अब तो इन बातों के प्रत्यक्ष प्रमाणपत्रों के साथ डॉक्टर मेरे सामने मौजूद थे। भाग्य से इतना गुणी दूल्हा पाने की बात बारंबार मेरे मन में आने लगी। सच कहूँ तो मैं एक प्रकार से आनंदातिरेक से अभिभूत हो गई। यों तो डॉक्टर के बारे में पहले ही काफी कुछ सुन चुकी थी, पर यहाँ तो उन सबकी संपूर्ण फाइल ही प्रस्तु हो गई। उनके बचपन के बारे में सबकुछ जानने की जिज्ञासा और जोर पकड़ने लगी; लेकिन यहाँ तो डॉक्टर ही आग्रह कर बैठे, ‘‘मैंने अपने बारे में बहुत कुछ बता दिया फाइल भी दिखा दी; अब तुम भी तो अपने बारे में कुछ बताओ।’’
डॉक्टर की इतनी संघर्ष भरी यात्रा के सामने कुछ बताने के लिए मेरे पास क्या धरा था ? फिर भी उनके आग्रह की खातिर मैंने अपनी नन्हीं सी कहानी की शुरुआत की।

देश को आजादी मिलने के पहले का समय था। मेरे पिता के पिताश्री थे गोपाल खंडू भगत। मेरे आजा गोपालजी सातारा जनपद में फलटण तालुका के अंतर्गत कालज गाँव के मूल निवासी थे। चप्पल-जूते के धंधे के सिलसिले में वे मुंबई से कराची तक चले गए थे। उनका धंधा काफी फला-फूला। वहाँ उन्होंने अपनी पैठ जमा ली। पिताश्री की माँ-यानी मेरी आजी का नाम था। अनुसूया। सन् 1937 में मेरे पिताजी का जन्म कराची (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ। पाँच सौतेली बहनें और दो सौतेले भाई थे उनके। मेरे पिताजी सबसे छोटे थे। जब वे चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तभी वहाँ-हिंदू मुसलिम दंगे की आग भड़की। आजाजी घर-द्वार छोड़कर अपना स्थायी निवास बना लिया। वे बड़ी गरीबी के दिन थे उनके लिए। आजाजी मिल में मजदूरी करने के साथ-साथ चर्मकारी का काम भी करते थे। मेरे पिताश्री शंकर भगत ने धारावी के सम्मित्र नाइट हाई स्कूल में दो साल तक अंग्रेजी की पढ़ाई भी की। किंतु जब माली हालत दिन-पर-दिन खस्ता होती गई तब उन्होंने पढ़ाई छोड़कर चर्मरोगी का काम शुरू किया। अठारह साल की उम्र पूरी करने के बाद उन्हें तुरंत एक कपड़ा मिल में नौकरी मिल गई। नौकरी के साथ-साथ अंग्रेजी सीखने के लिए उन्होंने पिंगेज क्लास में अपना नाम लिखा लिया। इसके साथ ही सिलाई, हारमोनियम, तबला, पखावज और बाँसुरी आदि बजाने की कला भी सीख ली; लेकिन शालेय शिक्षा उन्हें अधूरी ही छोड़नी पड़ी।

मेरी नानी हौसाबाई और नाना कृष्ण एकनाथ कांबले पुणे जिले में बारामती तालुका के ढाकाले गाँव से थे। नानाजी चमड़े की वस्तुएँ बनाने का काम करते थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। थी तो एकमात्र कन्या। नाम था उसका पार्वती और वही मेरी जन्मदात्री माँ थी।

भगत और कांबले परिवार का संबंध नाते-रिश्ते में तब्दील हो गया। उस समय मेरे पिताश्री की उम्र मात्र अठारह साल थी और माँ तो एकदम नाबालिग मात्र तेरह वर्ष की थीं। सन् 1954 में शंकर-पार्वती का विवाह हुआ। पार्वती के पेट में मंगलवार, 12 मार्च, 1957 को मेरा जन्म हुआ। मेरे परिवार में मेरे बाद भी भाई-बहन आ गए। मैं सबसे बड़ी थी। मेरे बाद शोभा, निर्मला और जयश्री-तीन बहनें तथा अंत में सबसे छोटा भाई किशोर। मेरा जन्म-यानी माँ की पहली प्रसूति ! अतः इस मौके पर उसे मायके बुला लिया गया। पिताजी की हरदम यह अपेक्षा रहती थी कि वह एकमात्र दामाद हैं,सो सास-ससुर को चाहिए कि वे उन्हें लाड़ करें और हमेशा आर्थिक मदद करते रहें, वगैरह। यही कारण था कि वे माँ को अकसर सताते रहते थे। नानाजी की आर्थिक परिस्थिति विकट थी, तब भी बेटी और दामाद की लड़ाई के बीच नातिन को तकलीफ न हो, सो उन्होंने मुझे अपने पास ही रख लिया।

यदा-कदा माँ मुझे देखने के लिए आ जाया करती थीं। उस वक्त मैं भी प्यार से भरकर ‘माँ’ कहकर उनसे लिपट जाती थी; लेकिन ‘पिताजी’ कहकर पुकारने का मौका तो कभी मिला ही नहीं। पाठशाला जाने की उम्र होने तक मैं ननिहाल में ही रही। आखिरकार नाना-नानी ने मुझे सायन के शिशु विकास-(अधुना-साधना) विद्यालय में ‘छोटा शिशु कक्षा’ में भरती करा दिया। इस पाठशाला के संस्सर बड़े अच्छे थे। विद्यार्थी और शिक्षकों के बीच गजब का अपनत्व और स्नेह था। यही कारण था कि अस्वस्थ होने पर भी मैं स्कूल जाने के हठ पर अड़ी रहती थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार मैं नानी की उँगली पकड़े स्कूल की ओर जा रही थी कि नानी ने मुझसे कहा, मंगल, वह देखो, सामने से जो आदमी आ रहा है न वही तुम्हारे पिताजी हैं।’ मैं कौतूहलपूर्वक उधर देखने लगी कि उन्होंने हमारी ओर पीठ फेरकर सड़क की पटरी बदल ली। मुझे बुरा लगा। दुःख का अहसास हुआ और पिताजी कैसे होते हैं, यह जानने से मैं वंचित रह गई। उन्हें देख पाऊँ, इससे पहले ही वे चले गए।...


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