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आजादी की मशालें

के.के. खुल्लर

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2855
आईएसबीएन :81-82827-55-9

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भारत का अंग्रेजों से हुए युद्ध में शहीद हुए क्रान्तिकारियों का वर्णन...

Azadi Ki Mashalen a hindi book by K. K. Khullar - आजादी की मशालें - के.के. खुल्लर

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

‘अन्याय के साथ समझौता नहीं, अपितु उसका निवारण करो’- गीता का यह सन्देश भारतीय राष्ट्रीय जीवन में सदैव नवीन ओज का स्रष्टा रहा है। युद्ध व शान्ति एवं प्रेम व घृणा में परस्पर विरोधी दिशाओं के समान ही अन्तर है। एक पक्ष शान्ति का इच्छुक होने पर भी जब तक दूसरा पक्ष वैसा ही इच्छा न रखे, तो शान्ति के उपासकों को ही कष्टों का सामना करना पड़ता है।

भारतीय राष्ट्रीय गौरव व अस्मिता को जब कभी भी किसी देशी-विदेशी सत्ता द्वारा चुनौती मिली है, तब-तब ही शहीदों और हुतात्माओं की टोलियाँ रंगमंच पर उभरी है। इस बात का गवाह है हमारा इतिहास। भारत माता ने जब भी बलिदान का आह्वान किया तभी माता के अनेक लाड़ले कर्त्तव्य-समर में कूदे हैं। बलिदान की अखण्ड परम्परा रही है हमारे देश में, ऐसी परम्परा जो अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है।

हर समाज में, हर काल में संस्कृति विरासत में प्राप्त होती आई है किन्तु पीढ़ी-दर-पीढ़ी सतत् बलिदान देते रहने की प्रेरणा भारतीय इतिहास की ही विशिष्ट धरोहर है। विदेशी सत्ता के अपवित्र बन्धन को तोड़ फेंकने के लिए हँसते-मुस्कराते फाँसी की ओर बढ़ते दीवानों से अंग्रेजी दासता के विरुद्ध संघर्षरत हुए क्रान्ति-पुत्रों को भी प्रेरणा मिली थी।

तेरा वैभव अमर रहे माँ,
हम दिन चार रहें न रहें।’

की भावना ही थी जिससे शहीद भगतसिंह, सुखदेव, मदनलाल धींगड़ा, हुतात्मा ऊधमसिंह, जतीन्द्रनाथ दास, करतार सिंह सराबा तथा लाला हरदयाल आदि-आदि क्रान्तिकारी आन्दोलन के पुरोधाओं को प्रेरणा प्राप्त हुई थी।
अत्याचार, अनाचार तथा दम्भ ने जब-जब हमारी अस्मिता को चुनौती दी है तब-तब ही भारत-माँ के सपूतों ने अस्थियों को दीप, रक्त को तेल और प्राणों को बाती बनाकर बलिदान की ज्योति को अखण्डित रखा है। भारतीय क्रान्तिकारी सपूतों ने अपना सिर हथेली पर रखकर जिस मार्ग पर बढ़ाया था, वह मार्ग था स्वराज्य और स्वधर्म का। धर्म के मर्म को पहचानकर ही दासता की बेड़ियों को काटने की आस उन्होंने अपने मन में सँजोई थी। आचार्य चाणक्य का यह कथन उनके सामने था कि दासता को स्वीकार न करने वाला ही सच्चा आर्य है। उन्हें इस बात का ज्ञान था कि- एक पल की दासता सत् कोटि नरक समान है और यह दासता देश के नैतिक तथा आर्थिक पतन का कारण भी है। अंग्रेजों द्वारा किये जा रहे आर्थिक शोषण की चुभन भी उनमें विद्यमान थी, तभी तो स्वधर्म और स्वराज्य 1857 के क्रान्तिदूतों का नारा था, जिनसे अन्य क्रान्तिकारियों ने प्रेरणा तथा उत्साह ग्रहण किया।

धर्म और देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले पुरोधाओं की जीवन-गाथाएँ हमें नई स्फूर्ति और प्रेरणा प्रदान करने में समर्थ होंगी। आज की नई पीढ़ी को स्वतन्त्रता विरासत में प्राप्त हुई है, इसलिए वह कर्त्तव्य-च्युत और पथ-विमुख होती जा रही है, नैतिकता का ह्रास तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। आपाधापी के इस काल में इन महान आत्माओं और शहीदों की जीवन-गाथाएँ हम सबका मार्गदर्शन कर हमें अपने नैतिक कर्त्तव्य का बोध कराने में समर्थ होंगी, ऐसी आशा है। यदि इस पुस्तक में आज की पीढ़ी को कुछ भी दिशा-बोध हो सका तो हम अपने परिश्रम को सफल समझेंगे।

-प्रकाशक

शाह अब्दुल लतीफ

और सामयिक भारतीय संस्कृति


वर्ष था सन् 1752 का और वह महीना था जब सिंध में क्रौंच वियोग में बिलखते हैं और प्रेमीजन मुरझाते हैं, यानी मई का महीना- आँधी और लू का महीना। ऐसे समय में काले रंग का लम्बा-सा कुर्ता और सफेद कुल्ला पहने एक दरवेश लाठी के सहारे मरुस्थल पार कर रहा था। तभी कच्छ के पास वाँग विलासुर नामक स्थान पर एक ऊँट-सवार ने उन्हें रोका- ‘‘ओ महान शाह ! यह नाचीज शागिर्द आपको सलाम करता है। इस मरुस्थल में आप कहाँ जा रहे हैं ?’’ सन्त ने जवाब दिया- ‘‘कर्बला जा राह हूँ, मेरे बच्चे ! मेरा दिल कर्बला जाने के लिए तरस रहा है।’’

‘‘हे परम पिता ! आप तो हमेशा ही अपने लोगों को यह आदेश देते रहे हैं कि आपको सिंध प्रदेश में भींत नामक स्थान पर दफनाया जाए। फिर आपने अपना यह इरादा क्यों बदल दिया ? अब जिन्दगी के आखिरी दिनों में आप अपनी मातृ भूमि क्यों छोड़ रहे हैं ?’’ इतना कहकर वह दावी (ऊँट-सवार) चला गया।
इस नौजवान के शब्दों ने सन्त का दिल पिघला दिया और वह वापस भींत लौट गये, जहाँ कुछ ही दिनों बाद उनका देहान्त हो गया। ये महान सन्त थे, शाह अब्दुल लतीफ, अमर ‘रीसालो’ के सर्जक। फारसी जबान में हाफीज, रूमी, सादी तथा पंजाबी जबान में फरीद और वारिसशाह का जो स्थान है, वही स्थान सिंधी भाषा में शाह अब्दुल लतीफ का है। उन्होंने सिंधी जुबान में वही कार्य किया जो चौसर ने अंग्रेजी में और फरीद ने पंजाबी में किया। वे कविता को सिंधी में ले आये और सिंधी को काव्यमय बना दिया।

भारत के दो हजार वर्षों भी अधिक पुराने कीर्तिमान इतिहास की अनुकूल और प्रतिकूल धाराओं का आलोचनात्मक तथा गहन विश्लेषण हमें बताता है कि हर तीन सौ वर्षों के बाद यहाँ एक ऐसा आन्दोलन हुआ जो इस देश के हृदय को बहा ले गया और, उसने जाति, रंग, धर्म और सम्प्रदाय की सभी दीवारों को तोड़कर धीरे-धीरे एक धार्मिक आन्दोलन को जन्म दिया। आखिर में ऐसे ही किसी-न-किसी आंदोलन के फलस्वरूप दूरगामी राजनीतिक परिणाम निकले हैं।
जब ईसा के छ: सौ वर्ष पूर्व ब्राह्मणवाद हमेशा के लिए खत्म हो गया। परन्तु, ऐसा नहीं हुआ। उसके ठीक तीन सौ वर्ष बाद अशोक के समय में बौद्ध धर्म स्वयं परिवर्तित होने लगा। उसमें मतभेद पैदा हो गये। ईसा की पहली शताब्दी में बौद्ध धर्म में फूट पड़ी जिसके परिणामस्वरूप यह धर्म ‘हीनयान’ और ‘महायान’ इन दो टुकड़ों में बँट गया।

हर्ष के समय में भारत में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में एक बहुत बड़ी धार्मिक उथल-पुथल हुई। इस्लाम का आविर्भाव एक ऐसी ताकत के रूप में हुआ जिसने बहुत से देशों के भाग्य बदल दिये। यही इस्लाम जब भारत में दाखिल हुआ तो उसने निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो के नेतृत्व में सूफीवाद और अन्य विचारधाराओं को जन्म दिया। इसके ठीक तीन सौ वर्ष बाद यानी 19 वीं शताब्दी में ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज, थियोसॉफिकल सोसायटी आदि का प्रादुर्भाव हुआ। अपने युग के विरुद्ध लड़ने के लिए पनपे इन धार्मिक आन्दोलनों का अध्ययन रुचिकर ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक रूप में जरूरी भी है। यह धार्मिक आन्दोलन सामाजिक रूप से लाभदायक तथा आर्थिक रूप से अनोखा है। इन आंदोलनों में कुछ तो बहुत ही सरल थे और कुछ जटिल, परन्तु सभी आंदोलन समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। किसी भी आंदोलन के कारण भारत की एकता को कभी धक्का नहीं पहुँचा बल्कि हर आंदोलन इस विशाल भूखण्ड की सामयिक संस्कृति को योगदान देकर समृद्ध करता रहा। अगर व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो शाह अब्दुल लतीफ इस आंदोलन के महत्त्वपूर्ण अंग थे, जिन्होंने इस आन्दोलन से जितना प्राप्त किया, उतना ही उसे समृद्ध भी किया।

इस आंदोलन के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव आश्चर्यजनक थे अर्थात् इस आंदोलन से समाज के हर व्यक्ति के मन पर गहरा असर हुआ। भारत की जनता, जोकि हर विदेशी आक्रमणकारी को समान रूप से अपना शत्रु मानती थी, उसी जनता के लिए एकता और भाईचारे का संदेश लेकर आया था यह धार्मिक आंदोलन।

किस तरह एक के बाद एक आक्रमणकारी भारत की सामयिक संस्कृति में शामिल होता गया, यह जानना बहुत मनोरंजक होगा। एक विशाल ऐतिहासिक दौर, जिसकी तुलना एक ऐसी भीड़-भरी रेलगाड़ी से की जा सकती है जिसमें हर स्टेशन से नये मुसाफिर अन्दर आना चाहते हो और रेलगाड़ी में बैठे हुए मुसाफिर अपनी पूरी ताकत से उन्हें रोकने का प्रयास करते हों। कई बार मैंने इस रेलगाड़ी को भारतीय संस्कृति की रेलगाड़ी कहा है जो तमाम अवरोधों के बावजूद हमेशा आगे ही बढ़ती रही है। जैसा कि हमेशा होता आया है, पिछले स्टेशन के आक्रमणकारी अगला स्टेशन आने पर प्रतिरोधक बन जाते हैं। आक्रमणकारी मुसाफिर किसी भी उपाय से गाड़ी के भीतर आना चाहते हैं, जिनमें हिंसक तरीका भी शामिल है और इसी तरीके को अधिकतर अपनाया गया। रेलगाड़ी के पुराने मुसाफ़िर पिछले सभी स्टेशनों के आक्रमणकारियों से मिलकर नये आक्रमणकारियों का मुकाबला करने में अपनी सारी ताकत लगा देते हैं। फिर भी हर स्टेशन पर थोड़े-बहुत मुसाफ़िर भारत की सांस्कृतिक रेलगाड़ी में प्रवेश पा ही जाते हैं। इस तरह यह रेलगाड़ी चलती रहती है।

आर्यों के समय से चली आ रही इस रेलगाड़ी में आक्रमणकारियों की सूची काफी लम्बी है, जिनमें फारसी, ग्रीक, बैक्टीरियन पार्थियन, हूण, येऊची, शक, अरब, अफगान और तुर्क जातियाँ शामिल हैं। ये सभी जातियाँ भारतीय सामाजिक ढाँचे में हिस्सेदार रहीं। संश्लेषण की इस प्रक्रिया में अपने को समा लेने की प्रवृत्ति पंजाब की प्रेमगाथाओं में विशेष रूप से मिलती है। उदाहरण के लिए सोहनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नु, सेहती-मुराद, मिर्जा-साहिबां और हीर रांझा प्रमुख रूप से लिये जा सकते है। अठारहवीं सदी में वारिसशाह ने हीर की रचना की, जिसमें उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के, समान रूप से पाये जाने वाले त्यौहारों और रिवाज़ों का जिक्र किया है। रांझा मुसलमान होते हुए भी हिन्दू जोगियों की तरह भगवे कपड़े और कानों में कुंडलियाँ पहनता है। वह अपने शरीर पर भभूत लगाता है, भगवान कृष्ण की प्रिय बासुँरी भी बजाता है और शिव-पार्वती के विवाह का उल्लेख भी करता है। वह वैरागी, उदासी, रामानन्दी और अन्य इसी प्रकार के सम्प्रदायों के लोगों से चर्चा करता है। झेलम के किनारे सिद्धों के मेले में शरीक होता है, हिन्दुओं के इकतीस शास्त्रीय रागों में वह पूर्ण रूप से पारंगत है।

हीर को साँप काट लेता है तब आयुवैदिक ओषधियों से उसका इलाज होता है। वह अपनी माँग में सिंदूर भरती है। उसका दहेज हिन्दुओं की तरह बाकायदा उसकी ससुराल में सजाया जाता है। रांझा को भाँग प्रिय है और भाँग का उल्लेख सिर्फ हिन्दू पौराणिक कथाओं में ही मिलता है। रांझा मुसलमान सूफियों की तरह बातें करता है। अत: वारिसशाह के मतानुसार हिन्दू जोगी और मुसलमान सूफी में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों इस बात पर विश्वास करते है कि ईश्वर मनुष्य के भीतर मौजूद रहता है और पूजा या इबादत की सीढ़ियों द्वारा ही मनुष्य की मुक्ति सम्भव है। मुसलमान योगियों की यह प्रथा कश्मीर में अब भी मिलती है। इन घाटियों में शिव-भक्त मुसलमान देखे जा सकते हैं। यहाँ के सिंधियों में अब भी हिन्दू रिवाज मनाये जाते हैं, स्त्रियाँ माँग में सिंदूर भरती हैं तथा हिन्दू पीरों के मुसलमान नाम और मुसलमान पीरों के हिन्दू नाम आज भी मिलते हैं।

शाह अब्दुल लतीफ का सूफीवाद हिन्दू-मुसलमानों के बीच एक बड़ा सेतु था। शाह लतीफ धार्मिक कर्मकाण्डों, पुजारियों के खोखलेपन और धर्मान्धों के मिथ्या चार के सख़्त खिलाफ थे। वे गंगा को पवित्र मानते थे, जिसमें एक ही बार नहा लेने से आत्मा शुद्ध हो जाती है। ‘सुर रामकली’ की एक बेंत से शाह ने नाथ योगियों के संबंध में कहा-

‘उनके सत्संग का लाभ उठाओ,
इनकी सेवा करो और
अपनी ज्ञान वृद्धि करो।
शीघ्र ही वे
लम्बे प्रवास को निकल जायेंगे,
अपने पीछे

पवित्र गंगा के लिए खूबसूरत दुनिया को छोड़कर।’
शाह साधना की बात करते हैं और सतनाम पुकारते हैं-

‘जगत के मोह से बचो
तुम्हारे दु:ख मिट जायेंगे
दिल में मीम और
जबान पर अलीफ रखो।’


दो सौ वर्ष बाद स्वामी रामतीर्थ ने भी यही शब्द कहे।
शाह अब्दुल लतीफ का जन्म सन् 1689 में सिंध हैदराबाद के हाला तालुका के भारपुर नामक ग्राम में हुआ था। उस समय औरंगजेब का राज्य था। सिंध की घाटियाँ उपजाऊ जमीन और प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध हैं। हड़प्पा और मोहन-जोदड़ो के काल से ही इन घाटियों में सोना पैदा होता रहा है। सबसे पहले अरबों ने सिंध को जीता परन्तु यहाँ की उच्च संस्कृति के सामने उन्हें झुकना ही पड़ा। फिर भी सिंध की जनता के लिए इस काल में मुसीबतों का दौर शुरू हो गया था। शाह अब्दुल लतीफ सिंध के इस बुरे समय में पैदा हुए। कोई दस वर्ष बाद एक अंग्रेज यात्री ने जब सिन्धु नदी को पार किया तो इस बेड़े को देखकर सिंध का अमीर चिल्ला उठा- ‘काश, ये सिंधी होता !’ इसके 144 वर्ष बाद सर चार्ल्स नेपियर ने सिंध को लार्ड डलहौजी के प्रदेश में मिला दिया। उसके बाद उसे अपराधबोध महसूस हुआ और उसने अपनी आत्मकथा में ‘मैंने अपराध किया’ शीर्षक अध्याय में इस बात का उल्लेख भी किया है।

शाह अब्दुल लतीफ के जन्म के कुछ ही समय बाद पिता शाह हबीब उसी तालुका के कोठड़ी नामक गाँव में बस गये। इस जगह से चार मील की दूरी पर भींत अर्थात् टीला है जहाँ इस महाकवि ने भिक्षुओं और फकीरों के बीच अपनी जिंदगी के अन्तिम वर्ष बिताए। इस महाकवि के जन्म-स्थान पर आज कोई भी स्मारक नहीं है जबकि भींत का टीला अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। बाबा फ़रीद के पाटण की तरह यह भी एक तीर्थस्थान है। शाह अब्दुल लतीफ के दादा शाह अब्दुल करीम (सन् 1536-1622) एक श्रेष्ठ कवि थे जिनके पूर्वज हैरात से 1398 में अमीर तिमूर के साथ यहाँ आकर बसे थे।

शाह हबीब के परिवार में जन्मे इस बच्चे के बारे में एक दरवेश ने भविष्यवाणी की थी कि यह बच्चा सिंध की जनता का दु:ख दूर करेगा, प्रेरणादायक काव्य लिखेगा और सिंध के इस मरुस्थल में ध्रुवतारे के समान चमकेगा। एक दन्तकथा के अनुसार, पाँच वर्ष की उम्र में इस बच्चे को नूर मुहम्मद भट्टी के पास पढ़ने के लिए भेजा गया तब उसने अलीफ से आगे कुछ भी पढ़ने से मना कर दिया। अल्लाह का पहला अक्षर भी अलीफ है। गुरु ने बच्चे की आँखों में रोशनी देखी और वे आश्चर्य से कह उठे- ‘यह बच्चा अपने आप ही ज्ञान प्राप्त कर लेगा।’ तब से वह बच्चा किसी भी पाठशाला में नहीं गया।

अपनी किशोरावस्था में वह मरुस्थल के योगियों के बीच घूमता रहा। तभी उसे सिंध के महान संत शाह इनायत के दर्शन हुए। उन्होंने इस युवक लतीफ को दो फूल दिये जो इस नौजवान की चमकती आँखों की नयी दृष्टि के प्रतीक थे। एक ओर किदवन्ती के अनुसार लड़की के पिता मिर्जा मुगल बेग द्वारा विघ्न के कारण उन्हें प्रेम में निष्फलता मिली थी। इसलिए वे सिंध के रेगिस्तान में भटकते रहे। घूमते-घूमते वे मुल्तान पहुँचे जहाँ से वे बलूचिस्तान में मकरान की ओर बढ़े। उन्होंने जैसलमेर, कच्छ और गुजरात में काठियावाड़ की यात्राएँ की। वे हिन्दुओं के पवित्र तीर्थ गिरनार भी गये। वहाँ उन्होंने भगवान कृष्ण की मूर्ति के सम्मुख नृत्य किया। उन्होंने लासोल के हिंगलाज में देवी दुर्गा के दर्शन किये। गोरखनाथ के शिष्यों के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे। उनके साथ शाह ने विस्तृत चर्चाएँ कीं।

हिन्दू संगीतकारों से वे बहुत प्रभावित हुए और उनके साथ उन्होंने काफी समय बिताया। अपने समय के उच्चकोटि के दो संगीतकार अटल और चंचल की उन्होंने बहुत सराहना की। उन संगीतकारों द्वारा प्रस्तुत ‘सुर कल्याण’ और ‘सुर रामकली’ संगीत के रस में भीगे दैवी उद्गार हैं। इन दोनों रचनाओं में शाह के सूफीवाद और संगीत-विषयक विचारों का समावेश है। हकीकत में, संगीत सुनते-सुनते ही शाह ने देहत्याग किया। उनकी कुछ अन्य रचनाएँ मसलन ‘सुर समुद्री’ और ‘सुर श्रीराग’ उनकी समुद्र-यात्राओं से संबंधित हैं।

‘शाह-जो-रीसालो’ की भूमिका में श्री फतेहचन्द वासवानी ने युवावस्था में शाह के असफल प्रेम के बारे में लिखा है। अपने प्रिय को पाने में तुच्छता का अनुभव करने पर दुनिया से बेखबर वह बालू के एक टीले पर दिन-रात बैठा रहता। चरवाहे द्वारा खबर पाने पर उसके पिता उसे घर ले आए। परन्तु घर पहुँचकर भी वे ज्यादा दिन नहीं टिके और वे अपना घर छोड़कर चले गये। कोई तीन साल तक वे हिन्दू साधुओं की संगत में घूमते रहे। यहीं उनका सच्चा व्यावहारिक अध्ययन सम्पन्न हुआ। उनकी यह भ्रमणशक्ति शेख सादी और गुरु नानक के साथ तुलनीय है।

एक दिन अचानक वे अपने पिता के घर फिर लौट आये और वहाँ पर आनन्द और उल्लास का वातावरण छा गया।
सन् 1713 में सईदा बेगम के साथ उनका विवाह हुआ। जिस सामाजिक क्रान्ति की बात वे सोचते थे उसे क्रियान्वित करने के लिए उन्हें एक साथी की ज़रूरत थी जो इस विवाह द्वारा पूरी हुई। सिंध में रूमी के नाम से प्रख्यात शाह अब्दुल लतीफ का सूफीवाद जहाँ एक ओर हिन्दुओं के वेदान्तवाद से प्रभावित है, ठीक वहीं दूसरी ओर बहुत कुछ कुरान के सिद्धान्तों पर आधारित भी है। भक्ति आन्दोलन के एक महत्त्वपूर्ण अंग की तरह शाह अब्दुल लतीफ उस बुरे वक्त में भारत की सामयिक संस्कृति की ज्योति जलाए रखने में सबसे आगे रहे।
उन्होंने मुल्लाओं और मुफ्तियों के दंभ और मिथ्याचार का पर्दाफाश किया। उसी प्रकार मुगल गवर्नर द्वारा हिन्दू तीर्थयात्रियों पर लगाये गये कर का भी विरोध किया। वे कहते- ‘तसबीह या माला फेरने से कोई लाभ नहीं, अच्छे कार्य करने की जरूरत है।’

वे शिया थे पर सुन्नी मुसलमान भी उनका बहुत आदर करते थे। वे मुसलमान थे पर हिन्दू भी उन्हें बहुत चाहते थे और सिख लोग भी उनका सम्मान करते थे। वे गुरुनानक के सच्चे अनुयायी थे। वे एक ऐसे भारतीय थे जो न सिर्फ हिन्दुस्तान में, बल्कि सम्पूर्ण इस्लामी दुनिया में आदर के साथ याद किये जाते हैं।
जोगियों की तरह काले धागों से सिला हुआ लम्बा कुर्ता पहनने वाला यह व्यक्ति उच्चकोटि का कवि है। कहा जाता है कि गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से लौट रहे थे तो सिंध होते हुए आये और उन्होंने शाह अब्दुल लतीफ के ‘बोल’ से चर्खे की प्रेरणा ली।
उन्होंने सिंधी कविता को अरबी और फारसी की तानाशाही से मुक्त किया और गजल के बदले दोहों को अपनाया। विचारों में प्रखरता, प्रकृति का विम्ब विधान तथा अलंकार-योजना के लिए शाह अब्दुल लतीफ अपने पूर्ववर्ती गुरुनानक और परवर्ती स्वामी रामतीर्थ समान थे। उन्होंने चरवाहों और ऊँट-सवारों द्वारा कही जाने वाली कहावतों और घरेलू मुहावरों का अत्यधिक प्रयोग किया है। वे अपनी वेदना को इस प्रकार व्यक्त करते हैं-

काँटों की तरह
दु:खों ने
मेरे दिल को फाँस लिया है।
जैसे पानी में नमक
वैसे ही प्रेम और मेरा दिल।
नीम की डाली की तरह
उन्होंने मेरे हृदय को उखाड़फेंका।’


शाह अब्दुल लतीफ बुनियादी रूप से सूफी धारा के प्रेम कवि थे- ऐसा प्रेम जिसकी न तो भौगोलिक सीमाएँ हैं, न ऐतिहासिक सीमाएँ हैं और न ही मानसिक सीमाएँ हैं। भगवान कृष्ण के दर्शन को वे द्वारका गये और तीर्थस्थान हिंगलाज की यात्रा भी उन्होंने की। सामयिक भारतीय संस्कृति में विश्वास रखने वाले शाह पूरे राष्ट्र में एक ही भौगोलिक और सांस्कृतिक सत्ता मानते थे। वे ऐसे मुसलमान जोगी थे जो सभी धर्मों की महानता में विश्वास रखते थे। वे हिन्दूवाद और इस्लाम को एक ही सत्य प्रकट करने वाले दो धर्म मानते थे। अपने इस सत्य के लिए वे दृढ़ होकर खड़े रहे। उन्होंने इस बात की बिलकुल चिन्ता नहीं की कि उस सत्य को किसने कहा है और उसकी आवाज किस रूप में आयी है।
डॉ. एच. एम. गुरुबक्षानी के अनुसार- ‘शाह बहुत लम्बे नहीं थे, परन्तु उनका कद सामान्य से अधिक ऊँचा था। उनका वर्ण गेहुआँ होते हुए भी गोरेपन से थोड़ा करीब था। उनका मुख तेजस्वी था और विशेष रूप से वृद्धावस्था में उनके मुख पर असाधारण दीप्ति झलकती थी।’

बौद्ध भिक्षुओं तथा मध्यकालीन सूफियों की तरह भिक्षा के लिए वे हाथ में एक किश्ती जैसा कमंडलु रखते थे। बैठते समय पंखा उनका हमेशा का साथी था। वे कम समय के लिए सोते थे और बहुत कम खाते थे। ऐसा ही सन्त प्रेम और करुणा का काव्य लिख सकता था। ऐसे ही मानस के आधार पर वे ‘सासी और पुन्नो’ तथा ‘नूरी और तेमाची’ की कल्पना कर सके।
18 वीं शताब्दी में अरबी और फारसी आदर्श भाषाएँ मानी जाती थीं। मुगल साम्राज्य के पतन के बावजूद अरबी और फारसी का प्रभुत्व कायम रहा। देशी (प्रादेशिक) भाषाओं में लिखकर उन्हें सम्पन्न बनाने का काम खतरे से खाली नहीं था। उस समय शाह अब्दुल लतीफ ने वही कार्य किया जो मीर तकी मीर ने उर्दू में किया। उनके दोहे, बोल, बेंत अभी भी भक्तिपूर्वक गाये जाते हैं। पवित्र कुरान और ग्रन्थसाहब को गहराई से समझकर शाह अब्दुल लतीफ ने धर्मनिरपेक्ष संस्कृति की ज्योति को सर्वाधिक प्रज्वलित किया। ऐसा ही कार्य बारहवीं शताब्दी में बाबा फरीद और तेरहवीं शताब्दी में निजामुद्दीन औलिया ने किया था। सिंध का यह गीत रेगिस्तान का दिव्य गीत है जो प्रेम पर आधारित अमर कृति ‘शाह जो-रीसालो’ से लिया गया है-

मैं ‘बाबीओं’ की तरह मरूँगा,’
लू के थपेड़ों से।
अगर मैं कभी
अपने प्रिय को भूल जाऊँगा।

शाह के काव्य पर ‘गीता’ का प्रभाव सुस्पष्ट है। वे अपने अनुयायियों से कहते हैं कि किसी बदले की आशा किये बिना ही अपना कार्य किये जाओ। वे कहते हैं कि भगवान हमेशा उन्हीं के पक्ष में होता है जो मेहनत करते हैं। निष्क्रिय और आलसी लोगों की भगवान भी मदद नहीं करता। उस नम्र और दयालु इन्सान ने जितनी कोमलता से गीत लिखे, उससे भी अधिक कोमलता से उन्हें गाया है। उनके अनुसार भगवान के सिवा किसी के भी ऊपर निर्भर होना पाप है। यहाँ भी वे ईश्वर पर निष्क्रिय रूप से निर्भर रहने के विरोधी हैं। वे चाहते है कि सक्रिय रहते हुए ईश्वरीय शक्ति पर भरोसा रखा जाये। पानी में तैरने के लिए आदमी को तैरना आना चाहिए, तभी भगवान उसकी मदद करेगा। शाह के जीवन-दर्शन में सक्रियता और गतिशीलता- ये दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं। वर्डस्वर्थ के घायल हृदय को जैसे क्षुद्र फूलों ने मानवता का पाठ पढ़ाया था वैसे ही शाह को पानी में तैरते हुए तुच्छ तिनके ने ईमानदारी का पाठ सिखाया है-


‘‘घास के इन तिनकों की वफा देखिये,
या तो वे डूबते हुए को बचा लेते हैं
या फिर प्रवाह में उसके साथ ही डूब जाते हैं।’’


शाह अब्दुल लतीफ 18 वीं शताब्दी में भारत के बड़े विद्वानों में से थे। उन्होंने पंजाब के बुल्लेशाह और वारिसशाह की तरह भारत की उस सामयिक संस्कृति को समृद्ध किया, जो उन्होंने मध्ययुगीन भक्तों और सूफियों से प्राप्त की थी। अपने पूर्ववर्ती आसीसी के सन्त फ्रांसिस तथा बाद में महात्मा गांधी के समान उन्होंने प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ ताकतवर न्यायी हो और दुर्बल सलामत; ऐसा समाज जो अहिंसा में विश्वास रखता हो और जहाँ सामाजिक और आर्थिक रूप से किसी का शोषण न हो। स्वयं अनपढ़ होते हुए भी उन्होंने सबके लिए शिक्षण आवश्यक माना। अपने युग के अन्याय और असमानताओं के खिलाफ उन्होंने आवाज उठायी। यहाँ तक कि पक्षियों का चित्रण करते समय भी उनकी सहानुभूति गिरे हुए, दुर्बल, घायल पक्षियों की ओर थी। वे शिकारी को चेतावनी देते हैं कि वह इन बेचारे पक्षियों को न मारे क्योंकि ‘काल’ सबसे बड़ा शिकारी है, जो हरेक को मार देगा। ‘‘पक्षी को मत मारों क्योंकि उसे मारने से तुम्हें सिर्फ उसका शरीर मिलेगा, पक्षी नहीं।’’
सन् 1752 में शाह अब्दुल लतीफ की मृत्यु हुई और हैदराबाद में भींत में उनको दफनाया गया। परन्तु वे अमर हैं। सबके हृदय को जीतने वाले को मृत्यु जीत नहीं सकती क्योंकि वह अपनी कीर्ति द्वारा अमर रहता है।
स्विनबर्न के अनुसार उच्चकोटि के काव्य में संगीत का होना अनिवार्य है। इस दृष्टिकोण के आधार पर जाँचने से शाह महान कवि ठहरते हैं।


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