कहानी संग्रह >> भटकती राख भटकती राखभीष्म साहनी
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भीष्म साहनी जी का बहुचर्चित कहानी-संग्रह...
Bhatakati Rakh - A Hindi book by Bhisham Sahni - भटकती राख - भीष्म साहनी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी कथा साहित्य में भीष्म साहनी का नाम प्रतिमान के रूप में स्थापित हो चुका है। प्रतिमान बन जाने तक की उनकी कथा-यात्रा अनेक पड़ावों और संघर्षों से होकर गुजरी है। उनके कथा साहित्य में रुचि रखने वाले पाठक अच्छी तरह परिचित हैं कि उनके पास एक विशिष्ट जीवन-दृष्टि है। अपनी इसी जीवन-दृष्टि के माध्यम से वे सामाजिक यथार्थ के जटिल स्तरों का बहुत ही कलात्मक ढंग से खोलते हैं। उनकी कला गहरे अर्थों में मानवीय संबंधों की त्रासदी और और उनके भविष्य से अभिन्न रूप से जुड़ी है।
भटकती राख भीष्म जी का बहुचर्चित कहानी-संग्रह है। इस संग्रह की कहानियों में उन्होंने वर्तमान जगत की समस्याओं को अतीत के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की कोशिश की है, इसलिए ये कहानियाँ काल के किसी द्वीप पर ठहरती नहीं, वरन् निरन्तर प्रवाहित इतिहास-धारा का जीवन्त हिस्सा बन जाती हैं। मनुष्य के इतिहास में उनकी यह रुचि किसी आनन्द-लोक की सृष्टि नहीं करती, बल्कि अभावों और शोषण के अंधकार में भटकते लोगों से हमारा आत्मीय साक्षात्कार कराती है। ‘यादें’ और ‘गीता सहस्सर नाम’ में बूढ़ी महिलाओं की दयनीय हालत को ही मामिर्कता के साथ अंकित किया है, तो ‘अपने-अपने बच्चे’ में सामाजिक विषमता से उत्पन्न मानवीय संकट का यथार्थपरक अंकन हुआ है। ‘भटकती राख’ की बुढ़िया मानवीय संघर्षों में जीती-जागती दास्तान है, जिसकी स्मृतियों के गर्भ में हमारा भविष्य रूपायित हो उठा है। लगातार अमानवीय होती जा रही सामाजिक परिस्थितियों के खिलाफ केवल क्षोभ और गुस्सा प्रकट करने तक सीमित न रहकर ये कहानियाँ नये समाज का स्वप्न भी सँजोती हैं।
भटकती राख भीष्म जी का बहुचर्चित कहानी-संग्रह है। इस संग्रह की कहानियों में उन्होंने वर्तमान जगत की समस्याओं को अतीत के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की कोशिश की है, इसलिए ये कहानियाँ काल के किसी द्वीप पर ठहरती नहीं, वरन् निरन्तर प्रवाहित इतिहास-धारा का जीवन्त हिस्सा बन जाती हैं। मनुष्य के इतिहास में उनकी यह रुचि किसी आनन्द-लोक की सृष्टि नहीं करती, बल्कि अभावों और शोषण के अंधकार में भटकते लोगों से हमारा आत्मीय साक्षात्कार कराती है। ‘यादें’ और ‘गीता सहस्सर नाम’ में बूढ़ी महिलाओं की दयनीय हालत को ही मामिर्कता के साथ अंकित किया है, तो ‘अपने-अपने बच्चे’ में सामाजिक विषमता से उत्पन्न मानवीय संकट का यथार्थपरक अंकन हुआ है। ‘भटकती राख’ की बुढ़िया मानवीय संघर्षों में जीती-जागती दास्तान है, जिसकी स्मृतियों के गर्भ में हमारा भविष्य रूपायित हो उठा है। लगातार अमानवीय होती जा रही सामाजिक परिस्थितियों के खिलाफ केवल क्षोभ और गुस्सा प्रकट करने तक सीमित न रहकर ये कहानियाँ नये समाज का स्वप्न भी सँजोती हैं।
भटकती राख
गाँव में फसल-कटाई पूरी हो चुकी थी। हँसते-चहकते किसान घरों को लौट रहे थे। भरपूर फलस उतरी थी। किसानों के कोठे अनाज से भर गये थे। गृहिणियों के होठों पर संगीत की धुनें फूट रही थीं। दूर-दूर तक फैली धरती की कोख इससे भी बढ़िया फसल देने के लिए मानो कसमसा रही थी।
रात उतर आयी थी और घर-घर में लोग खुशियाँ मना रहे थे। जब एक घर की खिड़की में खड़ी एक किसान युवती, जो देर तक मन्त्र-मुग्ध-सी बाहर का दृश्य देखे जा रही थी, सहसा चिल्ला उठी, ‘‘देखो तो खेत में जगह-जगह क्या चमक रहा है ?’’
उसका युवा पति भागकर उसके पास आया। बाहर खेत में जगह-जगह झिलमिल-झिलमिल करते जैसे सोने के कण चमक रहे थे।
‘‘यह क्या झिलमिला रहा है ? नहीं, यह सोना नहीं है।’’
‘‘फिर क्या है ?’’
उसका पति चुप रहा। उसने स्वयं इन चमकते कणों को पहले कभी नहीं देखा था।
पीछे कोठरी में किसान की बूढ़ी दादी बोल उठी, ‘‘यह सोना नहीं बेटा, यह राजा की राख है, कभी-कभी चमकने लगती है।’’
‘‘राजा की राख ? क्या कह रही हो दादी-माँ, कभी राख भी चमकती है ?’’
किसान की पत्नी ने कहा और लपककर बाहर जाने को हुई। ‘‘मैं इन्हें अभी बटोर लाती हूँ। और भागती हुई बाहर निकल गयी।’’
खेत की मुँडेर के पास एक कण चमकता नज़र आया। युवती पहले तो सहमी-सहमी-सी उसे देखती रही। फिर हाथ बढ़ाकर उसे उठा लिया और दूसरे हाथ की हथेली पर रख लिया। पर हथेली पर पड़ते ही वह कण जैसे बुझ गया और उसकी चमक जाती रही। किसान की पत्नी के आश्चर्य की सीमा न रही। फिर वह भागती हुई खेत के अन्दर चली गयी, जहाँ कुछ दूरी पर एक और कण चमक रहा था। इस बार भी वही कुछ हुआ जो पहले हुआ था। हथेली पर रखते ही वह बुझ गया और उसकी कान्ति समाप्त हो गयी।
किसान की पत्नी हतबुद्धि इधर-उधर देखने लगी। खेत में अभी भी जगह-जगह कण चमक रहे थे। बुझे हुए दो ज़र्रों को हाथ में उठाये वह भागती हुई तीसरे कण की ओर गयी, पर उसकी भी वही गति हुई, जो पहले दो कणों की हुई थी। कुछ देर बाद किसान युवती हथेली पर बुझे हुए तीन ज़र्रें उठाये, हताश-सी घर लौट आयी।
‘‘मगर पहले इतने चमक रहे थे, दादी-माँ, मैं सच कहती हूँ।’’ उसने उद्विग्न होकर कहा।
‘‘देखो न, यह सोना नहीं है बेटी, राजा की राख है।’’ बुढ़िया ने दोहराकर कहा।
‘‘राख भी कभी यो चमकती है दादी-माँ, क्या कह रही हो ? और फिर मेरे हाथ पर पड़ते ही बुझ गयी। कौन राजा ?’’ किसकी राख’’ युवती ने हैरान होकर बुढ़िया से पूछा।
‘‘जब मैं छोटी थी, तो मैंने अपनी दादी के मुँह से उसका किस्सा सुना था। बहुत पुरानी बात है....’’
और बुढ़िया राजा का किस्सा सुनाने लगी-
‘‘कहते हैं किसी शहर में एक युवक रहा करता था। बड़ा सुन्दर था और बड़ा साहसी था। अपने माँ-बाप का एक ही बेटा था। उसके माँ-बाप उसे देखते नहीं थकते थे, सगे-संबंधियों की आँखें भी उस पर से हटाये नहीं हटती थीं। सभी को उस पर बड़ा गर्व था, उससे उन्हें बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं
कि बड़ा होगा, माँ-बाप का नाम रोशन करेगा, बड़ा नाम कमायेगा।’’
‘‘पर जब वह बड़ा हुआ, तो एक रात अचानक घर से भाग गया। घर में किसी को ख़बर नहीं हुई। सुबह जब माँ-बाप को पता चला, तो वे बहुत घबराये और उसे ढूढ़ने निकले। दिन-भर भटकते रहे, आखिर वह उन्हें एक गाँव में किसी झोंपड़े के बाहर खड़ा मिला। ‘‘ ‘तुम यहाँ क्या कर रहे हो जी ?’ माँ ने बिगड़कर पूछा। ‘हम दिन-भर तुम्हें खोजते रहे हैं।’
‘‘युवक बड़ा सरल-स्वभाव का था। उसका दिल शीशे की तरह साफ़ था। माँ की ओर देखकर बोला, ‘रात को मैं सो रहा था, माँ, जब मुझे लगा जैसे बाहर कोई रो रहा है। मैं उठकर बाहर आ गया, मगर वहाँ कोई भी नहीं था। पर रोने की आवाज़ बराबर आ रही थी। मैं उस आवाज़ के पीछे-पीछे जाने लगा और उसे ढूँढ़ता हुआ यहाँ आ पहुँचा। मैंने देखा रोने की आवाज़ इस झोपड़े में से आ रही थी।’
‘‘बेटे की बात सुनकर माँ चिन्तित-सी उसके चेहरे की ओर देखने लगी।
‘‘ ‘अब घर चलो बेटा ! दिन-भर न कुछ खाया, न पिया, यहाँ भटक रहे हो।’
‘‘ ‘मैं घर नहीं जाऊँगा, माँ !’ युवक ने कहा।
‘‘ ‘घर नहीं चलोगे, क्यों भला ?’
‘‘बेटे ने पहले जैसी सरलता से उत्तर दिया, मैं घर कैसे जा सकता हूँ माँ, झोंपड़े में से रोने की आवाज़ जो आ रही है।’’
‘‘और अपने बाप के चेहरे की ओर देखने लगा।
बाप को अपने बेटे की आँखों में असीम वेदना नज़र आयी। वह देर तक अपने बेटे की ओर देखता रहा। फिर धीरे-से अपनी पत्नी के कन्धे पर हाथ रखा और उसे धीरे-धीरे घर की ओर ले जाने लगा।
‘‘ ‘तेरा बेटा घर लौटकर नहीं आयेगा।’ उसने कहा। माँ सिर से पाँव तक काँप उठी। ‘तो कब लौटेगा ?’
‘‘ ‘शायद कभी नहीं लौटेगा। जो लोग एक बार यह रोना सुन लेते है, वे घर नहीं लौटते।’
‘‘माँ की आँखों में आँसू भर आये और वह फफक-फफककर रोने लगी।
‘‘बूढ़े बाप ने सच ही कहा था। वह युवक, जो एक बार घर से निकला तो फिर लौटकर नहीं आया।’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’ किसान और उसकी युवा पत्नी ने बड़े आग्रह से पूछा। युवती की हथेली पर अभी वे जर्रें रखे थे, जिन्हें वह खेत में से उठा लायी थी।
दादी-माँ कहने लगी, ‘‘फिर वह बहुत भटका। जहाँ कहीं जाता वह रुदन बराबर उसके कानों में गूँजता रहता। कहते हैं उन दिनों देश पर किसी बड़े आतमतायी का शासन था और प्रजा बड़ी दु:खी थी। यह युवक उन लोगों के दल से जा मिला, जो आततायी के साथ लोहा ले रहे थे।
उसके बहुत-से साथी मौत के घाट उतार दिये गये। अन्यायी उसे भी बार-बार काल-कोठरी में डाल देते। पर काल-कोठरी की मोटी-दीवारों में भी उसे झोंपड़ों का रोना सुनायी देता रहता। वहाँ से निकलते ही वह फिर आतमतायी से जूझने लगता। इस बीच उसके बूढ़े माँ-बाप मर गये, उसकी युवा पत्नी भी मर गयी, घर का धन-धान्य भी बहुत कुछ जाता रहा, पर वह घर नहीं लौटा।
‘‘लोगों ने उसके दिल की थाह पा ली और उसे बेहद प्यार करने लगे। जब भी वह किसी गाँव या शहर में जाता, तो हजारों लोग पलकें बिछाये उसकी राह देखते रहते। वह जो भी कहता लोग बड़े ध्यान से सुनते, उसके क़दमों की आहट पाते ही जैसे वे नींद से जाग जाते थे।
‘‘फिर आतमतायियों को मुँह की खानी पड़ी और उसका देश उनके पञ्जे से निकल आया और देश के लाखों-लाख लोगों ने उसे अपना राजा बना लिया। उनके दिल का राजा तो वह पहले से था, अब राज्य की बागडोर भी उन्होंने उसके हाथ में दे दी।
‘‘ ‘अभी तो केवल दासता की बेड़ियाँ टूटी हैं।
झोपड़ों का रुदन तो अभी वैसे-का-वैसा बना है।’ उसने अपने लोगों से कहा और उस रुदन को शान्त करने के लिए फिर से निकल पड़ा।
‘‘वरसों बीत गये। राजा बूढ़ा हो चला। वह अब भी नगर-नगर, गाँव-गाँव जाता। सहस्रों लोगों का स्नेह और विश्वास के साथ अपनी ओर देखते पाकर उसकी आँखें चमक उठतीं और उसके अंग-अंग में स्फूर्ति की लहर दौड़ जाती और वह अपने संघर्ष में जुट जाता। इसी प्रयास में राजा थककर चूर हो गया और एक दिन मर गया।
‘‘लोग बहुत रोये, बहुत दु:खी हुए। उनकी आँखों के सामने जैसे अँधेरा छा गया। उन्हें लगा जैसे उनका राजा सदा के लिए उन्हें छोड़ गया है।
‘‘पर यह कैसे हो सकता था ! उनके साथ तो उसका युगों-युगों का प्यार था, युगों-युगों का संबंध था। वह मरकर भी उनके पास लौट आया।’’
‘‘वह कैसे दादी-माँ, मरकर भी कभी कोई लौटता है ?’’
दादी-माँ ने ठण्डी आह भरी और कहने लगी, ‘‘मरने से पहले उसने कहा कि मेरी भस्मी को झोपड़ों के आसपास खेतों में बिखेर देना। कुछ जल में बहा देना।
‘‘और लोगों ने वैसा ही किया, जैसा राजा ने कहा था। चार विमान उड़े और उसकी राख को देश के कोने-कोने में बिखेर आये। फिर हवाएं चली और राख के ज़र्रों को उड़ाकर कहाँ-से-कहाँ ले गयीं। कोई ज़र्रा कहीं, तो कोई कहीं जा गिरा।’’
‘‘तो क्या यह राजा की राख थी, जो चमक रही थी ?’’ युवती ने आग्रह से पूछा। ‘‘मगर हमने इसे पहले तो कभी नहीं देखा।’’
दादी-माँ कुछ देर तक चुपचाप बैठी रही, फिर धीरे-से बोली, ‘‘आज का दिन बड़ा शुभ दिन है। देश में जब सुख-चैन होता है, तो राजा की राख के ज़र्रें चमकने लगते हैं। तब लोग कहते हैं कि राजा की राख मुस्करा रही है, वह खुश है, राजा चैन से है।’’
‘‘पर जब देश में सुख-चैन न हो तो ?’’
‘‘तो राजा की राख भटकने लगती है। जब देश पर संकट आता है, झोपड़ों से रोने की आवाज़ें आती हैं और देश में आँधिया और तूफान उठते हैं, तो राजा की राख बेचैन हो उठती है और लोगों को लगता है।
रात उतर आयी थी और घर-घर में लोग खुशियाँ मना रहे थे। जब एक घर की खिड़की में खड़ी एक किसान युवती, जो देर तक मन्त्र-मुग्ध-सी बाहर का दृश्य देखे जा रही थी, सहसा चिल्ला उठी, ‘‘देखो तो खेत में जगह-जगह क्या चमक रहा है ?’’
उसका युवा पति भागकर उसके पास आया। बाहर खेत में जगह-जगह झिलमिल-झिलमिल करते जैसे सोने के कण चमक रहे थे।
‘‘यह क्या झिलमिला रहा है ? नहीं, यह सोना नहीं है।’’
‘‘फिर क्या है ?’’
उसका पति चुप रहा। उसने स्वयं इन चमकते कणों को पहले कभी नहीं देखा था।
पीछे कोठरी में किसान की बूढ़ी दादी बोल उठी, ‘‘यह सोना नहीं बेटा, यह राजा की राख है, कभी-कभी चमकने लगती है।’’
‘‘राजा की राख ? क्या कह रही हो दादी-माँ, कभी राख भी चमकती है ?’’
किसान की पत्नी ने कहा और लपककर बाहर जाने को हुई। ‘‘मैं इन्हें अभी बटोर लाती हूँ। और भागती हुई बाहर निकल गयी।’’
खेत की मुँडेर के पास एक कण चमकता नज़र आया। युवती पहले तो सहमी-सहमी-सी उसे देखती रही। फिर हाथ बढ़ाकर उसे उठा लिया और दूसरे हाथ की हथेली पर रख लिया। पर हथेली पर पड़ते ही वह कण जैसे बुझ गया और उसकी चमक जाती रही। किसान की पत्नी के आश्चर्य की सीमा न रही। फिर वह भागती हुई खेत के अन्दर चली गयी, जहाँ कुछ दूरी पर एक और कण चमक रहा था। इस बार भी वही कुछ हुआ जो पहले हुआ था। हथेली पर रखते ही वह बुझ गया और उसकी कान्ति समाप्त हो गयी।
किसान की पत्नी हतबुद्धि इधर-उधर देखने लगी। खेत में अभी भी जगह-जगह कण चमक रहे थे। बुझे हुए दो ज़र्रों को हाथ में उठाये वह भागती हुई तीसरे कण की ओर गयी, पर उसकी भी वही गति हुई, जो पहले दो कणों की हुई थी। कुछ देर बाद किसान युवती हथेली पर बुझे हुए तीन ज़र्रें उठाये, हताश-सी घर लौट आयी।
‘‘मगर पहले इतने चमक रहे थे, दादी-माँ, मैं सच कहती हूँ।’’ उसने उद्विग्न होकर कहा।
‘‘देखो न, यह सोना नहीं है बेटी, राजा की राख है।’’ बुढ़िया ने दोहराकर कहा।
‘‘राख भी कभी यो चमकती है दादी-माँ, क्या कह रही हो ? और फिर मेरे हाथ पर पड़ते ही बुझ गयी। कौन राजा ?’’ किसकी राख’’ युवती ने हैरान होकर बुढ़िया से पूछा।
‘‘जब मैं छोटी थी, तो मैंने अपनी दादी के मुँह से उसका किस्सा सुना था। बहुत पुरानी बात है....’’
और बुढ़िया राजा का किस्सा सुनाने लगी-
‘‘कहते हैं किसी शहर में एक युवक रहा करता था। बड़ा सुन्दर था और बड़ा साहसी था। अपने माँ-बाप का एक ही बेटा था। उसके माँ-बाप उसे देखते नहीं थकते थे, सगे-संबंधियों की आँखें भी उस पर से हटाये नहीं हटती थीं। सभी को उस पर बड़ा गर्व था, उससे उन्हें बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं
कि बड़ा होगा, माँ-बाप का नाम रोशन करेगा, बड़ा नाम कमायेगा।’’
‘‘पर जब वह बड़ा हुआ, तो एक रात अचानक घर से भाग गया। घर में किसी को ख़बर नहीं हुई। सुबह जब माँ-बाप को पता चला, तो वे बहुत घबराये और उसे ढूढ़ने निकले। दिन-भर भटकते रहे, आखिर वह उन्हें एक गाँव में किसी झोंपड़े के बाहर खड़ा मिला। ‘‘ ‘तुम यहाँ क्या कर रहे हो जी ?’ माँ ने बिगड़कर पूछा। ‘हम दिन-भर तुम्हें खोजते रहे हैं।’
‘‘युवक बड़ा सरल-स्वभाव का था। उसका दिल शीशे की तरह साफ़ था। माँ की ओर देखकर बोला, ‘रात को मैं सो रहा था, माँ, जब मुझे लगा जैसे बाहर कोई रो रहा है। मैं उठकर बाहर आ गया, मगर वहाँ कोई भी नहीं था। पर रोने की आवाज़ बराबर आ रही थी। मैं उस आवाज़ के पीछे-पीछे जाने लगा और उसे ढूँढ़ता हुआ यहाँ आ पहुँचा। मैंने देखा रोने की आवाज़ इस झोपड़े में से आ रही थी।’
‘‘बेटे की बात सुनकर माँ चिन्तित-सी उसके चेहरे की ओर देखने लगी।
‘‘ ‘अब घर चलो बेटा ! दिन-भर न कुछ खाया, न पिया, यहाँ भटक रहे हो।’
‘‘ ‘मैं घर नहीं जाऊँगा, माँ !’ युवक ने कहा।
‘‘ ‘घर नहीं चलोगे, क्यों भला ?’
‘‘बेटे ने पहले जैसी सरलता से उत्तर दिया, मैं घर कैसे जा सकता हूँ माँ, झोंपड़े में से रोने की आवाज़ जो आ रही है।’’
‘‘और अपने बाप के चेहरे की ओर देखने लगा।
बाप को अपने बेटे की आँखों में असीम वेदना नज़र आयी। वह देर तक अपने बेटे की ओर देखता रहा। फिर धीरे-से अपनी पत्नी के कन्धे पर हाथ रखा और उसे धीरे-धीरे घर की ओर ले जाने लगा।
‘‘ ‘तेरा बेटा घर लौटकर नहीं आयेगा।’ उसने कहा। माँ सिर से पाँव तक काँप उठी। ‘तो कब लौटेगा ?’
‘‘ ‘शायद कभी नहीं लौटेगा। जो लोग एक बार यह रोना सुन लेते है, वे घर नहीं लौटते।’
‘‘माँ की आँखों में आँसू भर आये और वह फफक-फफककर रोने लगी।
‘‘बूढ़े बाप ने सच ही कहा था। वह युवक, जो एक बार घर से निकला तो फिर लौटकर नहीं आया।’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’ किसान और उसकी युवा पत्नी ने बड़े आग्रह से पूछा। युवती की हथेली पर अभी वे जर्रें रखे थे, जिन्हें वह खेत में से उठा लायी थी।
दादी-माँ कहने लगी, ‘‘फिर वह बहुत भटका। जहाँ कहीं जाता वह रुदन बराबर उसके कानों में गूँजता रहता। कहते हैं उन दिनों देश पर किसी बड़े आतमतायी का शासन था और प्रजा बड़ी दु:खी थी। यह युवक उन लोगों के दल से जा मिला, जो आततायी के साथ लोहा ले रहे थे।
उसके बहुत-से साथी मौत के घाट उतार दिये गये। अन्यायी उसे भी बार-बार काल-कोठरी में डाल देते। पर काल-कोठरी की मोटी-दीवारों में भी उसे झोंपड़ों का रोना सुनायी देता रहता। वहाँ से निकलते ही वह फिर आतमतायी से जूझने लगता। इस बीच उसके बूढ़े माँ-बाप मर गये, उसकी युवा पत्नी भी मर गयी, घर का धन-धान्य भी बहुत कुछ जाता रहा, पर वह घर नहीं लौटा।
‘‘लोगों ने उसके दिल की थाह पा ली और उसे बेहद प्यार करने लगे। जब भी वह किसी गाँव या शहर में जाता, तो हजारों लोग पलकें बिछाये उसकी राह देखते रहते। वह जो भी कहता लोग बड़े ध्यान से सुनते, उसके क़दमों की आहट पाते ही जैसे वे नींद से जाग जाते थे।
‘‘फिर आतमतायियों को मुँह की खानी पड़ी और उसका देश उनके पञ्जे से निकल आया और देश के लाखों-लाख लोगों ने उसे अपना राजा बना लिया। उनके दिल का राजा तो वह पहले से था, अब राज्य की बागडोर भी उन्होंने उसके हाथ में दे दी।
‘‘ ‘अभी तो केवल दासता की बेड़ियाँ टूटी हैं।
झोपड़ों का रुदन तो अभी वैसे-का-वैसा बना है।’ उसने अपने लोगों से कहा और उस रुदन को शान्त करने के लिए फिर से निकल पड़ा।
‘‘वरसों बीत गये। राजा बूढ़ा हो चला। वह अब भी नगर-नगर, गाँव-गाँव जाता। सहस्रों लोगों का स्नेह और विश्वास के साथ अपनी ओर देखते पाकर उसकी आँखें चमक उठतीं और उसके अंग-अंग में स्फूर्ति की लहर दौड़ जाती और वह अपने संघर्ष में जुट जाता। इसी प्रयास में राजा थककर चूर हो गया और एक दिन मर गया।
‘‘लोग बहुत रोये, बहुत दु:खी हुए। उनकी आँखों के सामने जैसे अँधेरा छा गया। उन्हें लगा जैसे उनका राजा सदा के लिए उन्हें छोड़ गया है।
‘‘पर यह कैसे हो सकता था ! उनके साथ तो उसका युगों-युगों का प्यार था, युगों-युगों का संबंध था। वह मरकर भी उनके पास लौट आया।’’
‘‘वह कैसे दादी-माँ, मरकर भी कभी कोई लौटता है ?’’
दादी-माँ ने ठण्डी आह भरी और कहने लगी, ‘‘मरने से पहले उसने कहा कि मेरी भस्मी को झोपड़ों के आसपास खेतों में बिखेर देना। कुछ जल में बहा देना।
‘‘और लोगों ने वैसा ही किया, जैसा राजा ने कहा था। चार विमान उड़े और उसकी राख को देश के कोने-कोने में बिखेर आये। फिर हवाएं चली और राख के ज़र्रों को उड़ाकर कहाँ-से-कहाँ ले गयीं। कोई ज़र्रा कहीं, तो कोई कहीं जा गिरा।’’
‘‘तो क्या यह राजा की राख थी, जो चमक रही थी ?’’ युवती ने आग्रह से पूछा। ‘‘मगर हमने इसे पहले तो कभी नहीं देखा।’’
दादी-माँ कुछ देर तक चुपचाप बैठी रही, फिर धीरे-से बोली, ‘‘आज का दिन बड़ा शुभ दिन है। देश में जब सुख-चैन होता है, तो राजा की राख के ज़र्रें चमकने लगते हैं। तब लोग कहते हैं कि राजा की राख मुस्करा रही है, वह खुश है, राजा चैन से है।’’
‘‘पर जब देश में सुख-चैन न हो तो ?’’
‘‘तो राजा की राख भटकने लगती है। जब देश पर संकट आता है, झोपड़ों से रोने की आवाज़ें आती हैं और देश में आँधिया और तूफान उठते हैं, तो राजा की राख बेचैन हो उठती है और लोगों को लगता है।
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