बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 1 युद्ध - भाग 1नरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास
इक्कीस
अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। राम और लक्ष्मण के वध का समाचार पाकर राक्षस सेना रात्रि के दूसरे प्रहर तक विलास में डूबी रही थी और इस समय सुख की नींद सो रही थी। लंका के चारों द्वारों पर कुछ सैनिक टुकड़ियां अपना प्रहरी दायित्व निभा रही थीं। परकोटों पर होने वाली रौंद को भी अनावश्यक समझकर शिथिल कर दिया गया था।
ऐसे समय में वानर सेना ने लंका के चारों द्वारों पर आकस्मिक आक्रमण किया। समस्त द्वारों पर शिला-प्रक्षेपण-यंत्रों से शिला-खंड फेंके गए और परकोटों पर उल्काओं की वर्षा की गई।
सहसा ही सारी लंका जाग उठी। अनेक प्रासादों के कंगूरे जल रहे थे। युद्ध-सामग्री के भंडारों में ऊंची-ऊंची लपटें उठ रही थीं और सेना की अश्वशालाओं में मनुष्य और पशु एक साथ चीत्कार कर रहे थे।
सूचना पाकर रावण उठ बैठा। थोड़ी देर तक वह चकित मुद्रा बनाए सोचता रहा : राम और लक्ष्मण का वध हो चुका था। सारे प्रमुख वानर सेनापति और यूथपति हताहत हो चुके थे। सेना संपूर्णतः क्षत-विक्षत थी। फिर ये वानर, लंका पर आक्रमण का साहस कैसे कर
रहे हैं?...किंतु, सोचने का समय नहीं था। मेघनाद निकुंभिला देवी के मंदिर में था। वह प्रातः अपना यज्ञ पूर्ण कर देवी से पूर्ण विजय का वरदान पाकर युद्धभूमि में जाएगा। उसे आसन से उठाना असिद्धि थी। प्रातः तक इसी मरी-खपी सेना को अन्य लोग भी संभाल सकते थे...
रावण ने तत्काल आदेश दिए। कुंभ, निकुंभ, यूपाक्ष, शोणिताक्ष प्रजंघ, अकंपन और मकराक्ष अपनी सेनाएं लेकर लंका के द्वारों से बाहर निकल जाएं और इन दुष्ट वानरों को लंका की प्राचीर से दूर खदेड़ दें। प्रातः अपने यज्ञ को सम्पन्न कर इन्द्रजित मेघनाद स्वयं जाकर देखेगा कि यह सब क्या उत्पात है...
काठ-शिल्पियों ने अनेक काष्ठ-खंडों के जोड़, सेतु तैयार कर परिखा में डालकर अनेक स्थानों पर मार्ग बना दिया। श्रमिक सैनिकों ने अपनी छेनी-हथौड़ी से वज्र जैसी प्राचीर में खूंटे गाड़ दिए। रस्सियां बंध गईं और देखते-ही-देखते लक्ष्मण और विभीषण, जन-सैनिकों की असंख्य टुकड़ियों के साथ प्राचीर पार कर लंका की भूमि पर जा उतरे। इस छद्मयुद्ध के लिए राम ने गुप्त युद्ध में समर्थ जन-वाहिनियों का ही चयन किया था। सहायक सैनिक लंका पर भयंकर पथराव कर रहे थे। वानर सैनिकों की धनुर्धर टोलियां लंका की अट्टालिकाओं पर उल्काओं की वर्षा कर रही थीं। सुग्रीव, हनुमान, मैंद, द्विविद, अंगद और स्वयं राम-लंका के द्वारों से बाहर निकल आई राक्षस सेना से प्रत्यक्ष युद्धकर रहे थे। दूसरी ओर विभीषण के बताए हुए मार्ग पर जनसेना की असंख्य टोलियां वन के वृक्षों की ओट में निकुंभिला देवी के यज्ञागार की ओर बढ़ रही थीं।
वन्य सीमा पर पहुंचकर विभीषण ने हाथ उठाकर पीछे आनेवालों को रुकने का संकेत किया। मुख से एक भी शब्द कहे बिना उन्होंने अपनी तर्जना से इंगित कर दिया।
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