बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 1 युद्ध - भाग 1नरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास
सैन्य-संचय के लिए जाने वाले अधिकारियों को लंका के प्रत्येक घर के द्वार पर प्रतिशोध का सामना करना पड़ा था। न केवल युवक स्वयं नहीं आना चाहते थे, उनकी पत्निया, माताएं, बहनें, और कभी-कभी तो उनके बच्चे तक उनसे लिपट-लिपट जाते थे। स्थान-स्थान पर धमकियों और
बल का प्रयोग करना पड़ा। आज की सेना में अधिकाश सैनिक डरा-धमकाकर ही लाए गए थे...। घर-घर में विलाप हो रहा था। कुछ घरों के युवक मारे जा चुके थे, कुछ परिवारों के घायल पड़े थे, और कुछ के आज लड़ने जा रहे थे, जो मृत समान ही समझे जा रहे थे लोग, रावण और उसके राज्य को कोस रहे थे। रावण के सैनिकों की चिंता किए बिना राक्षसियां उस वृद्धा सूर्पणखा को कोस रही थीं, जिसने अपने शरीर की झुर्रियों और सफेद होते हुए बालों को अनदेखा कर, राम के यौवन पर आधिपत्य जमाने के प्रयत्न में लंका को मृत्यु के मुख में धकेल दिया था। स्वयं पट्टमहिषी मंदोदरी को यह कहते सुना गया था, "हाय! मा के उदर में ही क्यों नहीं मर गई यह सूर्पणखा-कुटिला, कुलक्षणा, अमंगला...!" वीरबाहु की मां चित्रांगना रावण को कोस रही थी, "हाय! तुमने निज कर्मदोष से ही कुल को भी डुबोया और स्वयं भी डूबे...।"
आज सैनिक प्रयाण के समय बहुत जोर के बाजे नहीं बजे। सेना में न उत्साह था, न आडम्बर। स्पष्ट ही वे रावण के भय के बंधे चले जा रहे थे। सेनापति इस आशंका से भी पीड़ित थे कि कहीं उनके सैनिक शत्रुओं से न जा मिलें।
विरूपाक्ष रथारूढ़ होकर लंका से बाहर निकला। किंतु, युद्ध-भूमि में आते ही उसने अनुभव किया कि उसके पास इतनी सेना नहीं थी कि वह शत्रुओं को स्वयं से दूर-दूर रख सके और रणभूमि में अपनी इच्छानुसार रथ दौड़ता हुआ शत्रु सेनापतियों से जूझता फिरे। उसके सैनिकों की संख्या इतनी कम थी कि वानर सेना बार-बार उसके रथ के अत्यन्त निकट आ जाती थी। वे उसके सारथी और घोड़े पर न केवल बाण-वर्षा करते थे, वरन् कभी-कभी तो रथ पर पत्थर तक फेंक देते थे और उसके रथ के पहियों में लकड़ियां अड़ा कर उसे रोकने का प्रयत्न करते थे। ऐसे में रथ सुविधा के स्थान पर असुविधा का कारण हो जाता था।
विरूपाक्ष अपना रथ त्याग कर गजारूढ़ हो गया और वानर सेना का संहार करने लगा। हाथी, रथ, से कहीं ऊंचा था और वानरों के लिए उसके निकट आना भी जोखिम का काम था। सुग्रीव ने अपनी सेना कठिनाई समझी। उन्होंने पीछे सेना को स्थिर रखने का कार्य सुषेण को सौंपा और स्वयं विरूपाक्ष के सम्मुख जा डटे।
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