बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 1 युद्ध - भाग 1नरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास
विभीषण शायद अभी कुछ और भी कहते किंतु तब तक रावण की आंखें क्रोध से तप्त अंगारों के समान दहक उठीं। अपने प्रति कहे गए शब्द उसने फिर भी सहन कर लिए थे, किंतु पुत्र के प्रति इस प्रकार की ताड़ना ने, उसकी सहनशीलता समाप्त कर दी थी, "बस। बहुत हो चुका विभीषण! शत्रु अथवा कुपित विषधर के साथ रहना पड़े तो व्यक्ति रह लें, किंतु उस भाई के साथ कदापि न रहे, जो मित्र कहलाकर भी शत्रु की सेवा कर रहा हो।" और सहसा रावण के धैर्य का भी बांध टूटा, "मेरा अभ्युदय, सुख और विलास नहीं देखा जाता विभीषण। कुटुंबीजन ऐसे ही होते हैं। तुम्हें आज तक मैंने व्यर्थ अपना भाई मानकर तुम्हारे सुख, सम्मान और रक्षा के लिए स्वयं को चिंतित किया। तुमसे स्नेह की आशा व्यर्थ है। मैं बहुत दिनों से तुम्हारे मन में पलते विष का आभास पा रहा हूं किंतु उदारतावश क्षमा करता आया हूं। तुमने जो कुछ कहा है, यदि किसी और ने कहा होता तो उसका मुंड धरती पर लोट रहा होता। तुम्हें आज मैंने फिर क्षमा किया। जाओ, चले जाओ और यथा-शीघ्र लंका से बाहर निकल जाओ। लंका में तुम जीवित नहीं रह पाओगे।" उसने रुककर विभीषण को देखा, "जाने से पहले लंकेश्वर का प्रसाद लेते जाओ। यहां आओ।"
यंत्रवत विभीषण, रावण के निकट आकर, खड़े हो गए।
"जिसका पक्ष लेते तुम नहीं थकते," रावण बोला, "जिसे तुम अपना प्रिय मानते हो, उस राम ने मेरी बहन शूर्पणखा को दंडस्वरूप खड्ग से चिह्नित किया था मैं तुम्हें खड्ग के योग्य नहीं मानता। तुम इसके योग्य हो...।" और इससे पूर्व कि कोई समझ पाता कि रावण के मन में क्या है उसने सिंहासन से उठकर विभीषण को लात दे मारी।
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