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बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 1

युद्ध - भाग 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :344
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2863
आईएसबीएन :81-8143-196-0

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राम कथा पर आधारित उपन्यास

"वानरराज।" राक्षसराज ने कहा है कि, शुक असाधारण शालीनता से बोला, "हमारे दोनों राज्यों की मैत्री आपके पिता सम्राट ऋक्षराज के समय से ही चली आ रही है। बाली मेरा मित्र था। उसके हाथों अपने परिजन मायावी के वध के पश्चात् भी मैंने उसका विरोध नहीं किया। इस दृष्टि से तुम मेरे भाई के समान हो। तुम्हारा मैंने कभी कोई उपकार नहीं किया तो अपकार भी नहीं किया। तुमसे मेरी शत्रुता नहीं है। ऐसे में एक बाहरी व्यक्ति, जिसका न अपना राज्य है, न सेना है, वानर जिसकी न जाति के हैं न गोत्र के-वह बाहरी व्यक्ति तुम्हें फुसला कर मेरे विरुद्ध लड़ने के लिए ले आया है। शत्रुता किसी की और युद्ध में प्राण देने कोई और आया है। यदि मैंने राम की पत्नी का हरण किया है तो उसमें तुम्हें मुझ जैसे मित्र के विरुद्ध युद्ध करने की क्या आवश्यकता है? इस युद्ध में विजय वानरों की हो या राक्षसों की-राज्य मेरा जाएगा या तुम्हारा, सेनाएं मेरी नष्ट होंगी या तुम्हारी, परिजन मेरे मरेंगे या तुम्हारे-इस युद्ध में इस कंगले राम का कुछ भी दांव पर लगा हुआ नहीं है। इस युद्ध की जय पराजय से निरपेक्ष-वह दोनों स्थितियों में तुम्हें कुछ चाहिए तो मुझसे कहो। युद्ध में सिवाय अपने और अपनी जाति के विनाश के तुम्हें और कुछ हाथ नहीं लगेगा...।"

लक्ष्मण का हाथ अपने खड्ग पर था और हनुमान चिन्तित दृष्टि से सुग्रीव की ओर देख रहे थे। अंगद, जाम्बवान, तार, नल, नील, गय, गवाक्ष, मैंद, द्विविद-सबके ही चेहरे गंभीर हो गए थे-जाने इस संदेश का सुग्रीव पर क्या प्रभाव पड़े...

एक राम ही अत्यन्त शांत तथा प्रकृतिस्थ दिखाई पड़ रहे थे। आरम्भ में सुग्रीव भी अत्यंत शांत बने रहे थे, किन्तु क्रमशः उनकी व्यग्रता उनके चेहरे पर प्रकट होती दिखाई दी। अंत तक आते-आते लगा कि यदि दूत मौन नहीं हो गया होता तो सुग्रीव उसे मौन कर ही देते।

दूत के चुप होने तक सुग्रीव का धैर्य जैसे समाप्त हो चुका था। वे वानरराज की मर्यादा को भूलकर अत्यंत क्रुद्ध व्यक्ति के समान फूट पड़े, "आज रावण को याद आया है कि वह राक्षसराज है और मैं वानरराज हूं इसलिए हममें मैत्री ही नहीं भ्रातृत्व का सम्बन्ध है। वह भूल गया है कि आज तक समस्त नृपों को वह अपना दास बनाने के लिए मनिक अभियान करता आया है। उसने नृपों को अपना मित्र नहीं, दास माना है। यह नृप होकर भी परधन पर अधिकार और परस्त्रियों का हरण करता आया है, और जिसे वह बार-बार उपेक्षा और अवहेलना से कंगला, निर्धन और तपस्वी कहता आया है वह स्वत्वहीन आर्य राम मुझ और विभीषण जैसे अपमानित, अवमानित, निष्कासित, असहाय मित्रों को साम्राज्यदान करते आए हैं। जब मेरी पत्नी का अपहरण कर, मुझे किष्किंधा से निष्कासित किया गया था और मैं अपने प्राणों की रक्षा के लिए वनों-पर्वतों में छिपा फिरता था, तब रावण को याद नहीं आया था कि मैं उसका भाई हूं।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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