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बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 1

युद्ध - भाग 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :344
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2863
आईएसबीएन :81-8143-196-0

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राम कथा पर आधारित उपन्यास

नगरी के निकट पहुंचकर उन्हें एक और आश्चर्य का सामना करना पड़ा। बस्ती के चारों ओर अवरोध की-सी स्थिति थी। एक अनधड़-सी सैनिक भीड़ ने सारी नगरी को घेर रखा था। सैनिक, अपने हाव-भाव और मुद्रा से ही सैनिक कर्म करते दिखाई पड़ते थे, अन्यथा न उनके पास शस्त्र थे और न कोई निश्चित अनुशासन ही दिखाई पड़ रहा था।

राम के दल को देखते ही उनमें से अनेक सैनिक आगे बढ़ आए, "कौन हैं आप लोग?"

राम ने देखा, उन लोगों की उग्र दृष्टि विभीषण की राजसी वेषभूषा पर टिकी हुई थी। यद्यपि सैनिक-सी भीड़ के पास शस्त्र नहीं थे, फिर भी वे निर्भीक ही नहीं, आक्रामक भी दीख रहे थे।

तभी भीड़ में से किसी ने हनुमान को पहचान लिया, "अरे ये तो केसरीकुमार हनुमान हैं।"

हनुमान ने सबका परिचय दिया। भीड़ की भंगिमा अत्यंत शालीन हो गई।

"आप लोग कौन हैं?" राम ने पूछा।

"हम आपके सैनिक हैं।"

"हमारी टुकड़ियां यहां तक कैसे पहुंच गईं?" राम ने चकित होकर हनुमान को देखा, "और यह तो प्रशिक्षित टुकड़ी जैसे नहीं है।"

उत्तर उस व्यक्ति ने दिया, जिसने हनुमान को पहचाना था, "नहीं भद्र। हमें आपसे प्रशिक्षण प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। हम भावना से आपके सैनिक हैं। हमें जब आपके आने की सूचना मिली और पता चला कि राक्षस सैनिक यहां से भाग गए हैं तो हमने इस नगरी को घेर लिया कि कहीं सागर भाग न जाएं।"

"सागर भाग जाएं?" नील ने आश्चर्य से पूछा।

"हां भद्र!" उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, 'सागर में व्यापार करने वाले इन व्यवसायियों को इस क्षेत्र में 'सागर' ही कहा जाता है। ये अत्यन्त धनाढ्य लोग हैं, जिन्होंने अपने धन का उत्कोच देकर, राक्षस सैनिकों के माध्यम से हमारी यह भूमि हमसे छीन ली थी।" वह व्यक्ति रुका, "इनके रक्षक भाग गए हैं और ये लोग स्वयं शरीर से इतने कोमल हैं कि एक मृग से भी लड़ नहीं सकते। हमने इन्हें आपके लिए बंदी कर रखा है...। अब आप जो आदेश दें।"

"यह सब तो अद्भुत है।" राम मंथर स्वर में बोले, "हमारी सेना इतनी विस्तृत और इतनी विशाल है, यह तो मुझे मालूम ही नहीं था।"

"प्रत्येक पीड़ित, शोषित और निर्धन व्यक्ति आपका सैनिक है राम!" वह व्यक्ति बोला।

"चाहे मैं तुम्हें शस्त्र न दे सकूं वेतन न दे सकूं?"

वह हंसा, "आप हमें सम्मान तो दे सकते हैं, हमारे अधिकार तो दे सकते हैं।"

राम मुस्कराए, "तुमने अधिकार अपने बल पर स्वयं प्राप्त किए हैं और अधिकारों से सम्पन्न व्यक्ति स्वयं ही सम्मानजनक हो जाता है।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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