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बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 1

युद्ध - भाग 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :344
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2863
आईएसबीएन :81-8143-196-0

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राम कथा पर आधारित उपन्यास

उधर आकाश पर अरुण को किरणें फूटीं और इधर सागरदत के नाविकों ने जलपोतों को तट पर ला लगाया। बंदियों को युद्ध-परिषद् के सम्मुख उपस्थित किया गया; किंतु उनसे कोई विशेष बात ज्ञात नहीं हुई। वे साधारण जल-दस्यु थे और लूटपाट उनका व्यवसाय था। वे लोग इसी आशा में यहां आए थे कि स्वयं जल में सुरक्षित खड़े रहकर, यदि संभव हो तो इस सेना के किसी भाग के शस्त्र तथा अन्य-भंडार लूट लिए जाएं। इस दुस्साहस का मूल कारण उनकी यह सूचना थी कि राम की सेना में न तो प्रशिक्षित सैनिक हैं और न उनके पास जल-परिवहन के साधन हैं। सेना का एक आडम्बर खड़ा कर लिया है, जिसे भयभीत करना कठिन नहीं होगा। युद्ध-बंदियों को सागरों की बस्ती के किसी भवन में बंदी कर रखने का आदेश देकर राम ने भेज दिया तो नल उनके सम्मुख एक अनुरोध के साथ उपस्थित हुए।

"भद्र राम! शत्रुओं से हस्तगत किए गए जलपोतों में से एक यदि इस अधिकार के साथ मुझे प्रदान किया जाए कि चाहूं तो उसे नष्ट भी कर सके, तो मैं सागरदत्त के कथन की परीक्षा कर सकूंगा कि उस स्थान पर वास्तविक सागर है अथवा खाड़ी का जल...।"

अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में राम को कुछ समय लगा : वे समझ नहीं पा रहे थे कि सागर संबंधी ज्ञान के प्रति नल के इस समर्पित भाव की प्रशंसा करें; अथवा इस संकट की घड़ी में थोड़े-से अमूल्य जलपोतों में से एक को नष्ट करने के प्रस्ताव का विरोध।

किंतु, नल के अनुरोध का कुछ तो करना ही था। धीमे स्वर में बोले, "वह खोज हमारी सेना के हितकर होगी, किंतु वर्तमान स्थिति में संयोग से हाथ में आ गए जलपोतों में से को नष्ट करना मुझे उचित नहीं लगता...। पर यह मेरा व्यक्तिगत विचार है, परिषद् का मत मुझे भी मान्य होगा।"

"मैं स्वयं जलपोतों को नष्ट करने के पक्ष में नहीं हूं।" सुग्रीव बोले। लक्ष्मण, अंगद, विभीषण, हनुमान सबका यही मत था। यहां तक कि नील ने भी नल का समर्थन नहीं किया। नल का प्रस्ताव अमान्य हो गया।

"अच्छा बंधुओं!" राम बोले, "आज तीसरा दिन है, और हमें अभी तक सागर-संतरण का कोई उपाय नहीं सूझा है। यही स्थिति रही तो हमें अन्न अथवा किसी अन्य आवश्यक वस्तु के अभाव में पीछे हट जाना होगा।"

युद्ध-परिषद में सन्नाटा छा गया। इतने बड़े उपक्रम का यह अंत वस्तुतः घोर निराशाजनक था। किंतु, राम भी ठीक कह रहे थे; संतरण के उपाय के अभाव में यहां पड़े रहने का कोई अर्थ नहीं था।

"अब मैं कुछ-कुछ समझ रहा हूं कि राक्षस लोग अपने जलपत्तनों को छोड़कर क्यों चुपचाप पीछे हट गए।" लक्ष्मण बोले, "मुझे लगता है कि वे लोग हमारी दुर्बलता से परिचित हैं। संभव है कि यह भी उनकी युद्ध नीति का ही अंग हो कि हमें यहां पड़े-पड़े सड़ते हुए देखें, बीच-बीच में द्रुमकुल्यों जैसे दस्युओं के माध्यम से हमें पीड़ित करें और अंत में जब हम हतोत्साहित हो जाएं तो वे लोग हम पर आक्रमण कर हमें समाप्त कर दें।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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