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बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 1

युद्ध - भाग 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :344
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2863
आईएसबीएन :81-8143-196-0

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राम कथा पर आधारित उपन्यास

सीता आशंकित दृष्टि से रावण को देख रही थीं, राम के लंका पहुंचने पर रावण हंस क्यों रहा है? वह भयभीत क्यों नहीं है? और उनके आने की चर्चा भूतकाल में क्यों कर रहा है?...

"तुम लोगों ने इसे बच्चों का खेल समझ रखा है क्या? कि भागकर रस्सी को छू लेने वाला अपना पारितोषिक पा जाएगा।" रावण के चेहरे पर भयंकर कूरता खेल गई, "न तुम इस बात को समझीं कि तुम राम को काल के गाल में खींचने के लिए चुंबक मात्र हो और न राम इस बात को समझ पाया कि रावण इस सागर में सीता जैसी कामिनियों का चारा डाल कर राम जैसे मत्स्यों का आखेट करता है...।"

सीता की आंखें फट आईं, मुख कुछ खुल गया और हाथ कानों तक चले गए।

"हां! सागर पार करते-करते बेचारा बहुत थक गया था। युद्ध से पहले थोड़ा विश्राम कर लेना चाहता था; इसलिए सागर के दक्षिण तट पर सेना सहित गहरी नींद सो रहा था। मैंने सोचा, प्रातः उठकर युद्ध करेगा तो पुनः थक जाएगा। इसलिए मैंने उसे वहीं, चिर निद्रा में सुला दिया है। अब वह कभी नहीं थकेगा...मैंने अपने हाथों से राम का वध किया है।" रावण बोला, "उसके जटाजूट को पकड़ अपने चंद्रहास खड्ग

के एक वार से उसका सिर उसके शरीर से अलग कर दिया है। उसका सिर इस समय भी मेरे रथ में मेरे पैरों से ठुकराए जाने के लिए पायदान पर पड़ा है।" रावण हंसा, "तुम्हें भेंट देने के लिए ला रहा था; किंतु फिर तुम्हारे कोमल मन का विचार कर रुक गया। सोचा, शायद तुम उसे न देख सको। वह चेहरा अब उतना सुदर्शन नहीं रहा। कटी हुई ग्रीवा का मांस कुछ विचित्र प्रकार का लाल है। उससे टपकता हुआ तुम्हारे प्रिय का लाल-जाल रक्त अब सूख कर काला हो गया है। हां! कुछ शिराएं भद्दी रस्सियों के समान झूल रही हैं। उसकी आंखें पथरा गई है। खुले होंठों पर मुस्कान नहीं है-भय, याचना और दीनता का भाव है।" सीता ने हथेलियों से अपने कान भींच लिए और आंखें बन्द कर लीं।

पर रावण का अट्टहास उन भिंचे कानों में भी प्रवेश कर गया, "नहीं सुन सकतीं। इसलिए वह सिर मैं तुम्हारे सामने नहीं लाया। उसे देखकर तुम्हें दुःख होगा; और मैं तुम्हें दुःखी नहीं करना चाहता जानकी। अपनी प्रिया को कौन दुख देना चाहेगा।"

"मेरे प्रिय का वध कर अब मुझे बताने आया है दुष्ट।" सीता ने चीत्कार किया, "मेरा भी वध कर दे। चला अपना चंद्रहास खड्ग। कर दे मेरा भी सिर धड़ से अलग...।"

"हठ छोड़ो सीते।" रावण का स्वर कोमल हो गया, "मेरे पास तुम्हारे लिए मृत्यु नहीं, जीवन का सुख और भोग हैं। मुझे अंगीकार करो। मुझ जैसा प्रेमी पाकर तुम भी धन्य हो जाओगी।"

लगा, जैसे उसकी बात ने सीता के कानों में प्रवेश ही नहीं किया था, वे वैसे ही बिलख-बिलख कर रो रही थीं..."तुझसे नहीं होता तो ला मुझे दे अपना खड्ग। मैं स्वयं आत्मघात कर लूंगी?"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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