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युद्ध - भाग 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :344
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2863
आईएसबीएन :81-8143-196-0

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राम कथा पर आधारित उपन्यास

"अब तनिक हनुमान की आपत्ति पर भी ध्यान दीजिए।" लक्ष्मण गंभीर स्वर में बोले, "किसी साधारण सैनिक को आप दूत बनाकर भेजेंगे नहीं और साधारण सैनिक हो अथवा कोई यूथपति-हम किसी की भी इस प्रकार की अकारण मृत्यु नहीं चाहेंगे कि वह जाए और पकड़ा जाकर मार डाला जाए।"

"मेरा भी ऐसा ही विचार है कि हमारे दूत को राक्षस जीवित वापस नहीं लौटने देंगे।" राम बोले, "इसलिए दूत अद्भुत व्यक्ति होना चाहिए, और दूत भेजने की पद्धति अपूर्व होनी चाहिए।"

"कौन जाएगा?' विभीषण ने पूछा; और फिर जैसे आत्मचिंतन-सा करते हुए बोले, "मैं स्वयं चला जाता, किंतु मुझे देखते ही रावण आपे से बाहर हो जाएगा और वह मेरी एक भी बात नहीं सुनेगा।"

"नहीं। आपको जाने की आवश्यकता नहीं है लंकापति!" राम बोले, "वैसे तो मैं हनुमान को ही भेजता; किंतु हनुमान एक बार हो आए हैं। बार-बार उन्हीं के जाने से राक्षस यह समझेंगे कि हमारी सेना में दूसरा कोई व्यक्ति ही नहीं है।"

"तो फिर कौन जाएगा?" सुग्रीव की दृष्टि एक-एक व्यक्ति पर रुककर उन्हें परख रही थी।

"यदि वानरराज को आपत्ति न हो, "राम पुनः बोले," तो मैं युवराज अंगद को भेजना चाहूंगा।"

अंगद ने राम की ओर देखा : क्या है राम के मन में? वे सचमुच इस सारी वानर सेना में हनुमान के पश्चात् उन्हें ही इतना वीर पुरुष मानते हैं कि ऐसा दायित्व का काम उन्हें सौंप रहे हैं...या...या वे युद्ध से पहले बाली-पुत्र की अपने प्रति निष्ठा की परीक्षा कर रहे हैं?...सहसा अंगद का मन उल्लसित हो उठा...यह हो ही जाए तो अच्छा है, अन्यथा बाद में किसी समय कोई कठिनाई उत्पन्न हो सकती है...। युद्ध की अवधि में यदि अंगद के कारण सेना की कोई क्षति हो जाए तो यह नहीं माना जाए कि वह उसने जान बूझकर किया है। एक बार युद्ध के पूर्व ही वानर सेना के प्रति उन्हें अपनी निष्ठा प्रमाणित करनी होगी...अगंद ने सुना था कि राम से मंत्री स्थापित करने से पूर्व, सुग्रीव ने कई प्रकार से उनकी परीक्षा ली थी। अब बारी राम की थी। वे अंगद की परीक्षा ले रहे थे और एक प्रकार से सुग्रीव की भी...। क्या राम के लिए सुग्रीव अपने युवराज को मृत्यु के मुख में धकेल सकेंगे?...

अंगद सहज ही मुस्करा पड़े, "मैं प्रस्तुत हूं।"

"वानरराज को तो कोई आपत्ति नहीं?" राम ने पूछा।

"आपत्ति तो कोई नहीं है; किंतु सावधानी बरतने को अवश्य कहूंगा।" सुग्रीव धीरे से बोले।

"अवश्य!" राम बोले, "सावधान तो हमें रहना ही है।"

युद्ध-परिषद् का विचार-विमर्श समाप्त हो गया और सारे यूथपति अपने-अपने स्थान पर लौट गए। प्रत्येक द्वार पर व्यूह बन गए और वाहिनियां अपने नायकों के नेतृत्व में आक्रमण करने के लिए प्रहारक मुद्रा में आ गईं। किंतु उत्तरी द्वार पर राम ने अपनी सेनाएं पीछे हटा ली थीं। उनके सहायक सैनिक सहस्रों की संख्या में आकर खड़े हो गए थे। उनके हाथ में शस्त्र नहीं थे। उन सबके हाथों में छोटे-बड़े पत्थर शिलाओं के टुकड़े, वृक्षों की डालियां या वैसी ही कुछ वस्तुएं थीं। वे सारे सहायक सैनिक पचास-पचास व्यक्तियों की टुकड़ियों में बंटे हुए थे और योजनाबद्ध रूप से सैनिक अनुशासन में खड़े थे।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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