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बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 1

युद्ध - भाग 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :344
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2863
आईएसबीएन :81-8143-196-0

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राम कथा पर आधारित उपन्यास

किसी ने सुषेण की बात का उत्तर नहीं दिया। केवल सुग्रीव की आंखों में संकोच और उग्रता के भाव बारी-बारी झलके। बोले वे कुछ भी नहीं। सुषेण ने आगे बढ़कर बारी-बारी राम और लक्ष्मण का नाड़ी परीक्षण किया और उनके घावों को निरखा; परखा। उन्होंने निराशा में अपने सिर को अनायास ही दाएं-बाएं घुमाया और जैसे स्वगत ही बोले, "कैसे-कैसे अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया है इस दुष्ट राक्षस मेघनाद ने जब हमें इन दिव्यास्त्रों का ही ज्ञान नहीं है तो उनकी औषधियां कहां से आए? हमारे युद्धों में या तो हड्डियां टूटती हैं या रक्त अधिक बह जाता है; किंतु ऐसे घाव और यह मृत्यु-सरीखी मूर्छा..."

"क्या कोई आशा नहीं नाना? अंगद धीरे से बोले।

"जब तक सांस, जब तक आस।" सुषेण अस्पष्ट, फुसफुसाते से स्वर में बोले, "वैध के लिए निराशा पाप है। मेरी औषध-मंजूषा मंगवा दो।"

सुषेण के प्रयत्न से राम का श्वास कुछ स्थिर हुआ और उनकी बंद पलकें झपझपाई। थोड़ी देर में राम ने आंखें खोल दीं।

"राम।" सुषेण ने राम के कान में पुकारा।

सुग्रीव और विभीषण भी उन पर झुक गए और हनुमान, अंगद, जाम्बवान, नल, नील इत्यादि भी निकट घिर आए।

"राम।" सुषेण ने पुनः पुकारा।

राम ने एक बार सबकी ओर देखा; किंतु उनकी आंखों में किसी के लिए भी पहचान नहीं थी। उनकी आंखों में एक विचित्र भाव था, खाली खाली; शून्य...जैसे या तो कुछ दिख न रहा हो, या कुछ भी पहचाना न जा रहा हो। सुषेण ने एक नई तरल औषधि की कुछ बूंदें उनके मुख में टपका दी और एक अन्य जड़ी उन्हें देर तक सुंघाते रहे...

क्रमशः राम की आंखों में कुछ जीवन्त भाव उभरे, जैसे वे अपने परिवेश को देख और समझ रहे हों, अपने साथियों को पहचान रहे हों।

किंतु साथ-ही-साथ उनके चहेरे पर असहनीय पीड़ा के भाव उभरे...

"राम" सुषेण ने पुनः पुकारा।

राम ने उनकी ओर देखा और उनके होंठों से अस्फुट-से शब्द फूटे।

"असहनीय पीड़ा है तात! रक्त में आग लगी है। शरीर जैसे जकड़ा हुआ है। हाथ-पांव हिल नहीं पाते...उन्होंने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरी, "...और घावों में मृत्यु से बढ़कर पीड़ा...। ओह! दुष्ट ने आज कैसे अस्त्रों का प्रयोग किया है, जो प्राण नहीं लेते और मनुष्य को जीवित पीड़ा एवं मुत्यु बना देते हैं..." उन्होंने अपनी पुतलियां घुमाईं और अपने निकट पड़े, मूर्च्छित लक्ष्मण को देखा, "लक्ष्मण...।" वे आगे बोल नहीं सके, उनकी आंखों की कोरों से दो अश्रु बह गए।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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