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परिन्दे

जोगिन्दर पाल

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2865
आईएसबीएन :81-8143-129-4

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जोगिन्दर पाल द्वारा लिखी गयी छोटी-छोटी कहानियाँ...

Parinde

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

कोई कहानी इतनी लम्बी भी हो सकती है कि पूरा उपन्यास बन जाए, फिर भी बेकिनार ज़िन्दगी जब अपनी छोटी-छोटी कहानियों में बँटी हुई मालूम हो तो अपने सुराग के लिए कलाकारों को नज़रें दौड़ाने की बजाए गाड़ना पड़ जाती हैं और यूँ हमारी ज़िन्दगी नन्हें-मुन्ने पैमानों में सिमट कर बस्तियों का समा बाँधती हुई महसूस होने लगती है।

ऐन मुमकिन है कि कोई छोटी-सी कहानी इतनी लम्बी हो कि अपने शुरू से भी बहुत पहले शुरू होती हुई लगे और पाठक उसे आप ही आप उसके ख़ात्मे के बाद भी बढ़ाता चला जाए और इस तरह उसके ज़ेहन में न मालूम वो कहाँ पहुँच कर ख़त्म हो। लघुकथा के पाठक को लिखने वाले के पीछे-पीछे किसी निश्चित ठिकाने पर नहीं पहुँचना होता। इस विधा की अहमियत इसमें है कि पढ़ने वालों को सृजनात्मक साझेदारी को मौका बराबर मिलता रहे।

पता नहीं किसी ने सचमुच कभी हथेली पर पहाड़ उठाया था कि नहीं, किन्तु सृजनाकार को इसके बगैर कोई चारा ही नहीं कि अपनी हथेली पर दो जहान का फैलाव पैदा कर पाये। किसी कुशल और फौरी अनुभव में भाषाई बहुतात से घुटन का वातावरण पैदा होने लगता है। कलाकारों का यह इसरार बड़ा अर्थपूर्ण है कि बोलो मत, दिखाओः इसी कलात्मक ज़रूरत को पूरा करने के लिए विनम्रता और संक्षिप्तता लघुकथा के स्वाभाविक सहयोगी अंग हैं।

 

बसे हुए लोग

 

मेरे नॉवल के हीरो और हिरोइन दोनों मुझसे नाराज़ थे, क्योंकि जब उनकी शादी का वातावरण आप ही आप फितरी तौर पर बन रहा था तो मैंने उनका बना बनाया खेल चौपट कर दिया और अपनी तरजीहों को नॉवल पर लादकर उन्हें आखिरी पृष्ठ तक एक दूसरे से जुदा रखने पर अड़ा रहा।

नहीं, उन दोनों को मैं बेहद अज़ीज़ रखता था, मगर मुश्किल यह थी कि अगर मैं उनकी शादी का अवसर पैदा कर देता और वे एक दूसरे के लिए जीना शुरू कर देते तो मेरी ज़िन्दगी के निशाने धरे के धरे रह जाते। वे बहरहाल मेरे पात्र थे और जो जैसे थे मेरी ही बदौलत थे और उन्हें यही एक चारा था कि मेरी ज़िन्दगी के साधन पैदा करते रहें।

मगर वे दोनों तो मौके की ताक में थे। एक दिन नज़रें बचा के अचानक ग़ायब हो गए। मैंने नॉवेल की पाण्डुलिपी का एक-एक वाक्य छान मारा और हर स्थान पर उन्हें अपने नामों की ओट में ढूँढ़ता रहा, मगर वो वहाँ होते तो मिलते।
मुझे बड़ा पछतावा महसूस होने लगा। अगर वे मुझे कहीं मिल जाते तो मैं फ़ौरन उनके फेरे करवा देता, मगर अब क्या हो सकता था ?—मैं मुँह सिर लपेटकर पड़ गया।

 आप हैरान होंगे कि कई साल बाद एक दिन वे दोनों अचानक मुझे अपने ही शहर में मिले और अपने घर ले गए। नहीं, मेरे नॉवल के पन्नों से निकलते ही उन्होंने अपनी शादी करवा ली थी और इतने साल बाद अब तीन फूल जैसे बच्चों के के माँ-बाप थे और उनका घर-बार खूब आबाद था।
नहीं, उन्हें संसार में इस कदर फूलते-फलते पाकर मुझे हौसला ही न हुआ कि उन्हें अपने नॉवल में लौट आने को कहता।

 

कारगिल

 

 

पहाड़ों की एक खूँट में दो लाशों पर नज़र पड़ने पर अब्दुल दबे पाँव उनके करीब चला आया। एक हिन्दुस्तानी फ़ौजी था और दूसरा पाकिस्तानी मुजाहिद।

दोनों की बन्दूकें उनके मध्य फ़ासले में गिरी पड़ी थीं, मगर अब्दुल को बन्दूकों से क्या गर्ज़ ? बन्दूकों सहित पकड़-धकड़ में आ जाता तो फ़ौज उसे कोई भी मुजाहिद समझ के धर लेती। सब लोग गांव छोड़कर भाग गए थे मगर उसने वहीं कहीं पहाड़ों के अन्दर किसी गुप्त सुराख में आ शरण ली थी और इसी तरह मौका मिलने पर लाशों की जेबों से काम की जो वस्तु उस के हाथ लग जाती, अल्लाह का शुक्र अदा करके उसे अपनी जेब में सुरक्षित कर लेता।

मुजाहिद की भीतरी जेब से उसे किसी बच्चे की लिखाई में एक चिट्ठी मिली, संक्षिप्त सी बचकाना लिखाई की अड्डी टप्पा शक्ल और सूरत पर मुस्कराकर वह उसे पढ़ने लगा—

‘प्यारे अब्बू, अस्लामएलेकुम, कल मेरी सालगिरह थी, मगर क्या पता, तुम कहाँ चले गये हो ? इसलिए मैं और अम्मी सारा दिन रोती रहीं—‘बर्फ़ीली हवा की साँय-साँय में ठिठुरन करके अब्दुल हिन्दुस्तानी फ़ौजी की जेबों की तरफ मतवज्जा हो गया। फ़ौजी की बाहरी जेब में उसे एक मुन्नी सी अत्यन्त सुन्दर लड़की की तस्वीर मिली।
भोले भाले चोर को हैरत होने लगी कि मुजाहिद की बेटी की यह तस्वीर हिन्दुस्तानी फ़ौजी की जेब में कैसे आ गई ?

 

सज़ा

 

 

नहीं डेविड, तुम्हें विश्वास नहीं आ रहा तो आज ही लाइब्रेरी जाकर तसल्ली कर लो—कुछ ही सर्दियों पहले इन्सान केवल दो टाँगों पर चला करता था। हाँ भई, वाकई केवल दो टाँगों पर। फिर क्या हुआ कि अस्पतालों में अचानक ऐसे केस आने लगे कि आदमी अपनी दो टाँगों पर कुछ ही पलों से ज्यादा खड़ा न रह पाता—डॉक्टर ?...इन मूर्खों को छोड़ो। उन्हें कुछ और न सूझी तो इसे कोई हँगामी बीमारी समझकर टाल जाना चाहा, परन्तु हुआ यह कि ऐसे लोगों में बराबर बढ़ौतरी ही होती चली गयी जो अपने हाथों को भी—अपनी अगली टाँगों को वे हाथ ही कहा करते थे—ज़मीन पर टिकाए बग़ैर खड़े न रह पाते थे।

हाँ, डेविड, ये खुशनसीब लोग बढ़ते ही चले जा रहे थे। कोई सदी-पौन सदी में ही इन्सान की अधिकांश आबादी मज़े से चार टाँगों पर चलने लगी। अब यह हाल था कि जो बदस्तूर दो टाँगों पर चलते थे, उनके सगे सम्बन्धी उनके इलाज के लिए डॉक्टरों के पीछे भागे फिरते थे और डॉक्टरों की समझ में न आ पाता था कि बेचारों को इस संकट से कैसे छुटकारा दिलायें। हाँ भई, होते-होते ये दो टाँगिए इक्का-दुक्का ही रह गए। जहाँ कहीं कोई दिख जाता सरकस वाले उसे घेर-घार कर उठा लाते।

फिर क्या डेविड, और कुछ अरसे के बाद कोई एक भी न बचा जो हमारी तुम्हारी तरह चार टाँगों पर न चलता हो—हाँ, भाई, हमारे धार्मिक गुरु ठीक ही तो कहते हैं। भगवान ने इन्सान को उसके गुनाहों की सज़ा में केवल दो टाँगों पर खड़ा कर रखा था।

 

कहानी

 

 

मैंने नदी का पीछा करना चाहा, परन्तु कैसे करता, वो तो एक ही समय अपने आगे भी थी और पीछे भी ! सो मैं लाचार सा उसे चुपचाप देखता रह गया।


नारी

 

 

न सखी, अँधेरे से डर काहे का ? कारा ही कारा है, पर मन का इतना गोरा कि इसकी चारदीवारी में जो जी में आए कर लो—मैं तो रैन के घोर अंधियारे में आप ही आप—अब मैं तुम्हें कैसे बताऊँ सखी ?—अँधियारे की झिलमिल-झिलमिल चादर ताने सेज पर बेधड़क पड़ी रहती हूँ और मेरा अन्जाना प्रीतम—अब तुम्हें कैसे बताऊँ ?—न सखी, उजियारा मुआ आदत जात थोड़ा ही होता है, कोतवाल का कोतवाल है ओर मूँछों को ताव दे-देकर हथकड़ा लिए बढ़ता ही चला आता है—हाँ और का ? सारी इज्जत आबरू माटी में मिलाकर रख देता है।

 

चोर

 

 

‘‘क्या भाव है ?’’
अंगूर बेचने वाला ग़रीब बच्चा चौंक पड़ा और उसके मुँह की तरफ़ उठते हुए हाथ से अंगूर के दो दाने गिर गए। ‘‘नहीं साब ! मैं खा तो नहीं रहा था साब !’’


पानी

 

 

नहीं, जब मैं उथला था तो कितना शफ़ाफ़ और मीठा था, कितना अपना आप !
मगर गहरा होने के चाव में मैं समुद्र में बह निकला और इतना खारी हो गया कि क्या मजाल, मुझे कोई मुँह से लगाकर प्यास बुझा ले।

 

मेले मुलाकातें

 

 

हाँ, मैं हर एक से नफ़रत करता हूँ, माँ-बाप से, भाई-बहन से, दोस्तों से—हर एक से-नहीं, यह आप क्या कह रहे हैं कि किसी से नफरत मत करो ?—न बाबा, आपकी बात मान लूँ तो अकेला होकर रह जाऊँ।

                जीवन खेल तमाशा
‘‘मैं केवल सपनों में देखता हूँ।’’
‘‘परन्तु इस समय तो आप हू-ब-हू मेरे सामने मौजूद हैं।’’
‘‘क्या सपने में भी सब कुछ हू-ब-हू नहीं होता ?’’
‘‘परन्तु आँख खुलते ही सब कुछ एकदम मिट्टी कैसे हो जाता है ?’’
‘‘हाँ, बाबा, जैसे आँख लगते ही हम।’’

 

अतीत

 

 

पूरे तीस बरस बाद मैं अपने गाँव जा रहा हूँ और रेलगाड़ी की गति की ताल पर कान धरे उन दिनों का सपना देख रहा हूँ जो मैंने बचपन में अपने गाँव में बिताए थे। रात गहरी हो रही है और सपना घना। मैं घंटों की नींद के बाद हड़बड़ाकर जाग पड़ा हूँ और देखता हूँ कि दिन चढ़ आया है और गाड़ी मेरे गाँव को पूरे तीस बरस पीछे छोड़ आई है।

 

ख़ुराक

 

 

वे पाँच यहीं छोटी सी खोली में रहते थे। चार हर रोज़ काम-वाम की तलाश में निकल जाते और पाँचवाँ उनके लिए खाना तैयार करता और खाली समय में कहानियाँ लिखता।
पिछले दो दिन किसी को कोई काम न मिला, सो आज सभी थक-हार खोली में ही पड़े रहे।
‘‘खुशनसीब तो बस इक हमारा अंबे पादशाह है।’’ उनमें से एक ने फ़र्श पर लेटे-लेटे कहानीकार के बारे में कहा, ‘‘हम सारा-सारा दिन जूतियाँ च

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