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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

 

 

संघर्ष की ओर

 

एक

 

"ऋषि को आपकी बहुत प्रतीक्षा थी भद्र!"

राम की कल्पना में प्रातः देखा दृश्य पुनः साकार हो उठा : कुलपति की कुटिया के सम्मुख चबूतरे पर धूं-धूं जलती हुई चिता। ऊंची-ऊंची उठती हुई लपटों के बीच खड़े ऋषि शरभंग। नयन मूंदे, हाथ जोड़े-इस प्रकार शांत मुद्रा में खड़े थे, मानो जल में खड़े, सूर्य का ध्यान कर रहे हों। शरीर अग्नि में ऐसे एकाकार हो गया था, जैसे आग की लपटें उन्हें बाहर से न घेरे हों-उनके शरीर से निकलकर, बाहर पड़ी लकड़ियों को जला रही हों। राम की मंडली के आने से, चिता को चारों ओर से घेरकर खड़े वन-समुदाय में थोड़ी हलचल मची हुई थी...ऋषि का ध्यान जैसे भंग हो गया था। उनकी आंखें निमिष-भर के लिए खुलीं। उन्होंने राम को को पहचाना। मानो चलने के लिए पग उठाया, कुछ कहने को होंठ फैले...किंतु तभी अचेत होकर गिर पड़े-न आंखें खुली रह सकीं, न होंठों से स्वर निकला, और न पग ही आगे बढ़ सका।

राम का अपना ही मन, अपने देखे पर संदेह कर रहा था : सूखे काठ के समान धूं-धूं जलता हुआ मनुष्य का शरीर क्या किसी को देख और पहचान सकता है; किसी को कुछ कहने का संकल्प कर सकता है?...राम ने उसे अपना भ्रम माना था; किंतु अब सामने बैठे मुनि ज्ञानश्रेष्ठ कह रहे हैं कि ऋषि को राम की प्रतीक्षा थी...

हत्प्रभ-से राम, चिता से कुछ दूर खड़े रह गए थे। ऋषि का अचेत या कदाचित् मृत शरीर सूखे ईंधन के समान जल रहा था।...ऋषि को बचाया नहीं जा सकता था। चिता में से जीवित अथवा मृत शरीर को खींच लेने का अब कोई लाभ नहीं था।

राम की आंखों में अश्रु आ गए थे; मनुष्य इतना भी असहाय हो उठता है कि अपने जीवित, अनुभूतिप्रणव शरीर को निर्जीव पदार्थ के समान अग्नि में झोंक दे। मन का ताप इतना तीव्र और असह्य हो उठता है कि जलता हुआ तन भी उसकी तुलना में शीतल लगने लगे।...और कोई राम-सा भी अक्षम हो सकता है कि सागने चिता में शरभंग जल रहे हों और राम का हाथ उन तक न पहुंच पाए...

उन्होंने डबडबाई आंखों से अपने आसपास देखा था-सीता, लक्ष्मण, मुखर तथा उनके साथ आए हुए अत्रि ऋषि के शिष्य-शस्त्रागार से लदे हुए, उनके आस-पास आ खड़े हुए थे। सबकी दृष्टि चिता में जलते हुए ऋषि के शव पर थी। चेहरों पर अवसाद, निराशा तथा वितृष्णा के भाव घिर आए थे। आश्रमवासियों की स्थिति, उन लोगों से तनिक भी भिन्न नहीं थी...

"ऋषि ने प्रतीक्षा क्यों नहीं की?" ज्ञानश्रेष्ठ चुपचाप राम को देखते रहे, जैसे कुछ सोच रहे हों; फिर धीमे स्वर में बोले, "ठीक-ठीक बता पाना कठिन है। हां! कुछ-कुछ अनुमान किया जा सकता है।"

"कोई विशेष घटना घटी थी क्या?" ज्ञानश्रेष्ठ को मौन हुए, विलंब हो गया तो राम ने पूछा।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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