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संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

राम मुस्कराए, "बड़े भोले हो तोरू। एक व्यक्ति जब जनसामान्य से पृथक् हो राक्षस हो जाता है, और शेष जन पर अत्याचार करने लगता है-तो क्या वह अपने बल पर करता है? कभी-कभी वैसा भी होता है-जैसे विराध। किंतु सामान्यतः अत्याचार संगठन का होता है। अत्याचारी जानता है कि उनकी सहायता के लिए दंडधर आएंगे; उनकी सहायता के लिए अंग-रक्षक आएंगे; उनकी सहायता के लिए सैनिक टोली आएगी और अंत में टोली की सहायता के लिए साम्राज्य की सेना आएगी। भूधर का प्रतिशोध लेने के लिए यह सैनिक टुकड़ी आई थी। इनका प्रतिशोध लेने के लिए जनस्थान की सेना आ सकती है और यदि आप उन्हें भी पराजित कर दें, तो लंका की सेना भी आ सकती है। अतः अब तो आपको तत्पर और सन्नद्ध ही रहना है। जब तक लंका का राक्षसी साम्राज्य वर्तमान है, तब तक राक्षसी आतंक समाप्त नहीं हो सकता।"

"अर्थात् यह अनवरत तथा दीर्घ संघर्ष है?"

"तुमने ठीक समझा, तोरू!"

"तो हम सब शस्त्राभ्यास करेंगे।"

"सारा गांव शस्त्राभ्यास करे और पच्चीस कुशल योद्धा जनसेना में सम्मिलित हों, जिन्हें धनुर्विद्या का विशेष अभ्यास कराया जाएगा। सशस्त्र जनसामान्य तथा जनसेना दोनों ही अंग एक-दूसरे के पूरक के रूप में विकसित नहीं होंगे, तो संघर्ष की सफलता संदिग्ध हो जाएगी।"

"हमें स्वीकार है।"

अंत में लक्ष्मण ने एकमात्र युद्धबंदी को सभा के समुख प्रस्तुत किया।

राम ने पहली बार उसे ध्यान से देखा : वह अब तक देखे गए राक्षसों से सर्वथा भिन्न था। उसके शरीर पर न तो विलास की चर्बी थी, और न उसकी वेश-भूषा में संपन्नता का कोई चिह्न। एक साधारण धोती में लिपटा वह पतला-दुबला व्यक्ति साधारण श्रमिक से भिन्न नहीं था।

"तुम कौन हो?" राम ने पूछा।

"मैं ओगरू हूं, कर्कश का दास।"

"और यह कर्कश कौन है?"

"हमारे ग्राम का स्वामी।"

"तुम युद्ध करने आए थे?"

"नहीं, मुझे स्वामी ने भेजा था कि मैं स्वयं देखकर उसे बताऊं, कि राम के पास कैसे-कैसे शस्त्र हैं और राम कैसे युद्ध करते हैं। राक्षस सेना एक रात हमारे गांव में भी ठहरी थी, तभी स्वामी ने मुझे उनके साथ कर दिया था।"

"यह सब देखकर तुम क्या करते?"

"वैसे शस्त्र बनाकर स्वामी को देता।" ओगरू बोला, "मैं स्वामी के लिए शस्त्रों का निर्माण करता हूं।"

लक्ष्मण मुस्कराए, "तुम शस्त्र बनाकर स्वामी को देते, ताकि वह कर्कश उन्हीं शस्त्रों के बल पर तुम्हारा और तुम्हारे पक्षधरों का दमन कर तुम लोगों को और अधिक पीड़ित करता।"

"जी?"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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