उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
|
15 पाठकों को प्रिय 43 पाठक हैं |
राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"इसीलिए मैंने कहा था कि आपको मुनि का निमंत्रण स्वीकार कर लेना चाहिए।" भीखन पुनः बोला।
"क्यों सौमित्र?" राम ने लक्ष्मण की ओर देखा।
"मुझे क्या आपत्ति हो सकती है?" लक्ष्मण मुस्कराए।
"सीता तो अपनी सहमति प्रकट कर चुकी हैं।" राम बोले, "तुम क्या कहते हो मुखर?"
"मेरे मन में तो एक ही बात है," मुखर बोला, "कि मैं अपने गांव की ओर बढ़ता जाऊं।"
"तो तुम्हारी ही बात रही भीखन!" राम बोले, "यहां का कार्य अब समाप्त-प्राय ही है। कुछ दिनों में स्थिति और संभल जाएगी। तब हम सुतीक्ष्ण आश्रम की ओर ही बढ़ेंगे।"
सुतीक्ष्ण आश्रम के ब्रह्मचारी को विदा हुए तीन दिन बीते थे। संध्या के समय, ग्राम के उत्पादनों के क्रय-विक्रय तथा व्यापार संबंधी विचार-विमर्श समाप्त हुआ ही था। सभा पूर्णतः विसर्जित भी नहीं हुई थी कि एक व्यक्ति आकर राम के सम्मुख नमस्कार की मुद्रा में खड़ा हो गया। राम ने आगंतुक को देखा, उन्होंने इस व्यक्ति को कदाचित् देखा तो था, पर...वे चौंके...ओह! यह तो ओगरू था; किंतु कितना बदला हुआ। आज उसने साफ-सुथरी धोती के साथ एक स्वच्छ उत्तरीय भी ले रखा था। पांव में लकड़ी की खड़ावें थीं और केश सज्जा भी प्रयत्नपूर्वक की हुई लग रही थी, "ओगरू! तुम!"
"हां आर्य!"
"कैसे हो?"
"आप देख रहे हैं, पहले से पर्याप्त अच्छी स्थिति में हूं।" वह मुस्कराया।
"क्या देवी के पुरोहित की कृपा हुई है?" लक्ष्मण का स्वर कुछ तीखा था।
"नहीं भद्र! स्वयं देवी की कृपा हुई है।"
"स्पष्ट कहो ओगरू।" राम ने शांत स्वर में पूछा।
"आर्य! आपने जो कुछ कहा था, उसके विषय में सोचता हुआ मैं अपने गांव लौटा।" ओगरू ने बताया, "पहले तो मैं इस बात पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा था कि आप लोगों ने, न केवल मुझे जीवित छोड़ दिया है; वरन् मुक्त भी कर दिया है। इस विषय में मैं जितना सोचता रहा, उतना ही सहमत होता गया कि आप लोग सामान्य समर्थ लोगों से भिन्न हैं। आपने साधारण ग्रामवासियों तथा भीरु आश्रमवासियों को जिस प्रकार आत्मरक्षा में समर्थ जनसेना में बदल दिया था-मुझे तो उसमें ही कोई दैवी शक्ति दिखाई पड़ने लगी।
|