उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"यह आस्था और विश्वास, मुझे भी प्राप्त करना होगा राम!" ऋषि के चेहरे पर उल्लास का भाव गहराया, "कदाचित् इसी के अभाव में कुछ वर्ष पूर्व, जब तुम लोग मेरे आश्रम में आए थे, मैं तुम्हारी उपेक्षा कर गया। इन पिछले वर्षों में मैंने बहुत कुछ नया सीखा है। बार-बार गुरु का स्मरण किया है-उनके वचनों का विश्लेषण किया है, और उनके चरित्र को पहचानने का प्रयत्न किया है। किंतु लगता है कि अभी भी बहुत कुछ शेष है।"
प्रातः सुतीक्ष्ण आश्रम में प्रत्येक व्यक्ति बहुत व्यस्त था। लगता था, कुलपति ने आश्रम की प्रत्येक गतिविधि को उसके सर्वोत्तम रूप में राम के निरीक्षण के लिए प्रस्तुत करने का संकल्प किया था। ऋषि ने अपनी क्षमता-भर सारे कार्यक्रम के सूक्ष्मतम विवरण की पूर्व कल्पना कर पूर्णतम कार्य-विभाजन किया था। एक-एक व्यक्ति को उसका कार्य राई-रत्ती समझा दिया गया था। सुतीक्ष्ण चाहते थे कि एक बार कार्य आरंभ करने का संकेत दें तो प्रत्येक कार्य, स्वतः सुचारू ढंग से होता चला जाए। उनका आयोजन इतना सुंदर था कि निश्चित रूप से सारी गतिविधि उनकी इच्छानुसार ही होती...किंतु कार्यारंभ से पूर्व ही निकट-दूर के अनेक ग्रामों, पुरवों टोलों, बस्तियों तथा आश्रमों से झुंड-के-झुंड अतिथि आ-आकर सुतीक्ष्ण आश्रम में इकट्ठे होने लगे। आने वालों में स्त्रियां थीं, पुरुष भी, बूढ़े भी थे, बच्चे भी, लगता था, जैसे राम के आगमन का समाचार दावाग्नि के समान सारे जनपद में फैल गया था, और प्रत्येक व्यक्ति अपने हाथ का काम वहीं छोड़, उठकर सीधा सुतीक्ष्ण आश्रम की ओर चला आया था। वे लोग राम को देखना चाहते थे, उनसे मिलना चाहते थे, बात करना चाहते थे, उनके विचार सुनना चाहते थे, उनके निकट बैठकर उनका व्यवहार निरखना चाहते थे, उनके साथियों का परिचय पाना चाहते थे...
...और सुतीक्ष्ण की प्रत्येक व्यवस्था टूट-टूट जा रही थी। उनकी कोई योजना पूरी नहीं हो रही थी। उन्हें स्वयं अपने आयोजन में दोष-ही-दोष दिखाई पड़ने लगे थे। लगता था, उन्होंने एक अत्यंत सुंदर नाटक की रचना की थी, नट-मंडली को प्रस्तुत करने में अपरिमित स्वेद बहाया था और दीर्घ प्रतीक्षा के पश्चात् जब नाटक के मंचन का समय आया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि प्रेक्षागृह में उन्होंने दर्शकों के लिए तो कोई स्थान ही नहीं बनाया; और दर्शक थे कि धाराप्रवाह उमड़े चले आ रहे थे। उनको बैठाना अनिवार्य था। नाटक मंचन ही उनके लिए हो रहा था। दर्शकों को बैठाए बिना नाटक प्रस्तुत करना व्यर्थ था और दर्शकों को बैठाते-बैठाते स्थिति यह हो रही थी कि उनसे प्रेक्षागृह भर गया था, मंच भर गया था, मार्ग भर गए थे...। प्रत्येक नट अपना अभिनय छोड़कर दर्शकों के स्वागत और उनकी व्यवस्था में जा लगा था...।
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