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संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

ज्ञानश्रेष्ठ ने अपनी बात आगे बढ़ाई, "ऋषि इतने प्रसन्न हुए, जैसे उन्हें मोक्ष ही मिल गया हो। आश्रम में किसी अतिथि के आगमन पर ऐसा उत्साह-प्रदर्शन असाधारण था। इस आश्रम में वैसा स्वागत तथा सम्मान आज तक किसी अतिथि का नहीं हुआ। देवराज ने भी ऋषि से एकांत में बात करने की इच्छा प्रकट की। रात के भोजन के पश्चात ऋषि बड़ी प्रसन्न मुद्रा में, देवराज के साथ कुटीर में गए।...हमें कुटीर के निकट जाने की अनुमति नहीं थी। इसलिए हममें से कोई भी नहीं जानता कि उनमें परस्पर क्या वार्तालाप हुआ। किंतु स्पष्ट है कि वार्तालाप सुखद नहीं था। प्रातः बहुत तड़के ही देवराज बहुत जल्दी में प्रस्थान कर गए और ऋषि असाधारण मौन साधे रहे।...उन्हें गंभीर कहूं, चिंतित कहूं, उदास कहूं या विक्षिप्त कहूं... समझ नहीं पा रहा हूं। वे तो ऐसे हो रहे थे, जैसे जीवन का आधार ही टूट गया हो। वे चिंतन करते रहे, अपने कुटीर में, अथवा उसके सामने इधर से उधर टहलते रहे। कभी हममें से किसी से बात कर लेते, कभी स्वयं ही वाचिक चिंतन करने लगते।...इस सारी अवधि में मैं उनके पर्याप्त निकट रहा। मैंने उन्हें अनेक बार, विविध प्रकार की बातें कहते सुना है। वे जैसे निरंतर लड़ रहे थे। कभी स्वयं अपने-आप से लड़ते प्रतीत होते, कभी अपने अनुपस्थित शत्रुओं से। मेरा अनुमान है कि कभी-कभी वे स्वयं देवराज से झगड़ रहे होते थे।...उस दिन और अगली रात ऋषि इसी प्रकार सोचते रहे, बोलते रहे और विक्षिप्तावस्था की ओर बढ़ते रहे। उन्हें सत्य पर, न्याय पर, मानवता पर संदेह होने लगता था...यहां तक कि उनका स्वयं अपने ऊपर से विश्वास उठ गया था। अपनी इसी विक्षिप्तावस्था में, रात्रि के अंतिम प्रहर तक उन्होंने आत्मदाह का निश्चय कर डाला। उनका विचार था कि उनके इस शरीर से अब कोई सार्थक कार्य नहीं होगा। उन्होंने गलत व्यक्तियों से आशा लगा, अपने शिष्यों के मन में गलत व्यक्तियों के प्रति भरोसा जगाया है-इसका दंड भी उन्हें मिलना ही चाहिए; और अंततः इस क्षेत्र में होने वाले अत्याचार और अन्याय के प्रति जन-सामान्य को जागरूक बनाने के लिए उनको आत्मदाह करना ही होगा।"

"मुनिवर!" स्थिर दृष्टि से ज्ञानश्रेष्ठ को देखते हुए, गंभीर स्वर में राम बोले, "अपनी विक्षिप्तावस्था में ऋषि कैसा वाचिक चिंतन करते रहे इसका कुछ आभास दे सकेंगे?" ज्ञानश्रेष्ठ अपना मुख कुछ ऊपर उठाए, भावहीन खुली आंखों से शून्य में देखते कुछ सोचते रहे।

"शब्द न भी बता सकें।" राम पुनः बोले, "उनका भाव...।"

"कुछ आभास तो दे ही सकूंगा।" ज्ञानश्रेष्ठ स्मरण करने की-सी मुद्रा में बोले, "वे कह रहे थे, "न्याय का क्या होगा...धनवान और सत्तावान तो पहले ही रक्तपान कर रहा है, बुद्धिजीवी भी उन्हीं के षड्यन्त्र में सम्मिलित हो जाएगा, तो फिर दुर्बल और असहाय मानवता का क्या होगा? ये कर्मकर, ये श्रमिक, ये दास-ये इसी प्रकार मरते-खपते रहेंगे, पशुओं के समान जीवन काटेंगे? मानव की श्रेणी में ये कभी नहीं आयेंगे?...कभी नहीं? शायद कभी नहीं! कोई नहीं चाहता, ये मनुष्य का जीवन जीएं। रावण बुद्धिजीवियों को खा जाता है, इंद्र उन्हें खरीद लेता है...तो कौन आएगा उनकी सहायता को? कोई भी नहीं?...राम! क्या राम? पर यदि राम भी नहीं आया तो? वह भी तो राजकुमार है...।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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