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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"नहीं आर्य!" कृतसंकल्प का स्वर संकुचित था, "वह परिवार नहीं चल पाएगा; किंतु परिवार और समाज में पर्याप्त भेद है।"

"भेद तो है। पर इतना ही कि एक छोटा है, दूसरा बड़ा।" राम बोले, "यदि स्वार्थ-बुद्धि से सोचोगे तो पहली बात तुम्हारे मन में आएगी कि तुम इस क्षेत्र के रक्षक हो, समर्थ हो, शक्तिशाली हो। इसलिए तुम कोई अन्य काम नहीं करोगे। परिणामतः समाज पर बोझ ही नहीं रहोगे, उसका शोषण भी करोगे। अपने शस्त्र-बल से वही कार्य करोगे जो उग्राग्नि और उसके साथी कर रहे थे, अथवा अन्य खानों के स्वामी कर रहे हैं। दूसरी ओर परिवार-बुद्धि से सोचोगे तो मानोगे कि यह समाज तुम्हारा परिवार है। तुम इसके रक्षक हो, पिता हो। पिता रक्षण के साथ पोषण भी करता है, अर्जन भी करता है। श्रम स्वयं करता है, और उसका लाभ परिवार को देता है। उसका स्वार्थ इतना ही है कि वह अपने परिवार से प्रेम करता है; और जिससे हम प्रेम करते हैं, उसे सुखी देखना चाहते हैं। यदि समाज को तुम अपने परिवार के रूप में देखोगे, तो तुम्हारा स्वार्थ भी समाज को प्रसन्न रखने मात्र में ही सिद्ध हो जाएगा।..."

"हम समाज को परिवार समझकर उसके लिए काम करें, और अन्य अपने ही परिवार का लाभ देखें, तो हम उदार होकर भी मूर्ख बनेंगे न! किसी को उसके दोष के लिए दंड मिले, यह तो समझ में आता है; किंतु अपने गुणों के लिए हम दंडित हों यह समझ में नहीं आया।"

"मैं तुमसे पूर्णतः सहमत हूं।" राम पुनः मुस्काराए, "इस प्रकार की स्थिति, कभी-कभी परिवार में भी उपस्थित हो सकती है। ऐसे में हम क्या करते हैं? उस व्यक्ति को समझाते हैं, और सारे प्रयत्नों के बाद भी वह न समझे तो उसका बहिष्कार करते हैं। यही स्थिति समाज में भी हो सकती है।" राम जैसे सांस लेने के लिये रुके, "और सच तो यह है कि जिस प्रकार का समाज हम बनाना चाहते हैं, वह एक व्यक्ति का काम नहीं है। जब तक परिवार-बुद्धि से समाज को चलाने वाला एक वर्ग एकमत से उठकर खड़ा नहीं होगा, तब तक ऐसे समाज का निर्माण संभव नहीं है।"

"एक प्रश्न मेरा भी है।" श्रमिक अभेद बोला, "वह इस विवाद से अलग है।"

"यदि चल रहे विवाद के विषय में सबकी संतुष्टि हो गई हो और किसी को कुछ पूछना न हो तो नया प्रश्न पूछो।"

अभेद ने प्रतीक्षा की किंतु किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया।

"तो मैं पूछूं?"

"पूछो।"

"यदि हमारे खेत होंगे, उनमें अन्न का उत्पादन करेंगे, तो हममें और साधारण कृषक में कोई भेद होगा क्या?" वह बोला, "क्योंकि आवश्यकतानुसार सामान्य कृषक भी युद्ध में भाग लेगा।"

"मैंने कहा कि ये खेत तुम्हारे होंगे।" राम बोले, "शायद मैंने स्पष्ट नहीं किया कि तुम्हारे से मेरा तात्पर्य यह था कि खेत किसी व्यक्ति-राम, कृतसंकल्प अथवा अभेद के नहीं होंगे। वे जन-वाहिनी के होंगे। आज तुम्हारी टुकडी यहां है, तो तुम उन खेतों की देख-भाल करोगे। मान लो कल तुम्हें राक्षसों के विरोध के संदर्भ में कहीं और जाना पड़े तो तुम वहां के खेतों की देखभाल करोगे और यहां और टुकड़ी इन खेतों का कार्य करेगी। ये सामूहिक खेत हैं।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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