उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"नहीं। मैं युद्ध के मोर्चे का विस्तार करना चाह रहा हूं।" राम बोले, "युद्ध यहां से वहां तक होगा। तुम अपनी टुकड़ियों के साथ यहां रहो, मैं अपनी जनवाहिनी के साथ वहां जाऊंगा।... वैसे भी इस मुक्त क्षेत्र का विस्तार हुआ, तो हम घेर कर समाप्त कर दिए जाएंगे।"
"कब जाना चाहते हैं?" सीता ने प्रश्न किया।
"भीखन! तुम्हें ग्रामवासियों को तैयार करने में कितना समय लगेगा?"
"अभी चल दूं तो मध्याह्न तक सब कुछ तैयार होगा।"
"तो तुम कुछ खा-पीकर चल पड़ो।" राम बोले "मैं मध्याह्न के पश्चात् चलूंगा। सांध्य समय हमें गांव की सीमा पर मिल जाना।"
"ठीक है।" भीखन ने कुछ दबे स्वर में कहा, "पर पक्की बात है न?"
"पुष्टि की आवश्यकता नहीं है।" राम हंसे, "सीते, भीखन के भोजन का प्रबंध कर दो।"
सीता ने भोजन परोसते हुए कहा, "भीखन भैया, मेरा प्रश्न रह गया था। भूधर कैसे ग्राम की बहू-बेटियां छीनकर बेच देता था?"
"ओह! वह!" भीखन खाते हुए बोला, "ऐसा है देवी वैदेही, कि ग्रामीण बहुत निर्धन हैं। जी-तोड़ परिश्रम करते हैं। उपज भी अच्छी होती है; किंतु कुछ कर के नाम पर, कुछ शुल्क के नाम पर तथा कुछ तंत्र-मंत्र और भगवान् के नाम पर-भूधर तथा उनके सहयोगी हमसे इतना छीन लेते हैं कि हमारे पास दो समय का भोजन भी कठिनाई से बचता है। ऐसे में जब विवाह इत्यादि का अवसर आता है तो वर को कन्या के पिता को देने के लिए धन की आवश्यकता होती है। तब ऋण के लिए भूधर के पास जाना पड़ता है। वह हितू के रूप में धन की सहायता करता है और विवाह करवा देता है।..."
"ठहरो!" सीता बोलीं, "तुमने कहा, कन्या के पिता को देने के लिए वर को धन की आवश्यकता होती है?"
"हां देवी!"
"ओह! किंतु किसलिए?"
"कन्या का मूल्य चुकाने के लिए!"
"भीखन भैया! हमारे यहां तो कन्या का पिता, कन्या की ओर से वर को दहेज देता है।"
"हमारी रीति इसके विपरीत है देवि! कन्या का मूल्य चुकाए बिना, विवाह नहीं हो सकता।"
"अच्छा! फिर?"
"विवाह के पश्चात् ऋण चुकाने के समय तक खेत भूधर के हो जाते हैं। अपना पेट पालने के लिए हम अपने ही खेतों में भूधर के दासों के समान कार्य करते हैं। उससे दो समय का भोजन मिल जाता है..."
"अर्थात् अपने खेती में स्वयं ही परिश्रम कर, अन्न उपजा, दो समय का भोजन अपने लिए रख, शेष भूधर को दे देते हो?"
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