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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

भीखन वृक्षों के पीछे अदृश्य हो गया, तो राम भी आश्रम की ओर मुड़े। राम के पीछे उनके बीस जन-सैनिक निःशब्द चल रहे थे। सैनिकों के पास खड्ग थे; और राम सावधानी से अपना धनुष पकड़े, किसी भी आकस्मिक आक्रमण के लिए तैयार थे।

वे लोग निर्विघ्न आश्रम के निकटतर होते गए; किंतु एक दूरी से ही आश्रम में होने वाले कोलाहल का आभास उन्हें मिलने लगा था। राम को समझते देर नहीं लगी कि राक्षस अपनी विजय का आनन्दोत्सव मना रहे थे। राम के होंठ एक अस्पष्ट-सी मुस्कान की मुद्रा में शिथिल हो गए : शत्रु चतुर तो नहीं ही था, सावधान भी नहीं था। आततायी जन-शत्रु अपने विलास के कारण ही अधिकांशतः असावधानी में मारा जाता है। राक्षसों को राम के आने का पता तब चला, जब वे आश्रम के केन्द्र में एकत्र सभा के सामने जा खड़े हुए। एक राक्षस का नशे में लड़खड़ाता स्वर आया, "आ गई। आ गई। तुम्हारी प्रतीक्षित सेना आ गई भूधर! चलो अब धर्मभृत्य के आश्रम को लूटें। वहां अनेक श्रमिक सुंदरियों के साथ, राम की अत्यंत सुंदरी पत्नी सीता भी हाथ लगेगी..."

वे लोग मदिरा पीकर धुत थे। उन्हें अपना-पराया कुछ नहीं सूझ रहा था। वैसे वे सब सशस्त्र थे। कुछ के पास शूल थे, कुछ के पास करवाल तथा तीन-चार धनुर्धारी भी थे।

"अरे, यह तो वे लोग नहीं लगते।" एक राक्षस आंखों पर अपनी हथेली की छाया कर उन्हें पहचानने का प्रयत्न कर रहा था, "नहीं तो, यह तपस्वी..."

"मैं राम हूं।" राम ने मुक्त कंठ से घोषणा की, "धर्मभृत्य के आश्रम तक नहीं जाना पड़ेगा।"

"राम!" उनमें से एक चिल्लाया, "मारो! मारो! राक्षसद्रोही आ गया। वानरों का साथी, कंगला राजकुमार...।"

"सावधान!" राम ने अपने साथियों को संकेत किया और इससे पूर्व कि राक्षस उन पर झपटते, राम के धनुष से बाण छूटने लगे और दो क्षणों में ही चारों धनुर्धारी राक्षस, अपने धनुषों के साथ भूमि पर आ रहे। अनेक कंठों से निकले पीड़ा-प्लावित चीत्कार हवा में दूर तक तैरते चले गए। गांव की दिशा से भी भीड़ का आक्रामक उद्घोष आरंभ हो गया।

राम समझ गए कि भूधर के भवन पर आक्रमण आरंभ हो गया है। भीखन अपनी बात का धनी निकला था।

आक्रमणों की आकस्मिकता तथा समसामयिकता से राक्षसों के कान खड़े हो गए; उनके चेहरों का निश्चिंत उल्लास विलीन हो गया। युद्ध के लिए असमंजस का भाव उनकी मुद्राओं पर स्पष्ट अंकित था। किंतु, फिर भी अभ्यस्त सैनिकों के समान उनके शस्त्र उठे और वे लोग आगे बढ़े। किंतु राम के लिए, राक्षसों की हतप्रभता से अधिक आश्चर्यजनक आश्रमवाहिनी का उत्साह था। ये वे लोग थे, जिन्होंने कभी युद्धों में भाग नहीं लिया था और सदा ही राक्षसों से आतंकित रहते थे।...इस अनिन्द्य ने कहा था कि खान-श्रमिक कभी नहीं लड़ेंगे, किसी अवस्था में नहीं-अपने अधिकार के लिए भी नहीं...और वही अनिन्द्य अपना खड्ग उठाकर, राक्षसों पर इस प्रकार झपट रहा था, जैसे उसके सम्मुख जो जीव खड़ा है, उसके हाथ में मानो शस्त्र ही न हो।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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