उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"आप विश्राम करें मुनिवर!" राम रुके, "आप 'मुनिवर' संबोधन का बुरा तो नहीं मानेंगे; धर्मभृत्य इसे परिहास मान लेता।"
"नहीं!" आनन्द सागर बोले, "किंतु आप मुझे नाम से ही पुकारें। वह मुझे अधिक भायेगा।"
"अच्छा! आप विश्राम करें। तब तक हम इनकी कुछ व्यवस्था कर लें।" राम अनिन्द्य की ओर मुड़े, "जिन रस्सियों से ब्रह्मचारियों को बांध गया था, उन्हीं से इन राक्षसों के हाथ-पैर बांध दो। तब तक भीखन तथा उनके साथी भी आ पहुंचेंगे।" राम ने अपना स्वर ऊंचा कर, राक्षसों को सुनाते हुए कहा, "एक-एक कर, इन्हें बुलाओ और इनके हाथ-पैर बांधकर भूमि पर डाल दो। जो विघ्न डाले, प्रतिरोध करे, उसका वध कर दो।"
राम की धमकी का अनुकूल प्रभाव पड़ा। राक्षसों ने चुपचाप निर्विरोध अपने हाथ-पैर बंधवा लिए। यह कार्य पूरा होते-होते, भीखन भी अपनी टोली के साथ आ पहुंचा था। लगता था, जैसे सारा गांव ही उठकर चला आया हो।...स्त्रियां, पुरुष, बच्चे, बूढ़े...और उस भीड़ के आगे-आगे चार व्यक्ति चल रहे थे, उनके हाथ, पीछे की ओर बंधे थे और वे हांककर लाए जा रहे थे। उनके शरीर पर रक्त के स्पष्ट चिह्न थे। लगता था, उन्हें पीटा तो गया है, किंतु घातक प्रहार कोई नहीं किया गया था। वे लोग सुविधापूर्वक अपने पैरों चलकर आ रहे थे। कदाचित् ग्राम में युद्ध की स्थिति ही नहीं आई...ग्रामवासियों के आते ही स्थिति बदल गई। उन्होंने भूधर के घर से पकड़े गए प्रहरियों को भी बंदी राक्षसों के पास ला पटका; तथा बिना किसी योजना के ही राक्षसों से छीने गए शस्त्र उठाकर स्वयं को शस्त्र-सज्जित कर लिया। उनकी मुद्राएं प्रहारक थीं, और उन्होंने बंदी राक्षसों को चारों ओर से घेर रखा था। निमिष-भर में ही राक्षसों को अपनी स्थिति का ज्ञान हो गया और उनके पीले पड़ते हुए चेहरे उनके मनोबल को व्यक्त करने लगे।
सहसा भीखन आगे बढ़ आया, "राम! ग्रामवासियों की इच्छा है कि इन राक्षसों को आप हमें सौंप दें। हम इनका न्याय करेंगे।"
"भीखन, ये युद्ध-बंदी हैं।" राम बोले।
"किंतु इनका न्याय तो होना ही चाहिए।" भीखन बोला, "इन्होंने जब चाहा, हमारे साथ मनमाना अत्याचार किया, क्योंकि हम युद्धबंदी नहीं, साधारण बंदी थे। यह कौन-सा न्याय हुआ कि निःशस्त्र व्यक्ति को पकड़कर उसे राक्षसी यातना दो और सशस्त्र व्यक्ति को पकड़ो तो उसे युद्धबंदी मानकर कुछ न कहो। आप क्या इन्हें मुक्त करने की बात सोच रहे हैं?"
"नहीं! मैं अपनी ओर से कुछ विशेष नहीं सोच रहा।" राम बोले, "न्याय तुम ही लोग करो। मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि बिना किसी आरोप को सिद्ध किए, बिना कोई भेद किए सबका वध करना उचित नहीं होगा। इस समय ये बंदी हैं। तुम्हें कोई जल्दी नहीं है। एक-एक ग्रामवासी तथा आश्रमवासी अपना अभियोग प्रस्तुत करे तथा उसी के अनुरूप एक-एक व्यक्ति को दंड दिया जाए-यदि अनिवार्य समझा जाए तो मृत्यु-दंड भी।"
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