उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
लक्ष्मण ने भी स्थिति को देखते हुए धनुष छोड़, खड्ग निकाल लिया। मुखर विभिन्न शस्त्र थामे तत्पर खड़ा था कि कब आवश्यकता पड़े और वह राम तथा लक्ष्मण को उपयुक्त शस्त्र पकड़ाए; या आवश्यकता पड़ने पर स्वयं प्रहार करे...किंतु यह युद्ध भी विचित्र प्रकार का था। विराध शस्त्र नहीं चला रहा था। उसने अपने दोनों हाथों से सीता को पकड़ रखा था, और जिधर से आघात होता, उसी ओर सीता को सम्मुख कर देता था। सीता के शरीर से वह कवच का काम ले रहा था। राम और लक्ष्मण के प्रहार आघात से पहले ही निष्फल होते जा रहे थे। मुखर हत्प्रभ खड़ा था : राम और लक्ष्मण ही आक्रमण नहीं कर पा रहे थे, तो वह क्या करता?...अत्रि के शिष्यों की तो सांस भी कठिनाई से चलती दिखाई पड़ती थी।
राम ने लक्ष्मण की ओर देखा। वे भी इस कठिन स्थिति से निकलने के लिए, राम से कोई संकेत चाह रहे थे। निर्णय तत्काल होना चाहिए था। विलंब होने पर विराध को भागने का अवसर मिल सकता था। कहीं से उसके लिए सहायता आ सकती थी। वह प्रत्याघात कर सकता था। विलंब घातक हो सकता था..."मल्ल-युद्ध!" राम ने लक्ष्मण से कहा और अपना खड्ग मुखर की ओर बढ़ा दिया।
अगले ही क्षण, राम ने विराध की स्थूल भुजा अपनी अंगुलियों की शक्तिशाली जकड़ में ले ली।...विराध की पकड़ ढीली पड़ते ही, सीता छूटीं और धरती पर पांव पड़ते ही, उन्होंने अपना खड्ग संभाल लिया।
राम और लक्ष्मण, विराध से कुछ इस प्रकार, उलझे हुए थे कि कहना कठिन था कि शस्त्र-प्रहार से आहत कौन होगा।...मल्ल-युद्ध में कभी राम और लक्ष्मण विराध पर भारी पड़ते थे, और कभी विराध उन दोनों पर भारी पड़ने लगता था। कभी लगता था, राम-लक्ष्मण उसे गिरा देंगे और कभी लगता था कि वह ही उन दोनों को घसीटता हुआ, गहन वन में ले जाएगा।...सहसा, लक्ष्मण अपना पैंतरा पा गए। उन्होंने विराध की बाईं भुजा मरोड़ दी। विराध का बल क्षीण होने लगा। उसके पशु जैसे चेहरे पर भी पीड़ा के लक्षण उभरने लगे। स्पष्टतः लक्ष्मण ने उसकी कुछ हड्डियां चटखा दी थीं।...राम के लिए इतना समय पर्याप्त था। उन्होंने विराध को भूमि पर पछाड़ दिया और उसके कंठ पर पैर रखकर खड़े हो गए। राम के पैर के दबाव के नीचे उसकी असहायता थी। जिस ढंग से वह धराशायी हुआ था, उसी से स्पष्ट था कि उसके आधे प्राण निकल चुके थे। वह अधिक देर तक जीवित नहीं रह सकता था। राम का ऐसा दांव था, जिसमें पड़कर बड़े-से-बड़ा बलशाली पुरुष भी उससे निकल नहीं सकता था।
विराध पूर्णतः अक्षम हो गया और उसकी ओर से विरोध की कोई संभावना शेष नहीं बची तो सबके चेहरों पर आश्वस्ति का भाव उभर आया। लक्ष्मण का आत्मविश्वास लौटा, सीता की गरिमा; मुखर में उसकी सहजता लौटी और ब्रह्मचारियों को तो उनके प्राण ही वापस मिले।
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