उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
आठ
अपराह्न में आश्रम की गतिविधियों का रूप बदल गया था। आवश्यक कामों में नियुक्त सदस्यों को छोड़, शेष आश्रमवासी, आश्रम के अन्न वितरण के काम में लग गए थे। आश्रम में उपलब्ध अन्न ग्राम तक पहुंचाया जाता रहा और प्रत्येक द्वार पर रुक उनके परिवार के सदस्यों की संख्या पूछ, उनकी आवश्यकता के अनुसार अन्न दिया जाता रहा।
ग्रामवासियों के लिए यह अद्भुत घटना थी। आज तक तो कभी ऐसा नहीं हुआ था कि बिना कठिन परिश्रम कराए हुए, किसी ने उन्हें अन्न की एक मुट्ठी भी दी हो। अधिक श्रम कर, कम पारिश्रमिक पाना उनके लिए सामान्य बात थी; किंतु इस प्रकार बिना श्रम किए, घर बैठे अन्न पाना...और फिर देने वाले आश्रम के ब्रह्मचारी थे, जो कृषक नहीं थे। अपने भोजन के लिये वे वन के फलों तथा आस-पास के आश्रमवासियों की उदारता पर निर्भर करते थे। खलिहान से फसल घर लाने अथवा किसी पर्व-त्यौहार के अवसर पर ग्रामवासी ही आश्रम में अन्न पहुंचा दें-यह बात तो उनकी समझ में आती थी, किंतु यह विलोम प्रकिया...कि आश्रम से अन्न ग्राम में आए...।
तो क्या यह भी भीखन के उन साथियों का प्रभाव है, जो आश्रम मे ठहरे हुए हैं? राम को ग्रामवासी जानते थे। राम पहले भी आए थे। तब आश्रम में युद्ध हुआ था। ग्रामवासियों ने राम का साथ दिया था। तभी भूधर की हत्या हुई थी। राम उसी संध्या लौट गए थे। ग्रामवासियों को भीखन ने समझाया थो कि वे अब पूर्णतः स्वतंत्र हैं। भूधर मारा गया है और उसके साथी बंदी हो गए हैं। वे लोग अपने ग्राम का शासन, जैसे चाहें, अपने ढंग से चला सकते हैं। आवश्यकता पड़ने पर मुनि आनन्द सागर से सहायता भी ले सकते हैं।...किंतु कुछ ही समय में राक्षसों की सैनिक टुकड़ी का आक्रमण हुआ। वे अपने बंदी छुड़ाकर ले गए मगर जाते-जाते खेतों में जहां कहीं फसल थी, उसे नष्ट करते गए। विचित्र संयोग था कि उस दिन उन्होंने किसी की हत्या नहीं की थी। वे लोग बहुत जल्दी में थे, या राम से डरे हुए थे। और तब से ग्रामवासियों को पता नहीं था कि वे स्वतंत्र हैं या नहीं? भूधर के स्थान पर उनका स्वामी कौन था? वे खेत उनके थे, या नहीं? उन्हें उन खेतों में काम करना चाहिए या नहीं? कर देना है या नहीं, देना है तो किसे देना है और किस रूप में देना है? अन्न उनके पास था नहीं-कर के रूप में परिश्रम वे किसके खेत पर जाकर करें?...भीखन उन्हें बार-बार कहता था कि वे लोग राम के पास चलें, राम से सहायता मांगें, राम से सहयोग करें...किंतु राम के नाम के साथ एक भय जुड़ गया था। राम आए थे तो भूधर मारा गया था। उसका प्रतिशोध लेने के लिए राक्षसों ने आक्रमण किया था और ग्रामवासी वर्तमान स्थिति में धकेल दिए थे। इस बार राम से सहयोग...और अब अकस्मात् ही राम के आ जाने से क्रमशः अकाल की ओर बढ़ते हुए ग्राम में आश्रम द्वारा अन्न पहुंचाया जा रहा था। आश्रमवासियों को त्यागी माना जाता था, किंतु उनसे ऐसे त्याग की अपेक्षा नहीं की जा सकता थी कि वे लोग अपनी आवश्यकता के लिए इधर-उधर से जुटाया हुआ अन्न ग्रामवासियों को खिला देंगे। यह उदारता उनमें कहां से आई? राम से? और अपने लिए अन्न की व्यवस्था किए बिना, अपना अन्न देकर अनिश्चित भविष्य से टकराने का साहस उन्होंने किसके भरोसे किया? राम के भरोसे?...ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ।
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