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लक्ष्मी कण्णन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2868
आईएसबीएन :81-7055-493-4

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इन कहानियों में समसामयिक प्रश्नों के साथ-साथ एक खोज का वर्णन है...

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


तमिल और अंग्रेजी में समान रूप से रचनारत संवेदनशील लक्ष्मी कण्णन् की हर कहानी एक अनूठा रंग, एक अनोखी पहचान लिए हुए होती है। उनकी कहानियाँ अंतश्चेतना की हर परत को छूती हुई पाठकों को बाध्य करती हैं कि वे अपने ऊपर ओढ़ी हुई परतों को एक-एक कर उतार कर अपने ‘स्व’ के प्रत्यक्ष खड़े हो जाएं। स्वयं लेखिका की यह खोज अत्यंत छटपटाहट व व्याकुलता से भरी हुई है।
इस संग्रह की कहानियों में एक ओर जहाँ ‘गहराता शून्यबोध’ का नायक अपने स्थायी अस्तित्व के मध्य झूलता हुआ अपने आपको दफ्तर की फाइलों या मेज-कुर्सी की दरारों में से झाँक रहे दीमक के कीड़े से अधिक नहीं मानता, वहीं दूसरी ओर ‘सव्यसाची का चौराहा’ का वह वृद्ध अंग्रेज भारतीय दर्शन को साकार करता हुआ मानवीय अस्तित्व को एक चरम बिन्दु पर ला देता है।
लक्ष्मी कण्णन् की हर कहानी में समसामयिक प्रश्नों के साथ-साथ एक खोज की साध है, एक एकाकीपन, जिसमें जीते हुए पात्र अपने ‘स्व’ की तलाश में प्रयत्नशील हैं। जहाँ इन रचनाओं में ऐसे गम्भीर स्वरों का आलोड़न है, वहीं दूसरी ओर ‘कस्तूरी’ और ‘हर-सिंगार’ की भीनी-भीनी महक द्वारा मानव-मन की गहराइयों तक पहुँचने का सफल प्रयास भी किया गया है।
वह शरीर उस सफेद घोड़े में लिपटा इस तरह लग रहा था मानो सांचे में ढाल दिया गया हो। सिर गोलाकार नजर आ रहा था। चेहरा थोड़ा उठा हुआ। कंधे, धड़, लम्बी टाँगें और ऊपर की ओर किये हुए पैर। मानो वह उड़ने को तैयार है और अब वह उड़ चुका। सब कुछ खत्म हो गया। अब बैठकर छाती फाड़-फाड़कर रोने के लिए ही समय है, जैसे यह जन समूह बिलख रहा है...

उस जनसमूह में से निकलकर वह उस खिड़की की तरफ दौड़ा, जहाँ चन्द्रा लेटी थी। वह हमेशा की तरह बिना हिले-डुले पड़ी थी। रामचन्द्रन की आंखें भर आयी थीं और गला सूखने लगा था। उसकी जीभ तालू से सट गयी थी। चन्द्रा क्या तुम भी मर...। चन्द्रा मेरी प्राण, मत जाओ। थोड़ा और सहन कर लो...। मुझे माफ कर दो। अपने घटिया विचारों के लिए मुझे बड़ा दुख है। मैं बड़ा शर्मिन्दा हूँ। आशा और तुम्हारे माता-पिता की मैं अच्ची तरह देखभाल करूँगा। मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ। बस तुम मुझे छोड़ कर मता जाना।..

सांस्कृतिक सेतुबन्ध


ब्रैन्डैन कैनेली ने एक बार बड़े ही शरारतपूर्ण ढंग से कहा था अनुवाद असफलता की एक मोहक कला है। तथापि उस समय से अनुवाद के ऐसे कई रूप देखने में आये हैं जो अपने लक्ष्य में असफल हुए बिना भी मोहक हैं। अनुवाद की सफलता या असफलता बहुत कुछ मूल भाषा की अन्तर्जात संभावनाएँ, उसकी अन्तर्निहित प्रकृति, संरचना और स्वर-संगति पर निर्भर करती है।
मेरे कथा-साहित्य का अंग्रेजी में व्यापक अनुवाद हुआ है, जिसने मुझे ऐसा पाठक वर्ग दिया है जो किसी भी भारतीय भाषा के कथाकार को मिल सकता है। उसमें एक बैद्धिक जिज्ञासा है, जिसके पीछे कई बार उसकी स्वतंत्र शिक्षा परिलक्षित होती है। संभवतः इसीलिए वह कोई भी नैतिक पक्ष लेने से पहले उसे भली-भाति तौल लेता है। शायद वह विवेकशील होना अधिक उचित समझता है। पर जब भी मेरे साथ कथा-साहित्य का अनुवाद हिन्दी में हुआ है तो यह अन्तर न केवल पाठकों की संख्या में दिखाई देता है, अपितु भाषा के गुणात्मक स्तर पर और उसकी पारदर्शकता, जिसके कारण मूल तमिल भाषा के पाठ की आर्द्रता बनी रहे, में भी स्पष्ट होता है।
भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद के संदर्भ में, अनुवाद से जुड़ी यह लोकप्रचलित कटूक्ति कि वह शब्द को तो फाँस लेता है परन्तु आत्मा छूट जाती है, खरी नहीं उतरती। हिन्दी पाठक वर्ग से जो प्रतिसंवेदनाएँ प्राप्त हुई हैं, वे निश्चय ही उत्साह-वर्धक हैं। इसका श्रेय जितना मेरे अनुवादक के कौशल को है, उतनी ही हिन्दी भाषा की प्रकृति को जाता है, जो एक भारतीय भाषा होने के नाते जहाँ एक ओर अपने अन्दर मूल पाठ की भारतीय महक और परिवेश को वहन करने की लोच अपने में समेटे है, वहीं अपनी निजी सुगंध को भी बनाए रखती है।
अनुवाद एक समानान्तर चलती हुई सृजनात्मकता है जिसके लिए अपेक्षित है एक विशाल-कल्पना कोश, जो नियन्त्रण, लचीलेपन तथा कौशल से जुड़कर किसी भी पाठ के शाब्दिक, ध्वनिक बौद्धिक तत्त्वों के बीच सामंजस्य स्थापित कर देता है। अनुवादक वह  स्रष्टा है जो कल्पना की यह छलांग लगाता है। एक दुर्बल मूल पाठ के प्रति सत्यनिष्ठ होने के प्रयास में अत्यधिक शाब्दिक हो जाता है, वह अनुवाद और अनुवादक दोनों के अहित में है। हमारे पास नोबल पुरस्कार विजेता इदिश लेखक आइसेक बाशेविस सिंगर की इस संबंध में कठोर चेतावनी है, ‘‘औरत के समान एक अनुवाद सत्यनिष्ठ होकर भी अत्यधिक दयनीय हो सकता है।’’ (किताबों के अनुवाद पर)। मैं राजी रामणन् की बहुत आभारी हूँ, जो इस प्रक्रिया में ऐसी मनोवृत्ति को लेकर लगी हैं। जो न केवल गंभीरता लिए हुए हैं अपितु कदम-कदम पर आत्मविश्लेषी भी हैं। वे उन बारीकियों में भी रुचि रखती हैं जो किसी भी संस्कृति का अनोखापन है और किसी भी अनुवाद कार्य के लिए बड़ी ही चुनौतीपूर्ण हो सकती हैं। उस बिंदु से वे पूर्ण अध्यवसाय में उसमें उस समय तक जुड़ी रहती हैं जब तक कि उन्हें एक संतोषजनक समतुल्य नहीं मिल जाता। यह उनके लिए अत्यन्त कठिन कार्य है, क्योंकि वे अपने ही कार्य की सबसे कठोर आलोचक हैं। इस तथ्य से भली-भाँति परिचित होते हुए भी कि ये विभिन्न सांस्कृति विशिष्टताएँ भाषा की प्रतिभा का अभिन्न अंग है, आश्चर्य यह है कि यह तथ्य उन्हें हतोत्साहित नहीं सकता अपितु उनके अंदर के अनुवादक को लक्ष्य भाषा तक पहुंचाने के लिए और उकसाता है। मेरा यह अनुभाव है कि वे केवल सटीक शब्दों का चयन ही नहीं करतीं, अपितु उस शब्द को जीती भी हैं।
मैं वाणी प्रकाशन के श्री अरुण माहेश्वरी की भी अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इस संग्रह को भारतीय भाषाओं के अनुवाद की श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित करने के प्रस्ताव को स्वाकृति दी है। मैं के. के. बिड़ला फाउंडेशन की भी आभारी हूँ कि उन्होंने इस कार्य के लिए उदारता पूर्वक आर्थिक सहयोग दिया। गत कुछ वर्षों में बिड़ला फाउंडेशन भारतीय भाषाओं की विपुल बहुस्वरता का पर्याय बन गया है। ये तीनों मेरे अनुवादक प्रकाशक, स्पॉन्सर सभी अपने-अपने ढंग से सांस्कृतिक सेतुबन्ध के कार्य में रत हैं। मेरी यही आशा है कि आने वाले वर्षों में अन्य लोग भी इस पथ को अपनाएंगे।
मेरी यह पुस्तक हिन्दी की सुपरिचित व ख्याति प्राप्त लेखिका राजी सेठ को समर्पित है जिनकी जीवन-यात्रा एक सुख, विरले संयोग से मेरी जीवन-यात्रा के समकालीन है। यह सोचकर कि यह पुस्तक उनके हाथों में उन्हीं की अपनी भाषा में पहुँचेगी मुझे अपूर्व आनन्द की अनुभूति हो रही है।

अनुवादक की ओर से


लक्ष्मी कण्णन् से तथा उनकी कहानियों से परिचय ने मन ही मन में एक इच्छा पैदा कर दी थी कि उनकी कहानियों

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