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न जुनूं रहा न परी रही

जाहिदा हिना

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2869
आईएसबीएन :81-8143-104-9

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यह पुस्तक धार्मिक मतों और इतिहास पर आधारित है....

Na Junu Raha na pari Rahi] Jahida Hina

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


इस बात को लेकर विवाद हो सकता है कि ज़ाहिदा हिना की मौजूदा कृति ‘न जुनूं रहा, न परी रही’ एक लघु उपन्यास है या फिर एक लम्बी कहानी, लेकिन इस बात को लेकर बहस-मुबाहिसे की गुंजाइश बिलकुल नहीं होनी चाहिए कि ये महान साहित्यिक उपलब्धि है। कुछ ही रचनाएँ ऐसी होती हैं जिनके पात्र, घटनाएँ और जिनकी संवेदना हमेशा-हमेशा के लिए पाठक के दिलोदिमाग पर एक अहम तरीन हिस्सा बनकर रह जाते हैं-

    ‘‘किताबों से कभी गुज़रो तो यूँ किरदार मिलते हैं
    गये वक़्त की ड्यौढ़ी पर खड़े कुछ यार मिलते हैं
    जिसे हम दिल का विराना समझकर छोड़ आये थे
    वही उजड़े हुए शहर के कुछ आसार मिलते हैं।

-गुलज़ार

इस किताब के मुतआल्लिक़ भी इस हक़ीक़त से इंकार नहीं किया जा सकता..लेकिन हम ज्यों ही ज़ाहिदा हिना की इस किताब में उतरने की कोशिश करते हैं, किताब हमारे भीतर उतर आती है और हमारे अंदर से गुज़रती हुई इर्द-गिर्द की हर बात, हर चीज़ को अपनी मौजूदगी के अहसास से संशोधित करती चलती रहती है-

    ‘‘माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
    कुछ ख़ार कम तो कर दिये, गुज़रे जिधर से हम

-‘साहिर’ लुधियानवी

मज़ाहिब (विभिन्न धार्मिक मतों), तारीख़ (इतिहास), असातीर (आख्यायिकाओं) और अदब (साहित्य) में ज़ाहिदा हिना का मुताल्आ (अध्ययन) ख़ूब है मगर इन्सानों का मुताल्आ उसने कम नहीं किया। दिन-रात उसका मुआमला इन्सानों से है। जब आपने अपनी किताबें पढ़ीं हों और इतने इन्सानों का मुतालआ किया हो तो आप बड़े अफसाना-निगार (कहानीकार) बनने के हकदार हैं, बशर्ते कि आप में लिखने का शोला, जहानत (विवेक) की आँच और दिनायत (ईमानदारी) का लपका (कौंधा) हो...ज़ाहिदा हिना में ये तमाम ख़ुसूसियात (खूबियाँ) हैं, इसके अलावा उसे ज़ुबान (भाषा) पर बेपनाह उबूर (अधिकार) है।

-रज़िया फ़सीह अहमद

मैंने ज़ाहिदा हिना के अफ़साने पढ़े और बेकल होकर सोचा कि ये बीबी अफ़साना लिखती किस तरह से है। रफ़्ता-रफ़्ता (धीरे-धीरे) मालूम हुआ कि ये बीबी अफ़साना लिखती नहीं, पूरती (बुनती) हैं। अफ़साने की शक्ल कुछ इस क़िस्म की निकलती है जैसे मकड़ी ने जाला पूर दिया हो। ये तारीख़ (इतिहास) के पूरे हुए जाल का अक्स (प्रतिबिम्ब/साया) है, इन अफ़सानों के किरदार (पात्र) तारीख़ के जाले में फँसते हुए किरदार हैं और एक कर्ब (पीड़ा) से दो-चार हैं। ये कर्ब (पीड़ा/दर्द) हिजरत के तज्रबे (मजबूरन देश त्यागने के अनुभव) की देन है। सरसरे-बेअमाँ (असुरक्षा के झक्खड़) की मारी लड़की ने अगर हिजरत न की होती तो उसके महसूसात (संवेदनात्मक अनुभव) भी वही होते जो कृशन चन्दर के अफ़सानों में हस्सास (संवेदनशील) लड़कियों के हुआ करते थे। मगर हिजरत के वाक़िए ने उनके महसूसात की सिम्त (दिशा) ही बदल दी है। एक हिजरत ने कितनी ही हिजरतों की याद ताज़ा कर दी। ईरान से बैरुत, बैरुत से बग़दाद, बग़दाद से बसरा, बसरा से सेहिन्द। ‘‘लेकिन ऐ वक़्त तुझ से पनाह कहाँ है ? ऐ वक़्त ! हमारी हिजरतों का ख़ात्मा कब, कहाँ और किस सरज़मीन में है ?...

-इन्तिज़ार हुसैन

न जुनूं रहा न परी रही


बृजेश दावर अली ने लिफ़्ट से निकलकर इतालवी टाइलों के  चिकने और चमकते हुए फ़र्श पर क़दम रखा। होटल की ख़ुनक (सर्द) लॉबी में गुज़रते हुए लोगों की सरगोशिय़ाँ (फुसफुसाहट, कानाफूसी) और क़हक़हे थे। कॉफ़ी शॉप  की दीवार पर जड़े हुए आइनों में से वुसअत और फ़राख़ी का फ़रेब (व्यापकाता एवं विस्तार का भ्रम) था। हज़ारों क़लमों वाले शाण्डलीयर (दीपाधार) से रोशनी का गिरता हुआ आबशार (झरना) था और पियानो पर झुके हुए शख़्स की उँगलियों से फूटती हुई भूली-बिसरी धुनों की धाराएँ थीं।

हर तरफ आराइश (साज-सज्जा) थी, आसाइश (समृद्धि) थी, रहत थी, राहत की शबाहद (कृत्रिमता) थी। इस शहर से पहली मुलाक़ात अब से कितनी मुख़्तलिफ़ (अलग) थी- नई ज़मीन, नया आसमान। एक उजड़ा हुआ, बेरौनक़, गंदा रेलवे स्टेशन, पैबन्द लगी हुई थी बदरंग क़मीजों में समान से दुहरे हो जाने वाले कुली। प्लेट फ़ार्म पर खोमचे और ठेलेवालों की बारात।‘‘ चार्य गर्म’’ की आवाज़ें। फ़र्श और दीवारों पर पीक की पिचकारियाँ, जा-बा-जा (जगह-जगह) बलग़म और उस पर मक्खियों की यलग़ार (भिनभिनाहट), लोगों का  रेला जिसमें वो तिनके की तरह बहती हुई, चन्द आश्ना (परिचित) चेहरों को ढूँढ़ती हुई।

इस बार का आना पहली बार के आने से कितना मुख़्तालिफ़ (अलग) था। यहाँ से हर साल दस्तख़त-शुदा-न्यू इअर कार्ड मिलता। इत्तिला....घर की खिड़कियाँ रौशन हैं। दरम्यान में एक दो सत्री (संक्षिप्त-सा) ख़त  भी आया था। ख़बरे-बद....वो भी नये साल की मुबारकबाद भेजती रही। इशारा, ज़िन्दगी और मौजूदगी का।
कितनी बार हूक उठती थी यहाँ आने की और साल-ब-साल उसने दिल को समझया था। ये ताब (सामर्थ्य), ये मजाल, ये ताक़त नहीं मुझे
 दिल कहता ज़िन्दगी की शाम तो हो गई, अब कब जाओगी ? और वो तो कब से माँगे हुए लम्हों में ज़िन्दा थी। ‘दुई नैनाँ मत खाइयो।’ उस मुलाक़ात को वो कब तक टालेगी ? आईना उसे मलामत (लज्जित) करता। ख़्वाब उसे खुला दरवाज़ा और मेहरबान चेहरे दिखते।

इतनी बुज़-दिल और इतनी कम-हिम्मत तो उस वक़्त भी तुम न थीं जब इस शहर की तचरफ पहला सफर किया था, आईना तंज़ (व्यंग्य) करता।
वो तो कुछ और ही वक्त था। बेहिर्सो-हवा (बिना किसी लोभ लालच के), बेख़ौफ़ो-ख़तर (बिना किसी डर व संशय के), इक हाथ पर सर, इक कफ़ (हथेली) पे जिगर, यूँ कू-ए-सनम (महबूब की गली) में वक़्ते-सफर (यात्रा शुरु करते समय) नज़्ज़ार,-ए-बामें-नाज़ (महबूब की छत का दीदार) किया....., इसका अक्स (प्रतिबिम्ब, साया) आह भरता।
जिगरे-लख़्त-लख़्त (टुकड़े-टुकड़े जिगर) को जमा करना सहल (आसान) तो न था। वो इसी मरहले (मनोदशा) में थी कि अमरीका से दावत-नामा (निमन्त्रण-पत्र) आ गया। एक और सफ़र दरपेश (सामने)....आइने की तरफ़ से तंज़ (व्यंग्य) के नये तीर.... उस घर का नमक भी याद नहीं रहा तुम्हें ? वो बेक़रार हो गई...नमक ? मेरी तो ज़िन्दगी भी उस घ की  दादो-दिहिश (दान दी हुई) है।

तो फिर मान लो कि हक़ अदा न हुआ। वो ख़बर-बद (बुरी खबर) जब आई थी, जब वहाँ तुम्हारा इन्तिज़ार किया होगा। आईना सच्चा था। हक़ (सच) तो ये  है कि हक़ (कर्तव्य) अदा (पूर्ण) न हुआ। उसने सर झुका दिया। ज़िन्दगी के आख़िरी सच से मिल लूँ। उन्हें देख लूँ, दो दिन के लिए ही सही।
इन्दिरा गाँधी इण्टरनेशनल एअरपोर्ट से जिन्नाह टर्मिनल तक। इज़्तिराब (छटपटाहट), घबराहट। आ जाने की इत्तिला (सूचना) नहीं दी है, तो क्या अब सीधे घर चली जाऊँ ? हर बुने- मू (रोम-रोम) से ख़ूँनाब (रक्त) टपकता था। ‘नहीं समान किसी होटल में रख लूँ, ज़रा सँभल लूँ तो चलूँ ।’

एयरपोर्ट से होटल तक शहर इतनी तेज़ी से फैला था जैसे बदन में कैंसर फैलता है। दीवारों पे कोढ़ फूटा हुआ था। शहीद बाबरी मस्जिद की पुकार....रेप इण्डिया। नारा-ए-सिंध, शिया काफ़िर। जो क़ायद (मुहम्मद अली जिन्नाह) का ग़द्दार का है, वो मौत का हक़दार है। क़ादियानी वाजिबुलक़त्ल (वध के योग्य)  हैं। मारेंगे मर जाएँगे, मुजाहिर-सूबा बनाएँगे। क्रश इण्डिया। नारों का तआक़्कुब (पीछा करना) यहाँ भी जारी था। उसने लरज़ (काँप) कर आँखें बन्द कर लीं। टैक्सी फ्री़अर हॉल के ऐन मुक़ाबिल (बिल्कुल सामने) बने एक ‘मैरियट’ के पोरटीकों में रुकी तो उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था। होटल नया था लेकिन रास्ता तो देखा-भाला था।

चलते-चलते वो लॉबी के एक आराइशी आईने (श्रृंगारी-दर्पण) में ठहर गई और उस बवक़ार (प्रतिष्ठित) औरत को देखा जिसका मुतनासिब और बालाक़ामत वजूद (सन्तुलित और प्रभावशाली आस्तित्व) आबे-रवाँ की कलफ़ लगी साड़ी में लिपटा हुआ था। तरशे हुए बाल शानों (कांधों) से नीचे गिर रहे थे, कनपटियों पर चाँदी के तारों की कढ़त थी। साड़ी पर लगे हुए ब्रोच ने रोशनी के आबशार (झरना) में नहाते हुए आँखें खोल कर उसे देखा और मुस्कराया।
होटल के सदर (मुख्य) दरवाज़े से बाहर अब्र-आलूद (बादलों से घिरी) शाम थी और शाम में ही शहरी आवाज़ों के भँवर थे। सड़क किनारे धूनी रमाने वाले बूढ़े पेड़ो की शाख़ों पर बसेरा करने वाले परिन्दों की आवाज़ें इस भँवर में डूब और उभर रही थीं।
वो नर्म-रवी से (धीरे-धीरे) चलती रही। फ़्रीअर हॉल, अमरीकन कॉन्सलेट, सिन्ध क्लब, इस्टेट गेस्ट हाउस-जानी पहचानी इमारतें उसके दाये-बायें छूटती चली गईं। होटल मेटरोपोल के चौराहे पर आई। सामने  की इमारत में के.एल.एम. का मॉडल तैयारा (विमान) सर उठाये, पर तोले खड़ा था।

उसने सड़क  पार की और इमारत के सदर (मुख्य) दरवाज़े पर पहुँच कर लम्हें भर के लिए ठिठकी। लकड़ी की सीढ़ियाँ  ऊपर जा रही थीं। वो सहज-सहज उन पर चढ़ने लगी। पहली मंज़िल, फिर दूसरी और आख़िरकार  तीसरी मंज़िल। लकड़ी का दो पट वाला दरवाज़ा उसके सामने आ गया। पीतल की पुरानी तख़्ती को बहुत दिनों से किसी ने साफ नहीं किया था। ‘दरों-दीवार से टपके बियाबाँ होना।’ बेक़रारी सिवा (अधिक) हुई जाती थी। उसने एक हाथ से दीवार का सहारा लिया। घण्टी बजाई। अन्दर से एक आवाज़  उभरी, कोई पैरों को घसीटता हुआ दरवाज़े की तरफ़ आ रहा था। फिर दरवाज़ा आहिस्ता-आहिस्ता खुला। एक निहायत बूढ़ी औरत दहलीज़ पर खड़ी थी। ख़ाकी रंग के कार्डिगन में मुट्ठी भर हड्डियाँ, साड़ी का पल्लू सीधे शाने (कँधे) पर, सर पर मँढी हुई सियाह (काली) टोपी ने सफ़ेद बालों को छुपा लिया था। छड़ी के सहारे खड़ी हुई कुबड़ी औरत ने गर्दन उठाकर बृजेस दावर अली को देखने की कोशिश की।
बृजेस ने उसके अक़्ब में (पीछे) नज़र दौड़ा़ई, बानो आण्टी उसे कहीं दिखाई नहीं दी।
‘‘मिसिज़ काऊस जी से मिलना है।’’ बृजेस ने कहा।

कुबड़ी औरत ने टेढ़ी-मेढ़ी उँगलिओं से दरवाज़े का एक पट थाम कर गर्दन आगे बढ़ाई, ‘‘बोलो क्या माँगता है ?’’
‘‘मिसिज़ काऊस जी को बुला दें।’’ बृजेस ने इस मर्तबा ज़रा ज़ोर से कहा।
‘‘बोलो बाबा बोलो। अपुन मिसिज़ काऊस जी है, अपुन मिसिज़ काऊस जी है, ज़मीन से आसमान तक उस आवाज़ की गूँज थी। बृजेस ने बहरे कानों से उस आवाज़ को सुना ...अंधी आँखों से सामने खड़ी हुई औरत को देखा। शिरयानों (रगों) में खून की नहीं, आँसुओं की गर्दिश थी।

‘‘अपुन तुमको नहीं जानता, ‘‘औरत ने बेरुख़ी से कहा और दरवाज़ा बन्द करने लगी।
बृजेस ने दरवाज़े के दोनों पट थाम लिए, ‘‘मैं बृजेस हूँ, बानो आण्टी। आपकी बृजेस। हिन्दुस्तान से आई हूँ।’’
‘‘हिन्दुस्तान ? इण्डिया आवाज़ से कुछ याद करने की कोशिश की।, फिर अचानक चेहरे पर मँदी हुई खाल के नीचे चराग़ से जल उठे, ‘‘तुम आ गया बृजेस। ले आया तू मीनू को ? कमज़ोर और काँपते हुए हाथों ने पूरी कुव्वत (ताक़त) से उसे थामा तो लड़खडा़ गई, फिर सँभल कर उसने बानो आण्टी की टेढी-मेढी उँगलियाँ थामीं और उनसे लिपट गई।
वक़्त की गिलहरी ने अपनी चमकदार और अय्यार आँखों से बृजेस को दावर अली और बानो लश्करी काऊस जी को देखा। वो कटर-कटर कुछ खा रही थी।

मेह की झड़ी पल भर को नहीं थमी थी बिजली ख़ासी देर पहले गई थी। अँधेरे में माहौल कुछ ज्यादा ही मुहीब (डरावना) और पुर-असरार(रहस्यमयी) हो गया था। बृजेश ने बिल्डिंग के लकड़ी़ के ज़ीने पर बैठे-बैठे झुरझुरी ली। लिबास में बरसात की नमी रच गई थी और बदन फ़ज़ा की ख़ुनकी (वातावरण की शीतलता) से रह-रह कर कँपकँपा उठता था।
हवा की सरसराहट और देर से बरसते मेह की झमाझम पर अचानक टापों की आवाज़ ग़ालिब आ (हावी हो) गई। घोड़े़ के सुम (पाँव) गीली ज़मीन पर रपटे और सँभल गए। अँधेरे में जुगूनू जैसी एक रोशनी सड़क से कुछ ऊपर पलकें झपकाने लगी। उसी लम्हें बिजली चमकी और पल भर के लिए सारा मंज़र (दृश्य) उजाले में नहा गया। दरवाजे़ के सामने तिरपाल से ढ़की हुई विक्टोरिया रुकी हुई थी और कोचवान अपनी गद्दी से कूदकर नीचे उतर रहा था।

आसमानी बिजली के ग़ायब होते ही विक्टोरिया के बायें तरफ़ की लालटेन एक बार फिर अँधेरे में जुगनू बन गई। किसी ने विक्टोरिया में दियासलाई जलाई तो उसकी कँपकँपाती हुई रोशनी में विक्टोरिया का अन्दरूनी हिस्सा किसी पुर-असरार (रहस्यमयी) अँग्रेज़ी फ़िल्म की याद दिलाने लगा। अचानक बृजेस को अहसास हुआ कि उतरने वाले इसी बिल्डिंग के मकीन (निवासी) हैं  और चन्द ही लम्हों में उसके सर पर पहुँचने वाले हैं। खौफ़ से ज़हन में जो गिरह (गाँठ) लगी हुई थी वो और तंग हो गई। ये लोग मुझे देखकर क्या सोचेंगे। चोर न समझें या भिखारी या फिर..... और उससे आगे अपना जुमला (वाक़्य) वो ख़ुद ही मकम्मल न कर सकी थी।

इतनी देर में वो लोग विक्टोरिया से उतर कर तेज़ी से बिल्डिंग के अन्दर या गए। किसी ने रास्ता दिखाने के लिए माचिस जलाई तो दियासलाई की नन्ही-सी लौ में बृजेस को एक मर्द और एक ख़ातून (महिला) दिखाई दी नज़र आई।, वो उन्हें रास्ता देने के लिए जल्दी से उठकर खड़ी हो गई। ख़ातून ने चौंक कर उसे देखा, जे़रे-लब (होंठों ही होंठों में) कुछ कहा, फिर तम्कनत (अकड़) से सर उठाये, पल्लू सँभाले, उसके बराबर से गुज़र गईं। बृजेस ने देखा वो उलटा आँचल ओढे़ हुए थीं। शायद पारसन थीं उसने कोलकाता और मुम्बई में बहुत-सी पारसनें देखी थीं। मर्द जलती हुई तीली को हवा से बचाते हुए उन ख़ातून के पीछे सीढ़ियाँ चढ़ता गया।

बृजेस ने मुड़कर देखा, उनके साये भी अब ओझल  हो गए थे। और एक बार फिर हर तरफ़ अँधेरा हो गया था। उसने घुटनों पर सिर रख दिया। दर्द से उसकी कनपटियाँ तड़ख़ रही थीं। क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? सारी रात क्या यहीं बैठे-बैठे गुज़र जाएगी ? ज़िन्दगी में पहली बार इस क़दर गहरा ख़ौफ़ उसकी हड्डियों में सरायत कर (बह) रहा था। 
उसे ख़याल आया कि निचली सीढी़ पर बैठने से बेहतर है कि दो-तीन सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ कर बैठ जाए, इस तरह वो फुटपाथ से गुज़रते हुए किसी राहगीर या इलाक़े के चौकीदार की नज़र में तो नहीं आएगी।
दो सीढ़ियाँ चढ़कर वो बैठने लगी तो कोई चीज़ उसके पहलू में चुभी। उसने टटोलकर उस चीज़ को उठाया और उठाते ही उसे अन्दाज़ा हो गया कि वो कोई ब्रोच है। शायद उन ही पारसी ख़ातून का जो कुछ देर पहले ऊपर गई थीं।, शायद वो दोनों उसे ढूँढ़ने के लिए नीचे आएँ। लेकिन जब दस मिनट गुज़र गए और कोई न आया तो उसे झुँझलाहट-सी होने लगी। अपनी ही उफ़्ताद (मुसीबत) क्या कम थी कि अब ये ब्रोच मिल गया था। ब्रोच का आख़ि़र वो क्या करे ? उसे यूँ ही सीढ़ी पर छोड़ा भी तो नहीं जा सकता था।

उसकी समझ में जब कुछ भी न आया तो वो शाने (कंधे) से लटके हुए चमड़े़ के बैग को सँभालते हुई खड़ी़ हो गई। अँधेरे में बिल्कुल अजनबी जोड़े का घर ढूँढ़ना भी एक अजीब ही तज़ुर्बा था। दीवार का सहारा लेकर वो सँभल-सँभल कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। पहली मंज़िल के दरवाज़े पर दस्तक देना लाहासिल (बेकार) था। वो दोनों यक़ीनन पहली मंजि़ल पर नहीं रुके थे, उनके क़दमों की आवाज़ ख़ासी ऊपर तक गई थी।
ब्रोच को मुट्ठी में दबाये बृजेस ऊपर चढ़ती रही। शायद उन दो दरवाज़ो में से कोई एक ऐसा उनका हो, दूसरी मंज़िल पर पहुँच कर उसने सोचा। दिल तेज़ी से धड़क रहा था, हथेलियाँ पसीज रही थीं। उसने दायें दरवाज़े पर दस्तक दी। दरवाज़े की झिर्री में मद्धम रोशनी छन रही थी। दूसरी दस्तक में अन्दर से किसी मर्द ने तेज़ आवाज़ में अँग्रेज़ी में पूछा ‘‘कौन है ?’’
बृजेस की समझ में न आया कि क्या कहे और क्या पूछे। कैसी अजीब सूरते-हाल (स्थिति) थी। उसने अँग्रेज़ी में ही दरवाज़ा खोलने को कहा।

चन्द लम्हों के बाद दरवाज़ा आधा खुला और उसमें से एक गुवानीज़ क्रिश्चियन चेहरा झांकने लगा। अन्दर कैरोसीन लैम्ब जल रहा था और खुले हुए दरवाज़े से उसकी रोशनी बाहर तक आ रही थी।
‘‘इस टेम क्या माँगता ? किसको पूछता है ?’’ आवाज़ ज़रा तीखी थी।
‘‘इस बिल्डिंग में जो पारसी फैमिली....’’
‘‘तुम काऊस जी का फ़्लैट माँगता।’’ गुवानीज़ क्रिश्चियन ने उसका जुमला काट दिया, ‘‘तीसरे माले पर लैफ़्ट हैण्ड का डोर है। ’’ दरवाजा एक धड़ाके से बन्द हो गया।
बृजेस ने इत्मीनान का साँस लिया और ऊपर का रुख किया। शायद इस पारसी फ़ैमिली के ज़रिये उसका अपना मस्अला भी हल हो जाए। तीसरी मंज़िल पर पहुँच कर वो रुक गई। बाईं तरफ़ के दरवाज़े पर काल-बैल की तरफ़ हाथ बढ़ाया और फ़ौरन हाथ खींच लिया, फिर दस्तक दी। अन्दर से एक मर्द और एक औरत के बोलने की आवाज़े आ रही थीं। दस्तक की आवाज़ सुनकर औरत ने गुजराती में कुछ कहा। तेज़ कदमों की चाप उभरी और दरवाज़ा एक झटके से खुल गया।
राहदारी में एक लैम्प रौशन था और उसकी रोशनी में एक मर्द उसके सामने खड़ा था।

‘‘कौन हो तुम ? क्या बात  है ?’’ मर्द ने उसे तेज़ निगाहों से देखते हुए पूछा।,
‘‘आपकी मिसिज़ की कोई चीज़ खो गयी है ?’’ बृजेस ने मर्द की आँखों में देखते हुए सवाल किया। यकीनन यही मर्द अभी सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आया था। अन्दर से ख़ातून (महिला) की आवाज़ आई वह  कुछ पूछ रही थी।
‘‘नहीं, मनूचहर नहीं, सीढ़ियों वाली लड़की है।’’ मर्द ने कहा।
बृजेस समझ गयी दोनों के दरम्यान उसके बारे में तजस्सुस-आमेज़ (खोज-परक) जुमलों का तबादला ज़रूर हुआ है। शायद यही काऊस जी थे।
‘‘हाँ मेरी वाइफ़ का ब्रोच गिर गया है।’’ काऊस जी ने उसे गौर से देखा, ‘‘क्या तुम्हें मिला है  ?’’
बृजेस ने मुट्ठी खोलकर आगे बढ़ा दी। पसीने से भीगी हुई हथेली पर मोमबत्ती की गर्म रोशनी में फ़ीरोज़े (एक प्रसिद्ध रत्न) का एक जड़ाऊ ब्रोच जगमगाय। यक़ीनन ये बहुत क़ीमती था।
ख़ातूनी उसी वक़्त गुजराती में कुछ बोलती हुई राहदारी में आ गईं।

‘‘अन्दर आ जाओ, ‘‘काऊस जी ने तहक्कुम-आम़ेज (आज्ञा-परक) लहजे में कहा।
बृजेस हिचकिचाई लेकिन एक इमारत की सीढ़ियों पर रात गुज़ारने का खौफ़ एक अजनबी घर में क़दम रखने के खौफ़ पर ग़ालिब आ (हावी हो) गया। काऊस जी उसे रास्ता देने के लिए एक तरफ़ हट गए और वो उनके बराबर से गुज़र कर राहदारी में दाख़िल हो गई। ख़ातून सामने खड़ी थीं और मश्कूक (संदिग्ध) नज़रों से उसे देख रही थीं। उन्होंने सवालिया निगाहों से काऊस जी की तरफ़ देखा लेकिन उन्होंने कुछ कहे बगै़र ख़ातून को आगे चलने का इशारा किया और फिर वो तीनों एक दूसरे के पीछे चलते हुए एक कमरे में दाखिल हुए।
ये एक शानदार ड्राइंग-रूम था। दबीज़ कालीन। शनील की पोशिश वाले बड़े-बड़े सोफ़े। दीवारों पर तस्वीरें। यहाँ भी एक दो-बत्ती लैम्प जल रहा था।
काऊस जी ने बृजेस को बैठने का इशारा किया। वो एक सोफ़े पर टिक गई। ख़ातून के चेहरे पर उलझन नुमायाँ (स्पष्ट) थी।
‘‘ये लड़की तुम्हारा ब्रोच लाई है, ’’काऊस जी ने बीवी को मुख़ातिब (सम्बोधित) किया, फिर उन्होंने बृजेस से कहा, ‘‘ब्रोच इन्हें दे दो।’’

बृजेस ने अपनी जगह से उठकर ब्रोच मिसिज़ काऊस जी की तरफ़ बढ़ा़ दिया। उनकी आँखें हैरत में फैली हुई थीं। उन्होंने एक नज़र ब्रोच पर डाली फिर बृजेस को देखा।
‘‘गुड गॉड ! लड़की ये तुम्हें कहाँ से मिला ?’’ उन्होंने ब्रोच को उलट-पलट कर देखते हुए पूछा।
‘‘ये सीढ़ियों पर गिर गया था।’’
 तुमने ये कैसे जाना कि ये ब्रोच हमारा है ?’’ काऊस जी की निगाहें उसे टटोल रही थीं।
‘‘पारसी ख़्वातीन (महिलाएँ) साड़ी पर अमूमन ब्रोच लगाती हैं।’’
‘‘लेकिन तुमने हमारा फ़्लैट कैसे ढूँढ़ा  ?’’ वो वकीलों की तरह जिरह कर रहे थे।
‘‘मैंने पहले दूसरी मंज़िल के फ़्लैट पर दस्तक दी थी। वहाँ से एक साहब ने बताया आप तीसरी मंज़िल पर रहते हैं।’’
‘‘तुम इसे ख़ुद भी तो रख सकती थीं। ’’ काऊस जी के इस ग़ैर-मुतवक़्क़ों (जिसकी उम्मीद तक न हो) जुमले ने एक लम्हें के लिए बृजेस को हैरत में डाल दिया और जब मतलब उसकी समझ में आया तो बदन का सारा खून उसके चेहरे पर सिमट आया।
‘‘जो चीज़ मेरी न थी उसे मैं अपने पास कैसे रख लेती।’’ बृजेस का लहजा तीखा था।      

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