बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
लक्ष्मण ने देखा सामने निकुंभिता यज्ञागार था। इसी के भीतर यज्ञ में दीक्षित हो इन्द्रजित मेघनाद बैठा, ध्यान कर रहा था। अपने नगर की प्राचीर के भीतर, मंदिर में बैठा मेघनाद सर्वथा असुरक्षित नहीं था। सहस्रों राक्षस सैनिक उस यज्ञागार की रक्षा कर रहे थे...। वे सदा ऐसे ही रक्षा करते हैं या उन्हें इस अभियान की सूचना...नहीं! उन्हें लक्ष्मण के इस अभियान की सूचना नहीं हो सकती...। उन्हें यदि इसका तनिक भी आभास होता तो मेघनाद इस समय यहां यज्ञ न कर रहा होता, वह अपना ब्रह्मास्त्र लेकर वानर सेना का ध्वंस करने के लिए लंका की प्राचीर से बाहर निकल गया होता...। किंतु किसी आशंका की अनुपस्थिति में भी कितनी विकट रक्षा व्यवस्था है मेघनाद के लिए। राक्षस सर्वथा असावधान नहीं हैं...
लक्ष्मण ने अनिन्द्य को इंगित किया। अनिन्द्य और भूलर अपनी टोलियों के साथ यज्ञागार के पीछे की ओर चले गए। धर्मभृत्य और भीखन बायीं ओर गए। उल्लास, आदित्य और आनन्दसागर दायीं ओर से गए। विभीषण अपने मंत्रियों-अनल, पनस, संपाति तथा प्रमति के साथ मुख्यद्वार पर आक्रमण करने के लिए लक्ष्मण के संकेत की प्रतीक्षा में सन्नद्ध खड़े थे।
लक्ष्मण ने एक भयंकर नाराच अपने धनुष पर चढ़ाया और विकट हुंकार के साथ यज्ञागार के मुख्यद्वार पर छोड़ दिया। यह आक्रमण का संकेत भी था और आदेश भी। एक क्षण में राम के जयजयकार के बीच यज्ञागार पर चारों ओर से बाण बरसने लगे, किंतु कोई भी योद्धा प्रकट नहीं हुआ।
निश्चिंत बैठे हुए राक्षस सैनिकों में भगदड़ मच गई। वे मेघनाद के अंगरक्षक थे। सदा युवराज के साथ चलते थे। किंतु, लंका के भीतर इस प्रकार चारों दिशाओं से आकस्मिक आक्रमण की कल्पना उन्होंने नहीं की थी और न ही उसके लिए वे प्रस्तुत दिखाई पड़ रहे थे। यद्यपि वे मेघनाद के अंगरक्षक कहलाते थे; किंतु वे स्वयं भी जानते थे कि बहुधा उनकी रक्षा स्वयं मेघनाद ही किया करता था...। और इस समय मेघनाद अपने यज्ञ में संलग्न था...क्रमशः लक्ष्मण ने दूसरा संकेत किया। विभीषण ने जोर का श्रृंगीनाद किया और जन-सेना की समस्त टोलियां अंगरक्षकों पर टूट पड़ी। यही समय था जब गदापाणि विभीषण भी अपने मंत्रियों के साथ अंगरक्षकों पर पिल पड़े...
अंगरक्षकों ने जन सेना का नेतृत्वविहीन सामना किया; किंतु सैनिक दृष्टि सम्पन्न कोई भी व्यक्ति देख सकता था कि सामूहिक और योजना-बद्ध-युद्ध न होकर अंगरक्षकों का व्यक्तिगत प्रयास ही था। जनसेना का दबाव निरन्तर बढ़ता जा रहा था और स्वयं विभीषण इस समय मेघनाद के अंगरक्षकों के काल बने हुए थे। अंगरक्षकों का चीत्कार बढ़ता जा रहा था और थोड़ी ही देर में उन लोगों ने अपने युवराज को स्प्रष्ट और सामूहिक रूप से बड़े करुण स्वर में पुकारना आरम्भ कर दिया।
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