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बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2

युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

इस बार विभीषण खुलकर हंसे, "पूछा ही है तो उत्तर भी धैर्य से सुनो मनस्वी युवराज। लंका न तुम्हारी भूमि है, न तुम्हारे पिता की। उसे तुम्हारे पिता ने कुबेर से छीना और उसे सदा अपना उपनिवेश ही माना, देश नहीं। लंका सोने की है, किंतु लंका की सामान्य प्रजा आज भी इतनी निर्धन और असहाय है कि स्त्रियां अपना यौवन बेचती हैं और पुरुष अपना रक्त-मांस। तुमने लंका के निर्माण के लिए क्या किया? यहां जो कुछ बना हुआ दिखाई पड़ता है-पथ, भवन, प्रासाद, अट्टालिकाएं, जलपत्तन,-सब कुछ यज्ञराज कुबेर के समय से निर्मित हैं। तुमने केवल यह किया कि सारा धन, सत्ता, शक्ति, व्यापार, उद्योग-राजपरिवार के सदस्यों, अपने मंत्रियों, सेनापतियों, सामंतों के हाथ में संचित कर दिया। प्रजा चाहे भूखी मरे। एक परिवार, एक वर्ग को सर्व-सम्पन्न बनाकर शेष लोगों को पशु से भी हीनतर जीवन को बाध्य कर दिया है। फिर भी तुम्हें गुमान है कि लंका तुम्हारी है। लंका को तुमने अपनी समझा कब?...और फिर केवल लंकावासी होकर ही तो कोई लंका का हितू नहीं हो जाता।" विभीषण आवेश में बोले, "तुमने लंकावासियों को दास और वेश्याएं बनाया है-राम उन्हें मुक्ति देंगे और मैं उस मुक्ति की रक्षा करूंगा।'

"राजनीतिक चेतना कुछ अधिक ही उग्र हो गई है तुममें चाचा।" मेघनाद वितृष्णा से मुस्कराया, "और तुम वीरवर लक्ष्मण।" उसके स्वर में व्यंग्य था, "यज्ञ दीक्षित निःशस्त्र योद्धा को चुपके से घेरकर मारने आए हो। कायर। दो बार जाने किस माया से तुम मरकर भी जीवित हो गए, किंतु आज तुम्हें किसी प्रकार भी जीवित नहीं लौटने दूंगा।"

"तुम्हारे प्राण रहते, स्वयं जीवित लौटने की आशंका लेकर नहीं आया हूं वीर दंभी।" लक्ष्मण तेजस्वी स्वर में बोले, "मुझे दोष देने से पहले तनिक अपनी वीरता पर विचार कर लिया होता। पत्थरों और शाखाओं से लड़ने वाले निहत्थे वानरों पर तुमने ब्रह्मास्त्र चलाया है। युद्ध के नियमों के सर्वथा विरुद्ध तुमने हम पर विषैली औषधियों में पगे शस्त्रों का प्रयोग किया है। फिर भी वीरता का दंभ है तुम्हें।" लक्ष्मण का स्वर ऊंचा हो गया "हमारा निरीह वध करने के लिए अभिचारिक यज्ञ करते हो धर्मावतार। मैं तुम्हें बताने आया हूं कि प्रकृति की सबसे बड़ी शक्ति मनुष्य का पुरुषार्थ है। इसका प्रमाण मैं अभी तुम्हारे इस यज्ञ दीक्षित तिलक-मंडित मस्तक को तुम्हारे कबंध से अलग कर दूंगा। तुम यज्ञ करो, बलियां दो, भूत शक्तियों को अपनी रक्षा के लिए पुकारो, रक्षा-कवच बांधो, टोने-टोटके करो-किंतु न राम किसी अमानुषी शक्ति को पुकारेंगे और न उनका अनुज। हम तुम्हारी प्रत्येक मंत्र और तंत्र शक्ति के ही नहीं देवास्त्र दिव्यास्त्र तथा शस्त्र शक्ति के विरुद्ध केवल जनशक्ति को खड़ाकर तुम्हें बता देंगे कि वास्तविक शक्ति कहां है?"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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