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युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

"कौन है?" विभीषण ने पूछा।

मैं हूं पिताजी।" कला कपाट खोलकर भीतर आ गई।

"क्या बात है?" उसने माता-पिता दोनों को ध्यान से देखा, "आप लोगों के चहेरे इतने उतरे हुए क्यों हैं?" विभीषण ने सरमा की ओर देखा।

"थोड़ी देर हमें अकेले छोड़ दो बेटी।" सरमा शांत स्वर में बोली।

कला का मन हुआ कि मचलकर वहीं बैठ जाए। ऐसी कौन-सी चर्चा है, जो उसके माता-पिता उसके सामने नहीं करना चाहते। वह अब बच्ची नहीं हैं। किंतु मां के स्वर में कुछ ऐसा था कि कला प्रतिवाद नहीं हर सकीं। चुपचाप उल्टे पैरों लौट गई।

"मैं अपने और कला के विषय में नहीं आपके विषय में चिंतित हूं।" सरमा ने बात नए सिरे से आरंभ की।

"तुम लोग यहां सुरक्षित रही तो मेरी क्या चिंता!" विभीषण बोले "मैं कहीं भी चला जाऊंगा।"

"कहां चले जाएंगे?" सरमा बोली, "उस पार के समुद्र तट पर राम की सेना बिछी पड़ी है। प्रत्येक घाट पर उनके सैनिक गरज रहे हैं। ऐसे में आप कहां जाएंगे? सागर पार करते ही उनके हाथों में पड़ गए तो बंदी बना लिया जाएंगे। आप उन्हें लाख विश्वास दिलाएं कि आप रावण के किसी कृत्य से सहमत नहीं हैं-वे आपको राक्षसेन्द्र का भाई मानकर काट खाएंगे।"

विभीषण ने सरमा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वे जैसे किसी और ही लोक में खो गए थे। सरमा एकटक अपने पति की ओर देखती रहीं; किंतु उनके चिंतन में बाधा नहीं डाली।

"मैं सोच रहा था।" थोड़ी देर के पश्चात विभीषण स्वयं ही बोले, "सिद्धांततः मैं सदा रावण का विरोधी और परिणामतः राम का समर्थक रहा हूं; किंतु भाई के सम्बन्ध के मोह में मैं रावण का त्याग कभी नहीं कर सका। आज यदि रावण ने स्वयं मुझे इसका अवसर दिया है तो मैं उससे व्याकुल क्यों हो उठा हूं?" वे रुके, "मुझे कहीं और जाने की आवश्यकता ही क्या है, मैं सीधा राम के ही पास क्यों नहीं जाता। वहां वह वानर हनुमान भी होगा, वह साक्षी देगा कि मैंने रावण के द्वारा घोषित मृत्यु-दंड से उसकी रक्षा की थी...।"

तभी फिर किसी ने कपाट पर थाप दी। इस बार थाप कुछ अधिक जोर से दी गई थी। विभीषण ने कुछ आश्चर्य तथा कुछ रोष के साथ जोर से बजते हुए कपाटों की ओर रेखा; "आज जब वे स्वयं इतने उद्विग्न हैं, कला यह कैसा व्यवहार कर रही है?"

किंतु, उनके कुछ बोलने से पूर्व ही एक कपाट हल्के-से इतना भर खुला कि उसमें से एक चेहरा झांक सके। चेहरा कला का था। उसने धीमे तथा शांत स्वर से कहा, "अविंध्य काका आये हैं।"

"आने दो।" विभीषण के मुख से अनायास ही निकल आया।

इस बार चकित होने की बारी सरमा की थी। किंतु विभीषण का ध्यान उस ओर नहीं गया। वे उत्सुकता से अविंध्य के आने की राह देख रहे थे। अविंध्य अकेला नहीं था। उसके साथ विभीषण के चारों सचिव-अनल, पनस, संपाति, तथा प्रमति भी थे।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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