बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
कोलाहल निकट आया तो सबने देखा कि चार वानर प्रहरी एक व्यक्ति को पकड़े हुए घसीटे ला रहे हैं ओर वह व्यक्ति बार-बार चिल्ला रहा था कि उसे वानरराज सुग्रीव से मिलना है, कंगले तपस्वी राम से उसका कोई काम नहीं है। और वे वानर थे कि बार-बार उसे डांट कर चुप करा रहे थे। विभीषण ने ध्यान से उस व्यक्ति को देखा तो अनायास ही उनके मुख से निकला, "शुक!"
"कौन है यह?" सुग्रीव ने पूछा।
"यह रावण का विशेष दूत है।" विभीषण बोले, "यह व्यक्ति अपनी कूटनीति और धूर्त्तता के लिए प्रसिद्ध है। जब रावण किसी सैनिक शक्ति का प्रयोग नहीं करता, तो इसका प्रयोग करता है। इस समय इसका यहां आना विशेष रूप से अर्थपूर्ण है।"
तब तक वानरों ने शुक को लाकर राम के सम्मुख खड़ा कर दिया था, "आर्य राम को प्रणाम करो।"
किंतु शुक के चहेरे का भाव तनिक भी शालीन नहीं हुआ। वह अपने चेहरे पर कुछ और वितृष्णा और पूणा ले आया, "मैंने तुम्हें पहले कह दिया है कि मैं राक्षसराज लंकेश्वर महाराजाधिराज रावण का दूत हूं और उनका संदेश लेकर आया हूं। कंगले तपस्वियों से मेरा कोई अभिप्राय नहीं है। एक नृप का संदेश किसी नरेन्द्र को ही दिया जा सकता है। मैं किष्किंधापति वानरराज सुग्रीव के लिए राज-संदेश लाया हूं। उस कंगले...।" एक वानर प्रहरी का हाथ उठा, कदाचित् वह शुक को एक थप्पड़ लगा देता।
"ठहरो।" राम ने उसे बीच में रोक दिया, "यद्यपि अब हम रावण को लंकेश्वर नहीं मानते; लंकापति विभीषण हैं; फिर भी यदि यह किष्किंधापति वानरराज सुग्रीव के सम्मुख कुछ निवेदन करना ही चाहता है, तो इसकी इच्छा पूरी करो। वह स्वयं को दूत बता रहा है तो उसे दूत की मर्यादा दो।" राम की मुस्कान अत्यन्त मोहक थी।
प्रहरियों ने शुक को सुग्रीव के सम्मुख खड़ा कर दिया। इस बार शुक का व्यवहार अत्यन्त बदला हुआ था। उसने पूरे राजसी आडंबर के साथ सुग्रीव का अभिवादन किया और अत्यन्त शालीनतापूर्वक निवेदन किया, "यह जन किष्किंधापति वानरराज की सेवा में राक्षसराज लंकेश्वर रावण का संदेश निवेदित करने की अनुमति चाहता है।"
सुग्रीव के सामने पहली बार वह संकट आया था, जबकि राम की उपेक्षा कर, उनको इतना महत्त्व दिया जा रहा था। महत्त्व पाना सुग्रीव के लिए संकट का विषय नहीं था, किन्तु भरी सभा में प्रायः सभी प्रमुख सेनापतियों तथा मंत्रियों के सम्मुख यह दूत उनको सम्मान देने के बहाने राम की जो अवमानना कर रहा था, यह निश्चित रूप से स्थिति को बहुत ही विकट बना रहा था। किंतु स्वयं राम ने शुक को यह अनुमति दी थी और इसमे कोई संदेह नहीं था कि वानरों के राजा सुग्रीव ही थे-राम नहीं। इसके लिए दूत को कुछ कहा भी नहीं जा सकता था...।
"अनुमति है।" सुग्रीव ने एक भीत दृष्टि अपने साथियों पर डाली। वे देख रहे थे कि दूत के वचनों द्वारा उत्पन्न कर दी गई यह स्थिति किसी के लिए सुखद नहीं थी।
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