बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
अंगद का शरीर, राम के स्पर्श से जैसे बंध गया किंतु उनकी जिह्वा चल निकली, "नीच! तू यहां अपनी धूर्त्तता दिखाने आया है। हममें फूट का विष-वृक्ष बोना चाहता है। तेरा राजाधिराज क्या सारे विश्व का न्याय-नियंता है। उसने किस न्याय से कुबेर की लंका छीनी थी तथा अन्य लोगों के राज्यों, धन तथा स्त्रियों का हरण किया था। जा, जाकर उसे कह दे कि वह राजनीति की चिंताएं अब छोड़ दे। हम स्वयं लंका में आ रहे हैं, उसे अपराधों और पापों के लिए उसे मृत्युदंड देने; और लंका के हेम-सिंहासन पर न्यायोचित उत्तराधिकारी को बैठाने...।"
"शांत हो जाओ युवराज!" राम मधुर स्वर में बोले, "इस व्यक्ति पर क्रोध करना अनावश्क है। यह दूत मात्र है।" वे शुक की ओर मुड़े, "दूत! यद्यपि रावण ने मुझसे संबंधित होना अपने लिए अवमानना माना है, फिर भी जब कभी रावण के पास पहुंच सको, उसे मेरा एक संदेश दे देना।" वे थमकर बोले, "मेरे पास न राज्य है, न सत्ता, न सेना-मैं निर्धन, कंगाल तथा निष्कासित वनवासी हूं; किंतु मेरे पास अपने इन मित्रों के रूप में जो धन है, वह रावण के साम्राज्य पर भी भारी पड़ेगा।" वे मुस्कराए, "अब जाओ। इससे पहले कि हमारे सैनिक यह जान पाएं कि तुमने यहां क्या विष-वमन किया है, तुम्हें सुरक्षित स्थान पर भेज रहा हूं-सैनिक कारागार में। उचित समय आने पर तुम्हें मुक्त कर दिया जाएगा। यदि तुमने भागने का प्रयत्न किया तो कदाचित तुम्हारी सुरक्षा के लिए हम कुछ भी न कर सकें।"
वानर प्रहरी शुक को शीघ्रतापूर्वक वहां से निकाल ले गए; अन्यथा साधारण वानर सैनिक तो कदाचित् बाद में ही कुछ करते, स्वयं सुग्रीव का आक्रोश इतना बढ़ता जा रहा था कि संदेह होता था कि कहीं वे ही उसके वध का आदेश न दे दें।
"शुक के जाने के पश्चात वहां एक अटपटा-सा मौन छा गया। सग लोग स्वयं को संयत और संतुलित करने का प्रयत्न कर रहे थे।
उस मौन को सबसे पहले राम ने ही तोड़ा, "मित्रों। ये सारी बातें आज जो कही गई हैं, बार-बार कही जा सकती हैं। कहा जा सकता है कि मैं एक बाहरी व्यक्ति हूं। यह युद्ध मेरा और रावण का युद्ध है-भला उसमें वानर और भालुओं को अपने प्राण देने की क्या आवश्यकता है। अंगद के पिता का वध मेरे हाथों हुआ है और विभीषण की बहन लक्ष्मण के हाथों अपमानित हुई है...।"
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