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युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

समग्र रूप से संध्या तक वानर सेना पर्याप्त प्रबल सिद्ध हुई थी। किंतु संध्या होते-होते वे लोग थकने लगे थे। रथ के अश्वों की समता में दौड़ना और अपने से ऊंचाई पर रथ में सुरक्षित बैठे शत्रुओं के साथ लड़ना अपनी क्षमता को अल्पकाल में ही व्यय कर देने की मांग करता था। सूर्यास्त होने तक वे लोग अपनी क्षमता भर युद्ध कर चुके थे और अब रात्रि के लिए युद्ध स्थगित करने की इच्छा करते थे। किंतु राक्षस सेनाओं की ओर से इस प्रकार का कोई संकेत नहीं मिल रहा था।

पूर्णतः अंधकार हो जाने पर युद्ध चलता था। वानर अंधकार में लड़ने के अभ्यस्त नहीं थे; किंतु युद्ध स्थगित करना उनके हाथों में नहीं था। न तो दोनों पक्षों में ऐसा कोई समझौता होता दीख रहा था और न ही राक्षस सेनाएं वापस नगर में लौटने की इच्छुक प्रतीत हो रही थीं। युद्ध तो वानरों को लड़ना ही था।

अंधकार के कारण राक्षसों की गति में कोई अंतर नहीं पड़ा था। ऐसा नहीं लगता था कि उन्हें तनिक भी असुविधा हो रही है। वरन अंधकार में उनकी गति कुछ बढ़ ही गई थी।

राम की चिंता बढ़ती जा रही थी। उन्हें लग रहा था कि दिन भर के युद्ध से थकी हुई उनकी सेना, इस प्रकार अधिक देर तक टिक नहीं पाएगी। पता नहीं, अंधकार में राक्षस किस अभ्यास के आधार पर लड़ते थे। स्वयं को छिपाना तो सरल था, किंतु शत्रु को ढूंढ़ कर उस पर प्रहार करने का कोई विशिष्ट उपकरण उनके पास प्रतीत होता था। वानर सेना अग्निकाष्ठों की सहायता से युद्ध कर रही थी, किंतु क्षीण प्रकाश में राक्षस सेना के व्यूहों और स्थितियों को समझ पाना संभव नहीं था...। कदाचित् दिन भर युद्ध करने वाली उनकी वाहिनिया इस अंधकार में लंका लौट गई थीं और उनका स्थान नई वाहिनियों ने ले लिया था। नवागत वाहिनिया थकी हुई नहीं थी, इसलिए वे पूर्ण वेग के साथ युद्ध कर रही थीं।

जब तक राम राक्षसों की युद्ध-नीति समझें और उसके अनुसार अपनी सेना में परिवर्तन कर सकें, यज्ञशत्रु, महापार्श्व, महोदर, महाकाय तथा वजदंष्ट्र ने उन पर सम्मिलित आक्रमण कर दिया। कुछ परे हटकर लक्ष्मण, राक्षसों के एक व्यूह में उलझे हुए थे...राम अकेले पड़ गए थे। वानर सेना के किसी भी योद्धा के लिए युद्ध-क्षेत्र में राक्षसों की-सी गति संभव नहीं थी। राक्षस सेना-नायकों के रथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर भागते फिर रहे थे। रथों में पीछे रखे हुए शास्त्रागारों के कारण, न इन्हें शस्त्रों का अभाव होता था और न उनकी आपूर्ति में कठिनाई होती थी। युद्ध-भूमि में अपने पैरों पर खड़े राम, रथों में आए पांच राक्षस सेनापतियों से लोहा ले रहे थे।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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