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युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

सुग्रीव ने हताशा में अपना हाथ माथे पर मारा। विभीषण ने सुग्रीव का उदास मुख देखा और हताशा में माथे पर हाथ मारने का अर्थ समझा।

"मित्र सुग्रीव!" विभीषण धीरे से बोले, "युद्ध का परिणाम सदा अनिश्चित होता है चाहे योद्धा कोई भी हो। युद्ध-क्षेत्र में जाने से पूर्व स्वयं को जय और पराजय दोनों के लिए तैयार होना चाहिए...। " वे रुके, "मेघनाद ने राम तथा लक्ष्मण को अवश्य ही मृत मान लिया है। अन्यथा वह युद्ध छोड़कर कभी लंका में प्रवेश न करता। उसने जाकर रावण को अपने विजयी होने तथा राम एवं लक्ष्मण के वध की सूचना दी होगी। समाचार पाकर रावण अत्यन्त प्रसन्न हुआ होगा। उसने मेघनाद का अभिनन्दन किया होगा। तत्काल, सीता को राम के वध की सूचना भिजवाई होगी...अब वह देवी सीता को और भी क्लेश देगा। स्वयं को अंगीकार करने के लिए और भी दबाव डालेगा...और तुम यहां हताश होकर सिर पर हाथ मार रहे हो। बस इतना ही साहस और पुरुषार्थ था तुम्हारा, इसी आधार पर तुम रावण से लड़ने चले आए थे।" विभीषण ने रोष से सुग्रीव को देखा, "मैं इस प्रकार हताश होकर, सिर पर हाथ रखकर नहीं बैंठ सकता...मेरी पुत्री और पत्नी लंका में हैं..." विभीषण ने एक-एक शब्द चबाते हुए कहा, "मैं लंका का अधिपति न बन सकूं पर अपने परिवार को तो मुझे मुक्त कराना ही होगा। मैं युद्ध से विमुख नहीं हो सकता।"

सुग्रीव ने स्वयं को संभाला, "युद्ध से तो मैं विमुख नहीं हो रहा लंकापति।"

"युद्ध से विमुख होना और किसे कहते हैं।" विभीषण कुछ आवेश में बोले, "जो व्यक्ति केवल विजय की स्थिति में ही लड़ सकता है, अथवा तनिक आघात सहकर सिर थाम, हताश होकर बैठ जाता है-वह दूसरों का मनोबल भी क्षीण करता है। उसे युद्ध में विमुख हुआ ही समझो।" सुग्रीव ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। वे जैसे स्वयं को संगठित करते रहे। उनके अन्तर्युद्ध के चिन्ह उनके चेहरे पर स्पष्ट थे। बोले, "अब ऐसा नहीं होगा मित्र! आगे का कर्त्तव्य कहो।"

सुग्रीव के इस वाक्य पर सब से मुखर प्रतिक्रिया हनुमान ने व्यक्त की, "किष्किंधापति! आप स्वस्थ हो तो आर्य राम और लक्ष्मण के उपचार का भी कुछ प्रयत्न किया जाए।" उन्होंने रुककर इधर-उधर देखा, "तात सुषेण कहां हैं? वे उपचार क्यों नहीं करते?"

दिन भर के युद्ध से थके हुए वृद्धसुषेण जैसे कुछ खीझते हुए से बोले-

"समर्थ और वीर योद्धा, युद्ध-क्षेत्र में स्त्रियों के समान विलाप करने बैठ जाए तो मैं क्या करूं?"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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